प्रस्तुत पाठ आदिकवि महर्षि वाल्मीकिकृत रामायण के किष्किन्धा, अरण्य तथा सुन्दर काण्डों से संकलित है। रामायण संस्कृत साहित्य का आदि महाकाव्य माना जाता है। इस ग्रन्थ का सांस्कृतिक महत्त्व बहुत अधिक है। इसमें महर्षि वाल्मीकि ने जीवन के आदर्शभूत और शाश्वत मूल्यों का निर्देश किया है। इसमें राजा, प्रजा, पुत्र, माता, पत्नी, पति, सेवक आदि के पारस्परिक संबन्धों का एक आदर्श स्वरूप प्रस्तुत किया गया है। इस महाकाव्य में वाल्मीकि का प्रकृति-चित्रण अत्यन्त मनोरम एवं हृदयाकर्षक है।
इस पाठ में 1-3 श्लोकों में वसन्त ऋतु का, 4-6 श्लोकों में वर्षा ऋतु का, 7वें एवं 8वें श्लोक में शरद् ऋतु का, नवम में हेमन्त तथा दशम में शिशिर ऋतु का और एकादश में चन्द्रोदय का विशद एवं मनोहारी वर्णन किया गया है।
वाल्मीकिरामायणकिष्किन्धाकाण्डः - 1.10, 9, 13-
1.सुखानिलोऽयं सौमित्रे! कालः प्रचुरमन्मथः ।
गन्धवान् सुरभिर्मासो जातपुष्पफलद्रुमः ॥1॥
गन्धवान् सुरभिर्मासो जातपुष्पफलद्रुमः ॥1॥
अन्वयः - सौमित्रे! सुखानिलः गन्धवान् जातपुष्पफलद्रुमः प्रचुरमन्मथः अयं कालः सुरभिः मासः॥1॥
अर्थ एवं शब्दार्थ-
सौमित्रे!=सुमित्रा के पुत्र हे लक्ष्मण !
सुखानिलः=सुख देने वाली हवा
गन्धवान्=सुगन्ध से युक्त
जातपुष्पफलद्रुमः=उत्पन्न हुये फूलों,फलों तथा वृक्षों वाला,
प्रचुरमन्मथः=सुन्दरता की अधिकता वाला,
अयं कालः= यह समय
सुरभिः=वसन्त ऋतु का
मासः=मास है।
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या - हे सुमित्रा-पुत्र लक्ष्मण! सुख प्रदान करने वाली हवा को देने वाला, सुगन्ध प्रदान करने वाला, उत्पन्न हुए फूलों, फलों वाले वृक्षों वाला, कामदेव के आधिक्य को व्यक्त करने वाला, यह वसन्त ऋतु का समय है। फलों से परिपूर्ण, कामदेव की अधिकता-ये सभी विशेषण वसन्त ऋतु के द्योतक हैं।
विशेष - यहाँ वसन्त ऋतु का मनोहारी चित्रण किया गया है। वसन्त ऋतु में सुख देने वाली एवं सुगन्धित वायु बहती है, कामभाव में वृद्धि होती है तथा वृक्षों पर पुष्प एवं फल उत्पन्न होते हैं। सभी जगह सुगन्धित एवं रमणीय वातावरण हो जाता है।
पुष्पभारसमृद्धानि शिखराणि समन्ततः।
लताभिः पुष्पिताग्राभिरुपगूढानि सर्वतः ॥2॥
अन्वयः - समन्ततः पुष्पभार समृद्धानि सर्वतः पुष्पिताग्राभिः लताभिः उपगूढानि शिखराणि (सन्ति) ॥2॥
अर्थ एवं शब्दार्थ-
समन्ततः=चारों ओर
पुष्पभार= फलों के भार से
समृद्धानि=समृद्ध
सर्वतः= सब ओर से
पुष्पिताग्राभिः=खिले हुए फूलों वाली
लताभिः=लताओं से
उपगूढानि=भरी हुई
शिखराणि=पहाड़ों की चोटियाँ
(सन्ति)=(दिखाई दे रही) हैं।
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या - इस वसन्त ऋतु में चारों ओर से फूलों के भार से समृद्ध (परिपूर्ण), सब ओर से खिले हुए फूलों वाली लताओं से भरी हुई पहाड़ों की चोटियाँ दिखाई दे रही हैं।
विशेष - यहाँ वसन्तकालीन पर्वतों की शोभा का यथार्थ व सुन्दर चित्रण किया गया है।
3.पतितैः पतमानैश्च पादपस्थैश्च मारुतः ।
कुसुमैः पश्य सौमित्रे! क्रीडन्निव समन्ततः ॥3॥
कुसुमैः पश्य सौमित्रे! क्रीडन्निव समन्ततः ॥3॥
अन्वयः - सौमित्रे! पश्य, समन्ततः पतितैः पतमानैः च पादपस्थै च कुसुमैः क्रीडन् इव मारुतः (अस्ति)॥3॥
अर्थ एवं शब्दार्थ-
सौमित्रे!=हे लक्ष्मण!
पश्य= देखो,
समन्ततः=चारों ओर से
पतितैः= गिरे हुए
पतमानैः च=गिरते हुये
पादपस्थै च=पेड़ों पर स्थित
कुसुमैः=पुष्पों से
क्रीडन् इव=मानो खेलता हुआ सा
मारुतः (अस्ति)=वायु है।
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या - हे लक्ष्मण! देखो, (इस वसन्त ऋतु में) चारों ओर से गिरे हुए तथा गिरते हुए एवं पेड़ों पर विद्यमान फूलों से मानो क्रीड़ा करता हुआ पवन विद्यमान है।
विशेष - यहाँ पम्पासरोवर पर वसन्तकालीन वायु का रमणीय वर्णन किया गया है।
रामायणकिष्किन्धाकाण्ड:- 28.17, 22, 26
4. क्वचित्प्रकाशं क्वचिदप्रकाशं नभः प्रकीर्णाम्बुधरं विभाति।
क्वचित्क्वचित्पर्वतसन्निरुद्धं रूपं यथा शान्तमहार्णवस्य ॥4॥
अन्वयः - क्वचित् प्रकाशम् क्वचित् अप्रकाशम् प्रकीर्ण अम्बुधरम् नभः विभाति। क्वचित्-क्वचित् शान्तमहार्णवस्य यथा पर्वतसन्निरुद्धं रूपम् (विभाति)॥4॥
अर्थ एवं शब्दार्थ-
(वर्षा ऋतु में)
क्वचित्=कहीं पर
प्रकाशम्=उजाला (तथा)
क्वचित्=कहीं पर
अप्रकाशम्= अंधेरा
प्रकीर्ण=फैले हुए हैं।
अम्बुधरम्=बादल
नभः=आकाश (को)
विभाति=शोभा दे रहा है। (तथा)
क्वचित्-क्वचित्=कहीं-कहीं पर
शान्तमहार्णवस्य=महासमुद्र के
यथा=जैसा
पर्वतसन्निरुद्धं=पर्वतों से घिरे हुए
रूपम्=रूप को
(विभाति)=धारण किये हुए है। ।
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या - (वर्षा ऋतु में) कहीं पर प्रकाश (उजाला) है तो कहीं पर अप्रकाश (अन्धेरा) है। जिसमें सर्वत्र बादल फैले हुए हैं, ऐसा आकाश शोभा दे रहा है। कहीं-कहीं पर शान्त महासागर के समान पर्वतों से घिरे हुए रूप को धारण किये हुए है। भाव यह है कि समुद्र का स्वरूप वर्षा ऋतु में ऐसा हो जाता है, जैसे कि वह पहाड़ों से घिरा हुआ हो।
5.समुद्वहन्तः सलिलाऽतिभारं बलाकिनो वारिधरा नदन्तः ।
महत्सु शृङ्गेषु महीधराणां विश्रम्य विश्रम्य पुनः प्रयान्ति ॥5॥
अन्वयः - सलिल अतिभारं सम् उद्वहन्तः बलाकिनः वारिधराः नदन्तः महीधराणाम् महत्सु शृङ्गेषु विश्रम्य विश्रम्य पुनः प्रयान्ति॥5॥
अर्थ एवं शब्दार्थ-
सलिल= जल के
अतिभारं=अत्यधिक भार को
सम् उद्वहन्तः=धारण करते हुए
बलाकिनः=बगुलों से युक्त
वारिधराः=बादल
नदन्तः=गर्जना करते हुए
महीधराणाम्=पर्वतों की
महत्सु=बड़ी-बड़ी
शृङ्गेषु=चोटियों पर
विश्रम्य=विश्राम करके
विश्रम्य=कर-करके
पुनः= पुनः
प्रयान्ति=चल पड़ते हैं।
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या - पानी के अत्यधिक भार को वहन करते हुए बगुलों से युक्त बादल, गर्जना करते हुए पर्वतों की बड़ी-बड़ी चोटियों पर विश्राम कर-करके (पुनः) (आकाश की ओर) चल पड़ते हैं।
विशेष - यहाँ वर्षाकाल में आकाश में उमड़ते हुए बादलों की शोभा का सुन्दर एवं यथार्थ वर्णन किया गया है।
6.वहन्ति वर्षन्ति नदन्ति भान्ति ध्यायन्ति नृत्यन्ति समाश्वसन्ति ।
नद्यो घना मत्तगजा वनान्ताः प्रियाविहीनाः शिखिनः प्लवङ्गाः॥6॥
नद्यो घना मत्तगजा वनान्ताः प्रियाविहीनाः शिखिनः प्लवङ्गाः॥6॥
अन्वयः - नद्यः वहन्ति, घनाः वर्षन्ति, मत्तगजाः नदन्ति, वनान्ताः भान्ति, प्रियाविहीनाः ध्यायन्ति, शिखिनः नृत्यन्ति, प्लवङ्गाः समाश्वसन्ति ॥ 6॥
अर्थ एवं शब्दार्थ-
(वर्षा ऋतु में)
नद्यः=नदियाँ
वहन्ति=बहती हैं,
घनाः=बादल
वर्षन्ति=वर्षा करते हैं,
मत्तगजाः=मतवाले हाथी
नदन्ति=चिंघाड़ते हैं,
वनान्ताः=वन प्रदेश के भाग
भान्ति=शोभित हो रहे हैं,
प्रियाविहीनाः=अपनी प्रियाओं से वियुक्त जन
ध्यायन्ति=ध्यान करके उन्हें याद करते हैं,
शिखिनः=मोर
नृत्यन्ति=नाचते हैं तथा
प्लवङ्गाः=मेंढक
समाश्वसन्ति=प्रसन्न होते हैं।
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या - वर्षा ऋतु में नदियाँ बहती हैं। बादल वर्षा करते हैं। मदमस्त हाथी चिंघाड़ते हैं। वन प्रदेश के भाग सुशोभित होते हैं। अपनी प्रियाओं से वियुक्त जन ध्यान करके उन्हें याद करते हैं। मोर नाचते हैं। मेंढक प्रसन्न होते हैं।
विशेष - यहाँ वर्षाकाल में प्रसन्नचित्त पशु-पक्षी, प्रकृति व मानव-हृदय का दृश्य उपस्थित किया गया है।
7. जलं प्रसन्नं कुसुमप्रहासं क्रौञ्चस्वनं शालिवनं विपक्वम् ।
मृदुश्च वायुर्विमलश्च चन्द्रः शंसन्ति वर्षव्यपनीतकालम् ॥7॥
मृदुश्च वायुर्विमलश्च चन्द्रः शंसन्ति वर्षव्यपनीतकालम् ॥7॥
अन्वयः - कुसुमप्रहासम् प्रसन्नम् जलम्, क्रौञ्चस्वनम्, विपक्वम् शालिवनम्, मृदुः वायुः च विमलः चन्द्रः च वर्षव्यपनीतकालं शंसन्ति ॥7॥
अर्थ एवं शब्दार्थ-
कुसुमप्रहासम्=खिले हुए फूलों से युक्त
प्रसन्नम्=स्वच्छ
जलम्= जल,
क्रौञ्चस्वनम्=क्रौञ्च पक्षी की आवाज,
विपक्वम्=पका हुआ
शालिवनम्=धान का खेत एवं
मृदुः वायुः च=कोमल पवन तथा
विमलः चन्द्रः च=स्वच्छ चन्द्रमा
वर्षव्यपनीतकालं=वर्षा ऋतु व्यतीत होने के समय को
शंसन्ति=बतला रहे हैं।
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या - खिले हुए फूलों से युक्त स्वच्छ जल, क्रौञ्च पक्षी की आवाज, पका हुआ धान का खेत, कोमल शीतल पवन एवं स्वच्छ चन्द्रमा-वर्षा ऋतु व्यतीत होने के बाद आने वाली शरद् ऋतु की सूचना दे रहे हैं अर्थात् ये सभी दृश्य शरद् ऋतु के आगमन के सूचक हैं।
विशेष - यहाँ कवि ने वर्षाकाल के समाप्त होने के बाद शरद् ऋतु के आगमन पर प्रकृति के स्वरूप का सुन्दर एवं यथार्थ चित्रण किया है।
लोकं सुवृष्ट्या परितोषयित्वा नदीस्तटाकानि च पूरयित्वा ।
निष्पन्नशस्यां वसुधां च कृत्वा त्यक्त्वा नभस्तोयधराः प्रयाताः ॥8॥
अन्वयः - तोयधराः सुवृष्ट्या लोकं परितोषयित्वा, नदीः तटाकानि च पूरयित्वा, वसुधाम् च निष्पन्नशस्याम् कृत्वा, नभः त्यक्त्वा प्रयाताः॥8॥
अर्थ एवं शब्दार्थ-
तोयधराः= बादल
सुवृष्ट्या=अच्छी वर्षा से
लोकं=संसार के प्राणियों को
परितोषयित्वा=सन्तष्ट करके
नदीः=नदियों एवं
तटाकानि च=तालाबों को
पूरयित्वा=भरकर
वसुधाम् च=पृथ्वी को
निष्पन्नशस्याम्=खेती-बाड़ी का कार्य सम्पन्न होने वाली
कृत्वा=बनाकर
नभः=आकाश को
त्यक्त्वा= छोड़कर
प्रयाताः=चले गये हैं।
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या - बादल अच्छी वर्षा से संसार के प्राणियों को संतुष्ट करके, नदियों एवं तालाबों को भरकर तथा पृथ्वी को खेती-बाड़ी का कार्य सम्पन्न होने वाली बनाकर, आकाश को छोड़कर चले गये हैं। अर्थात् वर्षा ऋतु की समाप्ति हो गई है तथा शरद् का आगमन हो गया है।
वाल्मीकिरामायणकिष्किन्धाकाण्डः - 30, 53, 57
9. रविसङ्क्रान्तसौभाग्यस्तुषारारुणमण्डलः ।
निःश्वासान्ध इवादर्शश्चन्द्रमा न प्रकाशते ॥9॥
अन्वयः - रविसङ्क्रान्तसौभाग्यः तुषार अरुणमण्डल: निःश्वास-अन्ध: आदर्श इव चन्द्रमा न प्रकाशते॥
अर्थ एवं शब्दार्थ-
रविसङ्क्रान्तसौभाग्यः=सर्य के द्वारा जिसका प्रकाश मलिन कर दिया गया है
तुषार=तुषार से
अरुणमण्डल:=जिसका मण्डल अरुण वर्ण का कर दिया गया है(तथा)
निःश्वास-अन्ध:=श्वास से मलिन किये गये
आदर्श इव=दर्पण के समान
चन्द्रमा =चन्द्रमा
न प्रकाशते=प्रकाशित नहीं हो रहा है।
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या - सूर्य के द्वारा जिसका प्रकाश मलिन कर दिया गया है, तुषार से जिसका मण्डल (घेरा) अरुण वर्ण का कर दिया गया है (इस प्रकार का) तथा श्वास से मलिन किये गये दर्पण के समान चन्द्रमा प्रकाशित नहीं हो रहा है अर्थात् हेमन्त ऋतु में चन्द्रमा की कान्ति फीकी पड़ गई है।
वाल्मीकिरामायणम्, अरण्यकाण्ड: - 16, 9,13,24
10.वाष्पसञ्छन्नसलिला रुतविज्ञेयसारसाः ।
हिमाईबालुकास्तीरैः सरितो भान्ति साम्प्रतम् ॥10॥
अन्वयः - साम्प्रतम् वाष्पसञ्छन्नसलिला: रुतविज्ञेयसारसाः हिमाद्रबालुकाः सरितः तीरैः भान्ति।
अर्थ एवं शब्दार्थ-
साम्प्रतम्=इस समय (अर्थात् शिशिर ऋतु में)
वाष्पसञ्छन्नसलिला:=भाप से ढके हुए जल वाली
सारसाः=सारसों की
रुत=ध्वनि से
विज्ञेय=विशेष रूप से जानने योग्य
हिमाद्रबालुकाः=बर्फ से शीतल गीली रेत वाली
सरितः=नदियाँ
तीरैः=(अपने) किनारों से
भान्ति=प्रतीत हो रही हैं।
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या - इस समय अर्थात् शिशिर ऋतु में भाप से ढके हुए जल वाली, सारसों की आवाज से विशेष रूप से जानने योग्य, बर्फ से शीतल गीली रेत वाली नदियाँ (अपने) किनारों से प्रतीत हो रही हैं।
विशेष - यहाँ नदियों पर शिशिर ऋतु के प्रभाव का सुन्दर एवं स्वाभाविक चित्रण हुआ है। नदियों में जल दिखलाई नहीं देता है, अपितु बर्फ से उठती हुई भाप ही दिखाई देती है।
वाल्मीकिरामायणसुन्दरकाण्ड:-5,4
11.हंसो यथा राजतपञ्जरस्थः
सिंहो यथा मन्दरकन्दरस्थः।
वीरो यथा गर्वितकुञ्जरस्थ-
श्चन्द्रोऽपि बभ्राज तथाम्बरस्थः ॥11॥
अन्वयः - यथा हंसः राजतपञ्जरस्थः, यथा सिंहः मन्दरकन्दरस्थः, यथा वीरः गर्वितकुञ्जरस्थः च, तथा अम्बरस्थ: चन्द्रः अपि बभ्राज॥
अर्थ एवं शब्दार्थ-
यथा हंसः=जिस प्रकार हंस
राजतपञ्जरस्थः=चाँदी के पिंजरे में स्थित (होकर शोभित होता है),
यथा सिंहः=जिस प्रकार सिंह
मन्दरकन्दरस्थः=मन्दराचल की कन्दरा में स्थित (होकर शोभित होता है)
यथा वीरः=जिस प्रकार
गर्वितकुञ्जरस्थः च=गर्व से युक्त हाथियों में स्थित (होकर शोभित होता है)
तथा अम्बरस्थ:=उसी प्रकार आकाश में स्थित
चन्द्रः अपि=चन्द्रमा भी
बभ्राज=सुशोभित हो रहा था।
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या - जिस प्रकार चाँदी के पिंजरे में स्थित हंस शोभित होता है, जिस तरह मन्दर पर्वत की कन्दरा (गुफा) में स्थित शेर शोभित होता है और जिस प्रकार गर्व से परिपूर्ण हाथी की पीठ पर वीर स्थिर होकर शोभित होता है, उसी प्रकार (उदित होता हुआ) चन्द्रमा आकाश के मध्य में शोभित हो रहा था। .
विशेष - यहाँ शिशिर ऋतु में आकाश में स्थित धवल चन्द्रमा की शोभा का विविध उपमानों से सुन्दर चित्रण किया गया है।
अभ्यासः
उत्तरम्-
प्रश्न: 1.
संस्कृतेन उत्तरं दीयताम् -
(क) अयं पाठः कस्मात् ग्रन्थात् संकलितः?
उत्तरम्-
अयं पाठः महर्षिः वाल्मीके: रामायणात् संकलितः।
(ख) वसन्ते समन्ततः गिरिशिखराणि कीदृशानि भवन्ति?
उत्तरम्-
वसन्ते समन्ततः गिरिशिखराणि पुष्पभारसमृद्धानि भवन्ति।
ऋतुचित्रणम्
(ग) मारुतः कीदृशैः कुसुमैः क्रीडन्निव अवलोक्यते?
उत्तरम्-:
मारुतः पतितैः पतमानैश्च पादपस्थैश्च कुसुमैः क्रीडन्निव अवलोक्यते।
(घ) प्रकीर्णाम्बुधरं नभः कथं विभाति?
उत्तरम्-
प्रकीर्णाम्बुधरं नभः क्वचित् प्रकाशं क्वचिद प्रकाशं विभाति।
(ङ) कस्यातिभारं समुद्वहन्तः वारिधराः प्रयान्ति?
उत्तरम्-
सलिलातिभारं समुद्वहन्तः वारिधराः प्रयान्ति।
(च) वर्षर्तौ मत्तगजाः किं कुर्वन्ति?
उत्तरम्-
वर्षों मत्तगजाः नदन्ति।
(छ) शरदृतौ चन्द्रः कीदृशो भवति?
उत्तरम्-
शरदृतौ चन्द्रः विमल: भवति।
(ज) कानि पूरयित्वा तोयधराः प्रयाताः?
उत्तरम्-
नदी: तटाकानि च पूरयित्वा तोयधराः प्रयाताः।
(झ) अस्मिन् पाठे 'तोयधराः' इत्यस्य के के पर्यायाः प्रयुक्ताः?
उत्तरम्-
अस्मिन् पाठे 'तोयधराः' इत्यस्य अंबुधराः, वारिधराः, घनाः च एते पर्यायाः प्रयुक्ताः।
(ञ) कीदृशः आदर्शः न प्रकाशते?
उत्तरम्-
निःश्वासान्धः आदर्श: न प्रकाशते।
(ट) शिशिरौ सरितः कैः भान्ति?
उत्तरम्-
शिशिरौ सरितः हिमाद्रबालुकास्तीरैः भान्ति।
प्रश्नः 2.
रिक्तस्थानानि पुरयत -
(क) समन्ततः .............. शिखराणि सन्ति।
उत्तरम्-
समन्ततः पुष्यभारसमृद्धानि शिखराणि सन्ति।
(ख) नभः ......................"विभाति।
उत्तरम्-
नभः प्रकीर्णाम्बुधरम् विभाति।
(ग) वारिधराः महीधराणां शृङ्गेषु. प्रयान्ति।
उत्तरम्-
वारिधराः महीधराणां शृङ्गेषु विश्रम्य पुनः प्रयान्ति।
(घ) तोयधरा:..........प्रयाताः।
उत्तरम्-
तोयधराः नभः त्यक्त्वा प्रयाताः।
(ङ) नि:श्वासान्धः आदर्श इव ....................... 'न प्रकाशते।
उत्तरम्-
निःश्वासान्धः आदर्श इव चन्द्रमा न प्रकाशते।
प्रश्न: 3.
अधोलिखितानां सप्रसङ्ग व्याख्या कार्या -
(क) मारुतः कुसुमैः पश्य सौमित्रे ! क्रीडन्निव समन्ततः।
अन्वयः - श्लोकांशोऽयं अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य 'ऋतुचित्रणम्' इति पाठात् उद्धृतः। मूलतः एषः पाठः वाल्मीकि विरचितात् रामायण महाकाव्यात् संकलितोऽस्ति। अस्यां पंक्तौ सीता वियुक्तः श्रीरामः लक्ष्मणं वसन्तऋतोः दृश्यं वर्णयन् कथयति
व्याख्या - सौमित्रे! = हे सुमित्रानन्दन! पश्य = इत:वीक्ष मारुतः = अयं वायुः, समन्ततः = सर्वतः, कुसुमैः = पुष्पैः सह, क्रीडन् इव = क्रीडति यथा प्रतीयते। इदं दृश्य इत्थं शोभते यत् पवनः पुष्पैः सार्द्ध क्रीडतीव।
(हे लक्ष्मण! इधर देखो, यह वायु सभी ओर से फूलों के साथ जैसे खेल रही है, ऐसा प्रतीत होता है। यह दृश्य ऐसा सुशोभित हो रहा है कि हवा पुष्पों के साथ मानो खेल खेल रही है।)
विशेषः - क्रीडन्निव-इत्यत्र उपमाऽलंकारः।
(ख) निःश्वासान्धः इवादर्शश्चन्द्रमा न प्रकाशते।
अन्वयः - अयं श्लोकांशः अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य 'ऋतुचित्रणम्' इति पाठात् उद्धृतः। अस्यां पंक्तौ गोदावरी रीति नद्यास्तरे पञ्चवट्यां रामानुजः लक्ष्मणः स्वाग्रज हेमन्त ऋतोः वर्णनं करोति -
व्याख्या - नि:श्वासान्धः दीर्घ निःश्वासेन, अन्धः = मलिनः, आदर्श इव = दर्पणवत्, चन्द्रमा = शशिः, न प्रकाशते = न शोभते। भावोऽयं यत् यथा दीर्घ निःश्वासेन निसतेन वाष्पेण अन्धः मलिनः दर्पणः न शोभते तथैव शशिः अपि सूर्येण आक्रान्तः हिमकणैः च मलिनः न शोभते।
(दीर्घ निःश्वास से मलीन दर्पण के समान चन्द्रमा सुशोभित नहीं हो रहा है। भाव यह है कि जैसे लम्बी साँस से निकली हुई भाप से अन्धा (मलिन) हुआ दर्पण शोभा नहीं देता, उसी प्रकार सूर्य द्वारा आक्रान्त हुआ तथा हिमकणों से मलिन हुआ चन्द्रमा शोभा नहीं देता।)।
प्रश्न: 4.
प्रकृतिं प्रत्ययं च योजयित्वा पदरचनां कुरुत -
कृ + क्त्वा (त्वा), क्रीड्+शतृ, गन्ध+मतुप्, सम्+नि+रुध् क्त।
उत्तरम् :
कृ + क्त्वा = कृत्वा। भोजनं कृत्वा अहं आपणं गमिष्यामि।
क्रीड् + शतृ = क्रीडन्। क्रीडन् बालकः अपतत्।
गन्ध + मतुप् = गन्धवान्। गन्धवान् अयं काल: वसन्त मासः वर्तते।
सम् + नि + रुध् + क्त = सन्निरुद्धम्।
शान्तमहार्णवस्य इव पर्वत - सन्निरुद्धं रूपं शोभते।
प्रश्नः 5.
प्रकृतिप्रत्ययविभागः क्रियताम् -
त्यक्त्वा, विश्रम्य, समुद्वहन्तः, पतमानः, हिमवान्।
उत्तरम्-
प्रश्नः 6.
अधोलिखितान् शब्दान् आश्रित्य वाक्यरचनां कुरुत -
क्रीडन्, गन्धवान्, विश्रम्य, पूरयित्वा, नभः, नदन्तः, त्यक्त्वा, साम्प्रतम्, शिखिनः, प्रयाति।
उत्तरम्-
पवनः पुष्पैः क्रीडन् अस्ति।
गन्धवान् वायुः वाति।
अत्र विश्रम्य अहं ग्रामं गमिष्यामि।
तव मनोरथं पूरयित्वा सा गता।
अद्य नभः विमलं वर्तते।
नदन्तः मेघाः भयं जनयन्ति।
बालकः स्वजनकं त्यक्त्वा न गमिष्यति।
साम्प्रतम् अहं अध्ययनं करिष्यामि।
शिखिनः वर्षाकाले नृत्यन्ति।
रमा पाठशाला प्रयाति।
प्रश्नः 7.
सन्धिं/सन्धिविच्छेदं वा कुरुत -
(क) सुख + अनिलः + अयम् = ....................
(ख) प्रकीर्णाम्बुधरम् = .............. + ............
(ग) क्रीडन् + इव = ................
(घ) चन्द्रोऽपि = .................. + .............
(ङ) नि:श्वास + अन्धः = ..............
उत्तरम्-
(क) सुखानिलोऽयम्।
(ख) प्रकीर्ण + अम्बुधरम्।
(ग) क्रीडन्निव।
(घ) चन्द्रः + अपि।
(ङ) निःश्वासान्धः।
प्रश्न: 8.
अधोलिखितानां कर्तृक्रियापदानां समुचितं मेलनं कुरुत -
(क) प्लवङ्गाः - नदन्ति
(ख) वनान्ताः - समाश्वसन्ति
(ग) शिखिनः - भान्ति
(घ) नद्यः - ध्यायन्ति
(ङ) मत्तगजाः - वर्षन्ति
(च) प्रियाविहीनाः - नृत्यन्ति
(छ) घनाः - वहन्ति।
उत्तरम्-
(क) प्लवङ्गाः - समाश्वसन्ति
(ख) वनान्ताः - भान्ति
(ग) शिखिनः - नृत्यन्ति
(घ) नद्यः - वहन्ति
(ङ) मत्तगजाः - नदन्ति
(च) प्रियाविहीनाः - ध्यायन्ति
(छ) घनाः - वर्षन्ति।
प्रश्नः 9.
अधोलिखितयोः श्लोकयोः अन्वयं प्रदर्शयत -
(क) समुद्वहन्तः सलिलातिभारं .......... प्रयान्ति।
(ख) हंसो यथा ............ तथाम्बरस्थः।
उत्तरम्-
(क) उत्तर के लिए पाठ के पाँचवें श्लोक का अन्वय देखिये।
(ख) उत्तर के लिए पाठ के ग्यारहवें श्लोक का अन्वय देखिये।
प्रश्नः 10.
अधोलिखितेषु श्लोकेषु प्रयुक्तालङ्काराणां निर्देशं कुरुत -
(क) पतितैः पतमानैश्च .......... क्रीडन्निव समन्ततः।
(ख) वहन्ति वर्षन्ति ............. प्लवङ्गाः।
(ग) रविसङ्क्रान्तः सौभाग्य: ............... चन्द्रमा न प्रकाशते।
उत्तरम्-
(क) 'प वर्ण' की आवृत्ति होने से इस श्लोक में अनुप्रास अलंकार है। 'क्रीडन्निव' में उत्प्रेक्षा अलंकार
(ख) इस श्लोक में अनुप्रास तथा यथासंख्य अलंकार हैं।
(ग) इस श्लोक में उपमा तथा अनुप्रास अलंकार हैं।
प्रश्नः 11.
अधोलिखित श्लोकेषु छन्दो निर्देशः कार्य: -
(क) क्वचित्प्रकाशम् ......... शान्तमहार्णवस्य।
(ख) हंसो यथा ................ तथाम्बरस्थः।
(ग) रविसङ्क्रान्त सौभाग्य: ............... न प्रकाशते।
उत्तरम्-
(क) इस श्लोक में 'उपजाति' छन्द है।
(ख) इस श्लोक में 'इन्द्रवज्रा' छन्द है।
(ग) इस श्लोक में 'अनुष्टुप् छन्द है।
संस्कृतभाषया उत्तरम् दीयताम् -
प्रश्न: 1.
रामायणस्य रचयिता कः?
उत्तरम् :
रामायणस्य रचयिता वाल्मीकिः अस्ति।
प्रश्न: 2.
संस्कृत साहित्यस्य आदि महाकाव्यं किं मन्यते?
उत्तरम् :
संस्कृत साहित्यस्य आदि महाकाव्यं रामायणं मन्यते।
प्रश्न: 3.
रामायणे प्रकृतिचित्रणं कीदृशं वर्तते?
उत्तरम् :
रामायणे प्रकृतिचित्रणं अतिमनोरम हृदयाकर्षकं चास्ति।
प्रश्न: 4.
प्रचुरमन्मथः को मास:?
उत्तरम् :
प्रचुरमन्मथः वसन्तमासः अस्ति।
प्रश्नः 5.
महीधराणाम् महत्सु शृङ्गेषु विश्रम्य विश्रम्य के प्रयान्ति?
उत्तरम् :
वारिधराः महीधराणां महत्सु शृङ्गेषु विश्रम्य पुनः प्रयान्ति।
प्रश्नः 6.
वर्षौ प्रियाविहीनाः किं कुर्वन्ति?
उत्तरम् :
वर्षौ प्रियाविहीनाः ध्यायन्ति।
प्रश्नः 7.
कं परिपोषयित्वा तोयधराः प्रयाता?
उत्तरम् :
लोकं सुवृष्ट्या परिपोषयित्वा तोयधराः प्रयाताः।
प्रश्नः 8.
चन्द्रोदयस्य मनोहारी वर्णनं कस्मिन् श्लोके कृतम्?
उत्तरम् :
चन्द्रोदयस्य मनोहारी वर्णनं एकादश श्लोके कृतम्।
प्रश्न: 9.
साम्प्रतम् सरितो कथं कैः भान्ति?
उत्तरम् :
साम्प्रतम् हिमाबालुकास्तीरैः सरितो भान्ति।
प्रश्न: 10.
सिंहो कथं राजते?
उत्तरम् :
सिंहो मन्दरकन्दरस्य: राजते।
प्रश्न: 11.
कविषु आदिकविः कः कथ्यते?
उत्तरम् :
कविषु आदिकविः वाल्मीकिः कथ्यते।
प्रश्न: 12.
वीरो कथं राजते?
उत्तरम् :
वीरो गर्वितकुञ्जरस्थः राजते।
योग्यता विस्तार पर आधारित प्रश्न -
प्रश्नः 1.
महाकवि कालिदासेन कस्मिन् काव्ये षड् ऋतूनां वर्णनं कृतम्?
उत्तरम् :
महाकवि कालिदासेन 'ऋतुसंहार' काव्ये षण्णाम् ऋतूनां वर्णनं कृतम्।
प्रश्नः 2.
षण्णाम् ऋतूनां क्रमेण नामानि लिखत?
उत्तरम् :
ग्रीष्म-वर्षा-शरद्-हेमन्त-शिशिर-वसन्ताश्च इमे षड् ऋतवः सन्ति।
प्रश्न: 3.
कस्मिन् ऋतौ सूर्यः प्रचण्डः जायते?
उत्तरम् :
ग्रीष्म ऋतौ सूर्यः प्रचण्डः जायते।
प्रश्नः 4.
कास्मन् ऋता शालिः परिपक्व भवति?
उत्तरम् :
हेमन्त ऋतौ शालिः परिपक्व भवति।
प्रश्नः 5.
कस्मिन् ऋतौ सर्वं चारुतरं प्रतीयते?
उत्तरम् :
वसन्तौ सर्वं चारुतरं प्रतीयते।
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जयतु संस्कृतम्।