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सोमवार, 12 सितंबर 2022

उद्भिज्ज-परिषद्

उद्भिज्ज-परिषद्

जेसीईआरटी तथा एनसीईआरटी के कक्षा-12 के संस्कृत पाठ्यपुस्तक-शाश्वती भाग 2 के  एकादशः पाठ: उद्भिज्ज-परिषद्  का शब्दार्थ सहित हिन्दी अनुवाद एवं भावार्थ तथा उस पर आधारित प्रश्नोत्तर सीबीएसई सत्र-2022-2023 के लिए यहाँ दिए गए हैं।यहाँ दिए गए हिंदी अनुवाद तथा भावार्थ की मदद से विद्यार्थी पूरे पाठ को आसानी से समझकर अभ्यास के प्रश्नों को स्वयं कर सकते हैं।
अथ सर्वविधविटपिनां मध्यभागे स्थितः सुमहान् अश्वत्थदेवः वदति-"भो भो वनस्पतिकुलप्रदीपा महापादपाः कुसुमकोमलदन्तरुचः लता-कुलललनाश्च ! सावहिताः शृण्वन्तु भवन्तः। अद्य मानववार्रवास्माकं समालोच्यविषयः। मानवा नाम सर्वासु सृष्टिधारासु निकृष्टतमा सृष्टिः, जीवसृष्टिप्रवाहेषु मानवा इव पर-प्रतारकाः स्वार्थसाधनपराः, मायाविनः, कपट-व्यवहारकुशलाः, हिंसानिरताः, जीवाः न विद्यन्ते। भवन्तो नित्यमेवारण्यचारिणः सिंहव्याघ्रप्रमुखान् हिंस्रत्वभावनया प्रसिद्धान् श्वापदान् अवलोकयन्ति। ततो भवन्त एव कथयन्तु याथातथ्येन किमेते हिंसादिक्रियासु मनुष्येभ्यो भृशं गरिष्ठाः।श्वापादानां हिंसाकर्म किल जठरानलनिर्वाणमात्रप्रयोजकम्। प्रशान्तजठरानले सकृदुपजातायां स्वोदरपूर्ती नहि ते करतलगतानपि हरिणशशकादीन् उपघ्नन्ति। न वा तथाविध-दुर्बलजीवानां घातार्थम् अटवीतोऽटवीं परिभ्रमन्ति।
हिन्दी-अनुवादः सभी प्रकार के वृक्षों के मध्यभाग में स्थितं विशाल अश्वत्थदेव (पीपल का वृक्ष) कहता है-“हे हे वनस्पतिकुल के दीपक महान् पौधो! और पुष्प रूपी कोमल दाँतों से सुशोभित लतावंश की ललनाओ" आप ध्यानपूर्वक सुनिए - आज मनुष्य व्यवहार ही हमारी आलोचना का विषय है। सभी सृष्टिधाराओं में सबसे निकृष्ट सृष्टि मनुष्य ही है। जीव सृष्टिप्रवाहों में मनुष्य की भाँति पर-पीड़क, स्वार्थपरायण, मायावी, कपट-व्यवहार में कुशल, हिंसा में संलग्न जीव नहीं हैं। आप नित्य ही जंगलों में घूमने वाले हिंसात्मक भावना के लिए प्रसिद्ध सिंह, व्याघ्र आदि पशुओं को देखते हैं। फिर आप ही ठीक-ठीक बताएँ कि क्या ये (पशु) हिंसक-क्रियाओं में मनुष्यों से बढ़कर हैं।पशुओं का हिंसाकर्म पेट की आग बुझाने मात्र के लिए होता है। जठराग्नि के शान्त हो जाने पर, एक बार अपनी उदरपूर्ति हो जाने पर वे (पशु) हाथ में आए हुए हिरण, खरगोश आदि को भी नहीं मारते। और न ही इस प्रकार के दुर्बल प्राणियों को मारने के लिए वे एक जंगल से दूसरे जंगल में घूमते हैं। 
मनुष्याणां हिंसावृत्तिस्तु निरवधिः। पशुहत्या तु तेषाम् आक्रीडनम्। केवलं विक्लान्तचित्तविनोदाय महारण्यम् उपगम्य ते यथेच्छं निर्दयं च पशुघातं कुर्वन्ति। तेषां पशुप्रहार-व्यापारमालोक्य जडानामपि अस्माकं विदीर्यते हृदयम्। 
हिन्दी-अनुवादः -मनुष्यों की हिंसावृत्ति तो असीम है। पशुहत्या तो उनका खेल है। केवल अपने बेचैन मन को प्रसन्न करने के लिए बड़े जंगल में जाकर वे जी-भरकर निर्दयतापूर्वक पशुवध करते हैं। उनके पशुप्रहार के व्यवहार को देखकर हम जड़ वृक्षों का हृदय भी फट जाता है। 
निरन्तरम् आत्मोन्नतये चेष्टमानाः लोभाक्रान्त-हृदयाः मनुजन्मानः किल प्रतिक्षणं स्वार्थसाधनाय सर्वात्मना प्रवर्तन्ते। न धर्ममनुधावन्ति, न सत्यमनुबध्नन्ति। परं तृणवद् उपेक्षन्ते स्नेहम्। अहितमिव परित्यजन्ति आर्जवम्। अमङ्गलमिव उपघ्नन्ति विश्वासम्। न स्वल्पमपि बिभ्यति पापाचारेभ्यः न किञ्चिदपि लज्जन्ते मुहुरनृतव्यवहारात्। नहि क्षणमपि विरमन्ति परपीडनात्। 
हिन्दी-अनुवादः -निरन्तर अपनी उन्नति के लिए प्रयत्नशील, लोभ से ग्रस्त हृदय वाले मनुष्य सब प्रकार से अपनी स्वार्थसाधना के लिए प्रतिक्षण लगे रहते है। न धर्माचरण करते हैं, न सत्य को स्वीकारते हैं; अपितु स्नेह (= प्राणिमात्र के प्रति प्यार) को अतितुच्छ समझकर उसकी उपेक्षा करते हैं। सरलता को हानिकर वस्तु की भाँति त्याग देते हैं। विश्वास को अमंगल (= अपशकुन) समझकर नष्ट कर देते हैं। पापाचार से वे थोड़ा भी नहीं डरते। बार-बार के झूठे व्यवहार से उन्हें थोड़ी सी भी लज्जा नहीं होती। दूसरों को पीडित करने से वे क्षणभर भी विराम नहीं लेते। 
न केवलमेते पशुभ्यो निकृष्टास्तृणेभ्योऽपि निस्सारा एव। तृणानि खलु वात्यया सह स्वशक्तितः सुचिरमभियुध्य सम्मुखसमरप्रवर्तमाना वीरपुरुषा इव शक्तिक्षये क्षितितले निपतन्ति, न तु कदाचित् कापुरुषा इव स्वस्थानम् अपहाय प्रपलायन्त। मनुष्याः पुनः स्वचेतसा एव भविष्यत-समये संघटिष्यमाणं कमपि विपत्पातमाकलय्य परिकम्पमानकलेवराः दुःख-दुःखेन समयमतिवाहयन्ति। परिकल्पयन्ति च पर्याकुला बहुविधान् प्रतिकारोपायान् येन मनुष्यजीवने शान्तिसुखं मनोरथपथादतिक्रान्तमेव। 
हिन्दी-अनुवादः -वे (मनुष्य) न केवल पशुओं से भी अधिक निकृष्ट हैं, (अपितु) तिनकों से भी अधिक तुच्छ हैं। तिनके तो आँधी के साथ अपनी शक्ति के अनुसार देर तक लड़कर, सम्मुख उपस्थित युद्ध में लगे हुए वीर पुरुषों की भाँति शक्तिक्षीण होने पर धरती पर गिर जाते हैं, न कि एक बार भी कायरों की तरह अपना स्थान छोड़कर भागते हैं। मनुष्य तो फिर अपने मन (ज्ञान) से ही भविष्य में होने वाली किसी विपत्ति का विचार कर कँपकँपाते शरीर वाले बड़े कष्टपूर्वक अपना समय बिताते हैं। और अति व्याकुल होकर प्रतिकार के लिए अनेक प्रकार के उपाय करते हैं, जिसके कारण मनुष्य जीवन में शान्ति और सुख उनके मनोरथ के मार्ग से दूर ही रहते हैं। 

अथ ते तावत्तृणेभ्योऽप्यसाराः पशुभ्योऽपि निकृष्टतराश्च। तथा च तृणा-दिसृष्टेरनन्तरं तथाविधजीवनिर्माणं विश्वविधातुः कीदृशं नाम बुद्धिमत्ताप्रकर्षं प्रकटयति। इत्येव हेतुप्रमाणपुरस्सरं सुचिरं बहुविधं विशदं च व्याख्याय सभापतिरश्वत्थदेव उद्भिज्ज-परिषद् विसर्जयामास।                                                                 हिन्ही-अनुवादः -इस प्रकार वे (मनुष्य) तिनकों से भी तुच्छ तथा पशुओं से भी निकृष्ट हैं। वनस्पति आदि की सृष्टि के पश्चात् इस प्रकार के जीवों (मनुष्यों) का निर्माण करना विश्व के सजनहार विधाता की कैसी बुद्धिमत्ता की अधिकता को प्रकट करता है ? इस प्रकार कारण और प्रमाण निर्देशपूर्वक बहुत देर तक, बहुत प्रकार से तथा विस्तृत व्याख्या करके सभापति अश्वत्थदेव (पीपल-देव) ने वृक्षों की सभा को विसर्जित किया।


प्रश्न 1. 
संस्कृतभाषया उत्तरत - 
(क) “उद्भिज्जपरिषद्' इति पाठस्य लेखकः कः अस्ति ? 
(ख) उद्भिजपरिषदः सभापतिः कः आसीत् ? 
(ग) अश्वत्थमते मानवाः तृणवत् कम् उपेक्षन्ते ? 
(घ) सृष्टिधारासु मानवो नाम कीदृशी सृष्टिः ?
(ङ) मनुष्यायाणां हिंसावृत्तिः कीदृशी ? 
(च) पशुहत्या केषाम् आक्रीडनम् ? 
(छ) श्वापदानां हिंसाकर्म कीदृशम् ? 
उत्तरम् :
(क) 'उद्भिज्जपरिषद्' इति पाठस्य लेखकः पण्डित-हृषीकेश-भट्टाचार्यः अस्ति। 
(ख) उद्भिज्जपरिषदः सभापतिः अश्वत्थ-देवः आसीत्। 
(ग) अश्वत्थमते मानवाः तृणवत् स्नेहम् उपेक्षन्ते।
(घ) सृष्टिधारासु मानवो नाम निकृष्टतमा सृष्टि: ? 
(ङ) मनुष्यायाणां हिंसावृत्तिः निरवधिः अस्ति। 
(च) पशुहत्या मनुष्याणाम् आक्रीडनम्। 
(छ) श्वापदानां हिंसाकर्म जठरानलनिर्वाणमात्रप्रयोजकम् अस्ति।

प्रश्न 2. 
रिक्तस्थानानि पुरयत - 
(क) मानवा नाम सर्वासु सृष्टिधारासु ..................सृष्टिः। 
(ख) मनुष्याणां .................. निरवधिः। 
(ग) नहि ते करतलगतानपि .............. उपघ्नन्ति। 
(घ) परं तृणवद् उपेक्षन्ते..................। 
(ङ) न केवलमेते पशुभ्यो निकृष्टास्तृणेभ्योऽपि ................ एव। 
उत्तरम् :
(क) मानवा नाम सर्वासु सृष्टिधारासु निकृष्टतमा सृष्टिः। 
(ख) मनुष्याणां हिंसावृत्तिः निरवधिः। 
(घ) विधि: - मनुष्याणां मनोविनोदाय वा मायाविनः सन्ति। 
(ग) नहि ते करतलगतानपि हरिण-शशकादीन् उपघ्नन्ति। 
(घ) परं तृणवद् उपेक्षन्ते स्हेनम्।
(ङ) न केवलमेते पशुभ्यो निकृष्टास्तृणेभ्योऽपि निस्साराः एव। 

प्रश्न 3. 
अधोलिखितानां पदानां वाक्येषु प्रयोगं कुरुत - 
मायाविनः, श्वापदान्, निरवधिः, विसर्जयामास, बिभ्यति, पर्याकुला:, लज्जन्ते, विरमन्ति, कापुरुषाः, प्रकटयति। 
उत्तरम् :
(वाक्यप्रयोगः) 
(क) मायाविनः - सृष्टिधारासु मानवाः सर्वाधिकाः मायाविनः सन्ति। 
(ख) श्वापदान् - मानवाः स्वमनोविनोदाय श्वापदान् हन्ति। 
(ग) निरवधि: - मनुष्याणां हिंसावृत्तिः निरवधिः अस्ति।
(घ) विसर्जयामास - सभापतिः सभां विसर्जयामस। 
(ङ) बिभ्यति - मानवाः पापाचारेभ्यः किमपि न बिभ्यति। 
(च) पर्याकुला: - विपत्तिषु मानवाः पर्याकुलाः भवन्ति। 
(छ) लजन्ते - मानवाः अनृतव्यवहारात् किञ्चिद् अपि न लज्जन्ते। 
(ज) विरमन्ति - स्वार्थसाधनपरा: मानवाः परपीडनात् न विरमन्ति। 
(झ) कापुरुषा: - कापुरुषाः तु आत्मरक्षाम् अपि कर्तुं न शक्नुवन्ति। 
(ञ) प्रकटयति - शिशुः क्रोधं प्रकटयति। 
प्रश्न 4. 
सप्रसगं हिन्दीभाषया व्याख्या कार्या - 
मनुष्याणां हिंसावृत्तिस्तु निरवधिः। पशुहत्या तु तेषाम् आक्रीडनम्। केवलं विक्लान्तचित्तविनोदाय महारण्यम् उपगम्य ते यथेच्छं निर्दयं च पशुघातं कुर्वन्ति। तेषां पशुप्रहार-व्यापारमालोक्य जडानामपि अस्माकं विदीर्यते हृदयम्। 
उत्तरम् :
प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'शाश्वती-द्वितीयो भागः' के 'उद्भिज्ज-परिषद्' नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ पण्डित हृषीकेश भट्टाचार्य के निबन्धसंग्रह 'प्रबन्ध-मञ्जरी' से संकलित है। इस निबन्ध में वृक्षों की सभा के सभापति पीपल ने मनुष्य की हिंसक प्रवृत्ति के प्रति तीखा व्यंग्य-प्रहार किया गया है।
सा के दो प्रमख रूप हैं - (1) स्वाभाविक भख की शान्ति के लिए हिंसा (2) मन बहलाने के लिए हिंसा। मांस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं है। परन्तु सिंह-व्याघ्र आदि पशुओं का स्वाभाविक भोजन मांस ही है। अतः ऐसे पशुओं को न चाहते हुए भी केवल पेट की भूख शान्त करने हेतु पशुवध करना पड़ता है। 

परन्तु इन पशुओं की यह विशेषता भी है कि भूख शान्त होने पर पास खड़े हुए हिरण आदि का भी ये वध नहीं करते। पशुओं का पशुवध भूख शान्ति तक ही सीमित होता है। परन्तु मनुष्य की पशुहिंसा असीम है। क्योंकि वह तो अपने बेचैन मन की प्रसन्नता के लिए ही पशुवध करता है। मनुष्य की इस विलक्षण एवं भयावह हिंसावृत्ति पर वृक्षों की सभा के सभापति अश्वत्थ (पीपल) को अत्यन्त खेद है और जड़ होने पर भी मनुष्य के इस दुष्कर्म से उसका हृदय फटा जा रहा है। 
प्रश्न 5. 
प्रकृति-प्रत्ययविभागः क्रियताम् - 
निकृष्टतमा, उपगम्य, प्रवर्तमाना, अतिक्रान्तम्, व्याख्याय, कथयन्तु, उपजन्ति, आक्रीडनम्। 
उत्तरम् :
प्रश्न 6. 
सन्धिच्छेदं कुरुत - 
मानवा इव, भवन्तो, स्वोदरपूर्तिम्, हिंसावृत्तिस्तु, आत्मोन्नतिम्, स्वल्पमपि। 
उत्तरम् :
(क) मानवा इव = मानवाः + इव 
(ख) भवन्तो नित्यम् = भवन्तः + नित्यम् 
(ग) स्वोदरपूर्तिम् = स्व + उदरपूर्तिम् 
(घ) हिंसावृत्तिस्तु = हिंसावृत्तिः + तु 
(ङ) आत्मोन्नतिम् = आत्म + उन्नतिम् 
(च) स्वल्पमपि = सु + अल्पम् + अपि 
प्रश्न 7. 
अधोलिखितानां समस्तपदानां विग्रहं कुरुत - 
महापादपाः, सृष्टिधारासु, करतलगतान्, वीरपुरुषाः, शान्तिसुखम्। 
उत्तरम् :
(क) महापादपाः - महान्तः पादपाः-कर्मधारयः। 
(ख) सृष्टिधारासु - सृष्टिः एव धारा, तासु-कर्मधारयः। 
(ग) करतलगतान् - करतलं गतान्-द्वितीया-तत्पुरुषः। 
(घ) वीरपुरुषाः - वीराः पुरुषा:-कर्मधारयः। 
(ङ) शान्तिसुखम् - शान्तिः च सुखं च तयोः समाहारः-द्वन्द्वः। 

बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः
I. पुस्तकानुसारं समुचितम् उत्तरं चित्वा लिखत - 
(i) 'उद्भिज्जपरिषद्' इति पाठस्य लेखकः कः अस्ति ? 
(A) आर्यभट्टः 
(B) हृषीकेश: भट्टाचार्यः 
(C) बाणभट्टः 
(D) अम्बिकादत्तव्यासः। 
उत्तरम् :
(B) हृषीकेश: भट्टाचार्यः 
(ii) उद्भिज्जपरिषदः सभापतिः कः आसीत्? 
(A) देवाधिपतिः 
(B) देवराज इन्द्रः 
(C) आम्रः 
(D) अश्वत्थदेवः। 
उत्तरम् :
(C) आम्रः 
(iii) अश्वत्थमते मानवाः तृणवत् कम् उपेक्षन्ते? 
(A) आत्मानम् 
(B) खगान् 
(C) स्नेहम् 
(D) पशून्।
उत्तरम् :
(B) खगान् 
(iv) सृष्टिधारासु मानवो नाम कीदृशी सृष्टिः ? 
(A) उत्कृष्टतमा 
(B) निकृष्टतमा 
(C) उत्तमा 
(D) बृहत्तमा। 
उत्तरम् :
(A) उत्कृष्टतमा
(v) मनुष्याणां हिंसावृत्तिः कीदृशी ? 
(A) निरवधिः 
(B) सावधिः 
(C) मासावधिः 
(D) वर्षावधिः। 
उत्तरम् :
(A) निरवधिः 
(vi) पशुहत्या केषाम् आक्रीडनम् ? 
(A) पुरुषाणाम् 
(B) स्त्रीणाम् 
(C) सिंहानाम् 
(D) मनुष्याणाम्। 
उत्तरम् :
(D) मनुष्याणाम्। 
II. रेखाङ्कितपदम् आधृत्य-प्रश्ननिर्माणाय समुचितं पदं चित्वा लिखत - 
(i) सावहिताः शृणवन्तु भवन्तः।  
(A) कः 
(B) के 
(C) को 
(D) काः। 
उत्तरम् :
(B) के 
(ii) मनुष्याणां हिंसावृत्तिस्तु निरवधिः। 
(A) केषाम् 
(B) कस्याम्
(C) कस्मात् 
(D) कैः। 
उत्तरम् :
(A) केषाम् 
(iii) मनुजन्मानः प्रतिक्षणं स्वार्थसाधनाय प्रवर्तन्ते। 
(A) कम् 
(B) के 
(C) किमर्थम्
(D) कथम्। 
उत्तरम् :
(B) के
(iv) मानवाः क्षणमपि परपीडनात् न विरमन्ति।
(A) कस्मात् 
(B) कम् 
(C) किम् 
(D) किमर्थम्।
उत्तरम् :
(D) किमर्थम्।
(v) मनुष्याः महारण्यम् उपगम्य यथेच्छं पशुघातं कुर्वन्ति ? 
(A) के 
(B) काः 
(C) कस्मै 
(D) किम्। 
उत्तरम् :
(A) के 
(vi) जीवसृष्टिप्रवाहेषु मानवाः इव हिंसानिरताः जीवाः न विद्यन्ते। 
(A) के 
(B) कथम् 
(C) कीदृशाः 
(D) काः। 
उत्तरम् :
(B) कथम् 


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जयतु संस्कृतम्।