वेदामृतम्
भारतीय वैदिक वाङ्मय संपूर्ण विश्व का प्राचीनतम वाङ्मय होने के साथ मनुष्य की अंतश्चेतना से फूटी उदात्त कविता का भी प्रथम निदर्शन है। वैदिक काव्य में विश्वशान्ति, विश्वबन्धुत्व, लोकतान्त्रिक मूल्य, निर्भयता तथा राष्ट्रप्रेम का सन्देश भरा पड़ा है जो आज के वातावरण में पहले से भी अधिक प्रासंगिक प्रतीत होता है।
प्रस्तुत पाठ में वैदिक काव्य का अमृततत्व ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद से संकलित किया गया है। इन कविताओं में अत्यन्त उदात्त एवं अनुकरणीय आदर्श विद्यमान है।
सङ्गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो॒ मनांसि जानताम्।
दे॒वा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।।1।। (ऋग्वेदः 10-191-2) अन्वयः-सम् गच्छध्वम्,सम् वदध्वम्, वः मनांसि सम् जानताम्। यथा पूर्वे देवाः सञ्जानानाः भागम् उपासते।
अर्थ एवं शब्दार्थ-
सम् गच्छध्वम्=(हमसब)एक साथ चलें,
सम् वदध्वम्=एक साथ बोलें,
वः= तुम्हारे
मनांसि=मन
सम् जानताम्=समान रूप से अर्थ को समझें
यथा=जैसे
पूर्वे=प्राचीन काल के
देवाः=देवगण
सञ्जानानाः= एकमत होकर
भागम्=अपने-अपने हवि के भाग को
उपासते=ग्रहण करते हैं।
भावार्थ–हे स्तोताओ ! जिसप्रकार प्राचीन काल में देवता लोग एकमत होकर अपने-अपने हवि के भाग को ग्रहण करते रहे हैं।उसीप्रकार हम सब साथ-साथ मिलकर चलों, साथ-साथ मिलकर बोलें अर्थात् हम सब लोगों की वाणी एक जैसी हो, कथनों में परस्पर विरोध न हो तथा तुम्हारे मन समान रूप से वस्तुस्थिति को समझें।
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा॑ वः सुसहासति॥2॥ (ऋग्वेदः 10-191-4)
अन्वयः- वः आकूतिः समानी, वः हृदयानि समाना, वः मनः समानमस्तु। यथा वः सुसह असति।
अर्थ एवं शब्दार्थ-
वः=तुम्हारे
आकूतिः=संकल्प या वचन
समानी=समान हों
वः=तुम्हारे
हृदयानि= हृदय
समाना=समान हों
वः=तुम्हारे
मनः= मन
समानमस्तु=समान हों
यथा= जिससे
वः=तुम्हारे
सुसह=संगठन
असति=अच्छा हो सके।
भावार्थ–हे सुख समृद्धि और उन्नति के इच्छुक मनुष्यों, तुम्हारे संकल्प एक सा होना चाहिए, तुम्हारे हृदय के अन्तर्भाव समान होने चाहिए,तुम्हारा चिन्तन तथा विचार समान होने चाहिए एवं तुम्हारे लक्ष्य समान होने चाहिए।ऐसा करने से तुम्हारे संगठन अच्छा होगा तथा तुम सभी का कल्याण होगा।
मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः ।
माध्वीर्नः स॒न्त्वोषधीः॥3॥ (ऋग्वेद: 1-90-7)
अन्वयः-ऋतायते वाताः मधु (सन्तु), सिन्धवः मधु क्षरन्ति। नः ओषधीः माध्वीः सन्तु।
अर्थ एवं शब्दार्थ-
(अपने लिए यज्ञ की कामना करने वाले)
ऋतायते=यजमान के लिए
वाताः=वायु
मधु (सन्तु)= माधुर्ययुक्त हों,
सिन्धवः=समुद्र अथवा नदियाँ
मधु= (मीठे) जल
क्षरन्ति=बहायें
(तथा)
नः= हमारी
ओषधीः=औषधियाँ
माध्वीः=मधुरता से भरी हुई
सन्तु=हों।
भावार्थ–अपने लिए यज्ञ की कामना करने वाले यजमान के लिए सभी हवायें मधुरता से युक्त हो जाएँ। सभी नदियाँ अथवा समुद्र मीठे जल को प्रवाहित करें। हमारी सभी औषधियाँ मधुरता से युक्त हो जाएँ।।मना करोगे ।
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरङ्गमञ्ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शि॒वसङ्कल्पमस्तु ॥4॥ (यजुर्वेद: 34.1)
अन्वयः- जाग्रतः यत् (मनः) दूरम् उदैति। तथा एव सुप्तस्य तदु दैवम् (मनः) इति। (यत्) ज्योतिषाम् दूरम् गमम् एकं ज्योतिः। मे तत् मनः शिवसंकल्पम् अस्तु
अर्थ एवं शब्दार्थ-
जाग्रतः= जागते हुए (प्राणी) का
यत् (मनः)= जो मन
दूरम्=दूर
उदैति=भाग जाता है
तथा एव=यत् (मनः)= जो मन
सुप्तस्य=सोये हुए (प्राणी) की भी
तदु=वही दशा होती है।
(परन्तु वही)
दैवम् (मनः) इति=दिव्य विज्ञान युक्त (मन)
(यत्)=जो
ज्योतिषाम्=विषयों का प्रकाशन करने वाली इन्द्रियों में
दूरम्=सर्वाधिक दूर तक
गमम्=पहुँचने वाली
एकं=एक
ज्योतिः=ज्योति है,
मे तत्=मेरा वह
मनः=मन
शिवसंकल्पम्= कल्याणकारी विचार वाला
अस्तु= बने।
भावार्थ–जागते हुए प्राणी का जो मन दूर भाग जाता है, वैसे ही सोये हुए प्राणी की भी वही दशा होती है। परन्तु वही दिव्य विज्ञान युक्त मन जो विषयों का प्रकाशन करने वाली इन्द्रियों में सर्वाधिक दूरी तक पहुँचाने वाला एक ज्योति है, मेरा वह मन कल्याणकारी, शुभ विचार वाला बने।
तच्चक्षुर्देवहितं पु॒रस्ताच्छुक्रमुच्चरत्
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतम् ।
शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतम्
अदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च श॒रदः शतात् ॥5॥ (यजुर्वेद 36-24) अन्वयः- देवहितं शुक्रं तत् चक्षुः पुरस्तात् उच्चरत्। शतम् शरदः पश्येम, शतम् शरदः जीवेम, शतम् शरदः शृणुयाम, शतम् शरदः प्रब्रवाम, शतम् शरदः अदीनाः स्याम, भूयः च शतात् शरदः।
अर्थ एवं शब्दार्थ-
देवहितम् = देवताओं के हितकारक,
शुक्रम् = दिव्य तथा चमकीला
तत्=उस(परमब्रह्म)का
चक्षुः = नेत्र रुपी सूर्य
पुरस्तात् = पूर्व दिशा में
उच्चरत् = उदित हुआ है।
(उस परमब्रह्म को हम लोग)
शतम् = सौ
शरदः = वर्ष तक
पश्येम=देखें,
(हम लोग)
शतम्=सौ
शरदः= वर्ष तक
जीवेम=जीवें,
शतम्=सौ
शरदः= वर्ष तक
शृणुयाम = सुनें,
शतम्= सौ
शरदः= वर्ष तक
प्रब्रवाम = बोलें।
(तथा)
शतम्=सौ
शरदः= वर्ष तक
अदीनाः = दीनता से रहित
स्याम = होवें।
भूयश्च = पुनः, बार-बार।
शतात्= सौ
शरदः= वर्ष के बाद भी
(हम लोग देखें,जीवें,सुनें तथा दीनता से रहित होवें।)
भावार्थ-जो परमब्रह्म देवताओं के हितकारक दिव्य तथा चमकीला,उस परमब्रह्म का नेत्र रुपी सूर्य पूर्व दिशा में उदित हुआ है। उसी ब्रह्म को हम लोग सौ वर्ष पर्यन्त देखें, जीवें, सुनें, उसी ब्रह्म का उपदेश करें तथा उनकी कृपा से सौ वर्ष तक दीनता से रहित होवें।. उसी परमेश्वर की आज्ञा पालन व कृपा से सौ वर्षो के उपरान्त भीहम लोग देखें,जीवें,सुनें तथा दीनता से रहित होवें।
जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसम् नाना॑धर्माणं पृथिवी यथौकसम्।
सहस्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव॑ धेनुरनुपस्फुरन्ती ॥6॥(अथर्ववेदः पृथिवीसूक्तम् 12.1.45)
अन्वयः-बहुधा विवाचसम् यथौकसम् नानाधर्माणं जनम् बिभ्रती पृथिवी ध्रुवा अनुपस्फुरन्ती धेनुः इव मे द्रविणस्य सहस्रम् धाराः दुहाम् ।
अर्थ एवं शब्दार्थ-
बहुधा = प्रायः
विवाचसम् = विभिन्न भाषा वाले,
यथौकसम् = धारण करने वाले घर के समान
नानाधर्माणं = अनेक धर्मों वाले
जनम् =लोगों को
बिभ्रती = धारण करती हुई
पृथिवी = पृथ्वी
अनुपस्फुरन्ती = न काँपती हुई (तथा)
धुवा = निश्चिल
धेनुः इव मे =खड़ी गाय की तरह
द्रविणस्य = (मेरे लिए )धन की
सहस्रम् धाराः =हजारों धाराओं से
दुहाम् =दुहे गये (दूध की तरह है।)
भावार्थ – विभिन्न भाषा वाले तथा धारण करने वाले घर के समान अनेक धर्मों वाले लोगों को धारण करती हुई पृथ्वी न काँपती हुई तथा निश्चल खड़ी गाय की तरह मेरे लिए धन की हजारों धाराओं से दुहे गये दूध की तरह है। जिस प्रकार अचल होकर खड़ी एक धेनु से हजारों धाराओं वाला दूध निकाला जा सकता है,उसी प्रकार यह पृथ्वी भी अपार सम्पदा को धारण करती हुई भी उसी तरह अटल, स्थिर तथा कम्पन रहित होकर खड़ी है। यह हमारी मातृभूमि नाना भाषा-भाषी तथा नाना कर्तव्य करने वाले मनुष्यों को एक घर के समान धारण करती है, वह लात न मारने वाली गाय के समान प्रसन्न होकर मेरे लिये धन की हजारों धाराओं को दुहे।
अभ्यासः
1. संस्कृतभाषया उत्तरत ।
(क) सङ्गच्छध्वम् इति मन्त्रः कस्मात् वेदात् सङ्कलित: ?
(ख) अस्माकम् आकूतिः कीदृशी स्यात् ?
(ग) अत्र मन्त्रे 'यजमानाय' इति शब्दस्य स्थाने कः शब्दः प्रयुक्तः ?
(घ) अस्मभ्यम् इति कस्य शब्दस्य अर्थः ?
(ङ) ज्योतिषां ज्योतिः कः कथ्यते ?
(च) माध्वी: काः सन्तु ?
(छ) पृथिवीसूक्तं कस्मिन् वेदे विद्यते ?
उत्तरम्-(क)ऋग्वेदात् (ख)समानी (ग)ऋतायते (घ) नः (ङ)दैवम्(मनः) (च)ओषधीः(छ)अथर्ववेदे
2. अधोलिखितक्रियापदैः सह कर्तृपदानि योजयत ।
(क) सञ्जानानाः उपासते ।
(ख) मधु क्षरन्ति ।
(ग) मे शिवसङ्कल्पम् अस्तु।
(घ)शतं शरद: शृणुयाम ।
उत्तरम्-(क)
(ख)
(ग)
(घ)
3. शुद्धं विलोमपदं योजयत ।
जाग्रतः वः
नः अदीनाः
दीना: सुप्तस्य
4. अधोलिखितपदानाम् आशयं हिन्दी-भाषया स्पष्टीकुरुत । उपासते, सिन्धवः, सवितः, जाग्रतः, पश्येम।
5.(क) वेदे प्रकल्पितस्य समाजस्य आदर्शस्वरूपम् पञ्चवाक्येषु चित्रयत।
(ख) मनसः किं वैशिष्ट्यम्?
6. पश्येम, शृणुयाम, प्रब्रवाम, इति क्रियापदानि केन इन्द्रियेण सम्बद्धानि ?
7. अधोलिखितवैदिकक्रियापदानां स्थाने लौकिकक्रियापदानि लिखत ।
असति, उच्चरत्, दुहाम्।
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जयतु संस्कृतम्।