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मंगलवार, 13 सितंबर 2022

आहारविचारः

 

                                         आहारविचार:
          प्रस्तुत पाठ चरकसंहिता के 'विमानस्थानम्' प्रकरण के 'रसविमान' नामक प्रथम अध्याय से संकलित है। यहाँ प्रयुक्त विमान शब्द का तात्पर्य रोगात्मक दोषों एवं ओषधियों के विज्ञान से है। इसमें बताया गया है कि स्वास्थ्य का मूल आधार समुचित आहार है। भोजन के प्रकार, उसकी मात्रा तथा उचित समय आदि का विधान ही इस अंश का वर्ण्य है।
      उष्णमश्नीयात्, उष्णं हि भुज्यमानं स्वदते, भुक्तं चाग्निमौदर्यमुदीरयति, क्षिप्रं जरां गच्छति, वातमनुलोमयति, श्लेष्माणं च परिहासयति, तस्मादुष्णमश्नीयात्।
गर्म भोजन खाना चाहिए। क्योंकि खाया हुआ गर्म भोजन अच्छा लगता है। खाया हुआ वह भोजन पेट की आग (जठराग्नि) को बढ़ाता है। शीघ्र पच जाता है। (पेट में विद्यमान) वायु को नीचे ले जाता है तथा कफ को नष्ट करता है। अतः गर्म (भोजन) खाना चाहिए।
      स्निग्धमश्नीयात्, स्निग्धं हि भुज्यमानं स्वदते, क्षिप्रं जरां गच्छति, वातमनुलोमयति, शरीरमुपचिनोति, दृढीकरोतीन्द्रियाणि, बलाभिवृद्धि-' मुपजनयति, वर्णप्रसादं चाभिनिर्वर्तयति; तस्मात् स्निग्धमश्नीयात्।
       चिकनाई, घी, तेल आदि से युक्त भोजन खाना चाहिए। निश्चय ही चिकनाई युक्त खाया हुआ भोजन स्वादिष्ट लगता है। शीघ्र पच जाता है। (पेट में विद्यमान) वायु को बाहर निकालता है। शरीर को पुष्ट करता है। इन्द्रियों को ताकतवर बनाता है। ताकत की वृद्धि को उत्पन्न करता है। रंग-रूप में निखार आता है। अतः चिकनाई युक्त भोजन करना चाहिए। 
      मात्रावदश्नीयात्, मात्रावद्धि भुक्तं वातपित्तकफानपीडयदायुरेव चोष्माणमुपहन्ति, अव्यथं विवर्धयति केवलं सुखं विपच्यते, न च परिपाकमेति, तस्मान्मात्रावदश्नीयात्।

       उचित मात्रा में (न अधिक, न कम) खाना चाहिए। क्योंकि उचित मात्रा में खाया हुआ (भोजन) वात, पित्त और कफ को कष्ट न देता हुआ किसी प्रकार का विकार पैदा न करता हुआ, आयु को ही न केवल बढ़ाता है अपितु सरलता से पच भी जाता है। गर्मी को (पाचन शक्ति) को भी मन्द नहीं करता है। बिना कष्ट के सरलता से पच जाता है। अतः उचित मात्रा में (भोजन) खाएँ या खाना चाहिए। 
          जीर्णेऽश्नीयात् अजीर्णे हि भुञ्जानस्याभ्यवहतमाहारजातं पूर्वस्याहारस्य रसमपरिणतमुत्तरेणाहार-रसेनोपसृजत् सर्वान् दोषान् प्रकोपयत्याशु, जीर्णे तु भुञ्जानस्य स्वस्थानस्थेषु दोषेष्वग्नौ चोदीर्णे जातायां च बुभुक्षायां विवृतेषु च स्त्रोतसां मुखेषु विशुद्धे चोद्गारे हृदये विशुद्धे वातानुलोम्ये विसृष्टेषु च वातमूत्रपुरीषवेगेषु अभ्यवहृतमाहारजातं सर्वशरीरधातूनप्रदूषयदायुरेवाभिवर्धयति केवलम्, तस्माज्जीर्णेऽश्नीयात् ।                                जब पहले खाया हुआ (भोजन) पच जाए तब पुनः भोजन करना चाहिए। पहले खाये हुये भोजन के न पचने पर खाया हुआ भोजन रस रूप में न पहुँचे हुये पहले भोजन के साथ मिलकर शीघ्र ही सारे दोषों को शीघ्रता से बढ़ा देता है अर्थात् अनेक प्रकार के विकार उत्पन्न कर देता है। पहले खाये हुये भोजन के पच जाने पर तो भोजन करने वाले के दोष अपने-अपने स्थानों पर स्थित रहते हैं अर्थात् वे वृद्धि को प्राप्त नहीं होते हैं।जठराग्नि तेज हो जाती है। भोजन करने की इच्छा पैदा हो जाती है। मल-मूत्र आदि निकलने के मार्ग खुल जाते हैं। चित्तवृत्ति विशुद्ध हो जाती है, हृदय शुद्ध हो जाता है। वायु अनुकूल हो जाती है। वायु मूत्र, मल का वेग समाप्त हो जाता है। (ऐसी स्थिति में) किया हुआ भोजन शरीर के सम्पूर्ण तत्त्वों को दूषित न करता हुआ केवल आयु की वृद्धि करता है। अतः पूर्व में किये हुये भोजन के पच जाने पर ही दोबारा भोजन करना चाहिए।                                                                    वीर्याविरुद्धमश्नीयात्, अविरुद्धवीर्यमश्नन् हि विरुद्धवीर्याहार- जैर्विकारैर्नोपसृज्यते । तस्माद् वीर्याविरुद्धमश्नीयात् ।                                                                                                                                   जो भोजन शक्ति के विरुद्ध न हो, बल को कम करने वाला न हो, वही भोजन करना चाहिए। शक्ति के अविरुद्ध भोजन करने वाला निश्चय से शक्ति विरोधी भोजन से उत्पन्न होने वाले विकारों से ग्रस्त नहीं होता। उसके शरीर में कोई अतः ऐसा भोजन करना चाहिए जो शक्ति को कम करने वाला न हो। अतः शक्तिवर्द्धक पदार्थ ही खाने चाहिए। 

    नातिद्रुतमश्नीयात्, अतिद्रुतं हि भुञ्जानस्योत्स्नेहनमवसादनं भोजनस्याप्रतिष्ठानं च भोज्यदोषः साद्गुण्योपलब्धिः चः न नियता, तस्मान्नातिद्रुतमश्नीयात्।
        बहुत जल्दी-जल्दी नहीं खाना चाहिए। क्योंकि बहुत जल्दी-जल्दी खाने वाले को उल्टी आदि हो सकती है। इस प्रकार किया गया भोजन कष्टकारक हो सकता है तथा उचित स्थान पर नहीं पहुँच पाता। साथ ही खाने योग्य पदार्थों का दोषों के वशीभूत होना संभव हो जाता है। साथ ही ऐसे भोजन से गुणों की प्राप्ति भी निश्चित नहीं होती। अतः भोजन अतिशीघ्र नहीं करना चाहिए। 
      अजल्पन्नहसन् तन्मना भुञ्जीत, जल्पतो हसतोऽन्यमनसो वा भुञ्जानस्य त एव दोषा भवन्ति य एवातिद्रुतमश्नतः, तस्माद- जल्पन्नहसंस्तन्मना भुञ्जीत।
         बिना बोलते हुये, बिना हँसते हुये शान्त भाव से एकाग्रचित्त होकर भोजन करना चाहिए। बात करते हुये, हँसते हुए या चंचल चित्त वाला होकर भोजन करने वाले को वे ही दोष होते हैं जो अतिशीघ्र भोजन करने वाले को होते हैं। अतः न बोलते हुये, न हँसते हुये, शान्त चित्त से एकाग्रभाव से ही भोजन करना चाहिए। 
  इष्टे देशे इष्टसर्वोपकरणं चाश्नीयात्। इष्टे हि देशे इष्टैः सर्वोपकरणैः सह भुञ्जानो नानिष्टदेशजैर्मनोविघातकरैर्भावैर्मनोविघातंप्राप्नोति । तस्मादिष्टे देशे तथेष्टसर्वोपकरणं चाश्नीयात् ।
       भोजन इच्छित या मनपसन्द स्थान पर तथा इच्छित समस्त पदार्थों (जैसे-चटनी, अचार, दही, छाछ आदि) सहित करना चाहिए। क्योंकि इच्छित स्थान पर इच्छित द्रव्यों के साथ भोजन करने वाला नापसन्द स्थान में उत्पन्न होने वाले मानसिक कष्ट को देने वाले भावों से मानसिक कष्ट प्राप्त नहीं करता। अतः इच्छित स्थान पर तथा इच्छित द्रव्यों से युक्त भोजन करना चाहिए। 
        नातिविलम्बितमश्नीयात्; अतिविलम्बितं हि भुञ्जानो न तृप्तिमधिगच्छति, बहुभुक्तं शीतीभवत्याहारजातं विषमं च पच्यते, तस्मान्नातिविलम्बितमश्नीयात् ।
        भोजन बहुत विलम्ब करके (बहुत धीरे-धीरे) नहीं खाना चाहिए। देर करके खाने वाले को भोजन से तृप्ति प्राप्त नहीं होती। वह उचित मात्रा से अधिक खा जाता है। सारा भोजन ठण्डा हो जाता है तथा कठिनता से पचता है। अतः बहुत अधिक देरी करके भोजन नहीं करना चाहिए। 


प्रश्न: 1. 
संस्कृतेन उत्तरत -
(क) एषः पाठः कस्मात् ग्रन्थात् उद्धृतः? 
उत्तरम् : 
एषः पाठः 'चरकसंहितायाः उद्धृतः। 

(ख) चरकसंहितायाः रचयिता कः? 
उत्तरम् : 
चरकसंहितायाः रचयिता महर्षि चरकः अस्ति। 

(ग) कीदृशं भोजनं इन्द्रियाणि दृढी करोति? 
उत्तरम् : 
स्निग्धं भोजनं इन्द्रियाणि दृढी करोति। 

(घ) अजीर्णे भुञानस्य कः दोषः भवति? 
उत्तरम् : 
अजीर्णे भुञ्जानस्य भुक्तं आहारजातं पूर्वस्य आहारस्य अपरिणितं रसम् उत्तरेण आहार रसेन उपसृजत् आशु एव सर्वान् दोषान प्रकोपयति।। 

(ङ) कीदृशं भोजनं श्लेष्माणं परिह्रासयति? 
उत्तरम् : 
उष्णं भोजनं श्लेष्माणं परिह्रासयति। 

(च) कीदृशं भोजनं बलाभिवृद्धिं जनयति? 
उत्तरम् : 
स्निग्धं भोजनं बलाभिवृद्धिं जनयति।

(छ) इष्ट सर्वोपकरणं भोजनं कुत्र अश्नीयात्? 
उत्तरम् : 
इष्ट सर्वोपकरणं भोजनं इष्टे स्थाने अश्नीयात्। 

(ज) कथं भुञानस्य उत्स्नेहस्य समाप्तिः न नियता? 
उत्तरम् : 
अतिद्रुतं भुञ्जानस्य उत्स्नेहस्य समाप्तिः न नियता। 

(झ) अतिविलम्बितं हि भुञ्जानः कां न अधिगच्छति? 
उत्तरम् : 
अतिविलम्बितं हि भुञ्जानः तृप्तिम् नाधिगच्छति। 

(ञ) जल्पतः, हसतः अन्यमनसः वा भुञानस्य के दोषाः भवन्ति? 
उत्तरम् : 
ये दोषाः अतिद्रुतं अश्नतः भवन्ति, ते एव दोषाः जल्पतः, हसतः, अन्यमनसः वा भुञ्जानस्य भवन्ति। 

प्रश्न: 2. 
उचित क्रियापदैः रिक्तस्थानानि पूरयत - 
(क) बहुभुक्तं आहार जातम्.....
उत्तरम् : 
बहुभुक्तं आहार जातम् शीतीभवति विषमं च पच्यते। 

(ख) अजल्पन् अहसन् ...........। 
उत्तरम् : 
अजल्पन् अहसन् 

(ग) उष्णं हि भुज्यमानं ............। 
उत्तरम् : 
उष्णं हि भुज्यमानं स्वदते। 

(घ) उष्णं भोजनं उदरस्य अग्नि...
उत्तरम् : 
उष्णं भोजनं उदरस्य अग्निं उदीरयति। 

(ङ) स्निग्धं भुज्यमानं भोजनम् शरीरम्... 
उत्तरम :
स्निग्धं भुज्यमानं भोजनम शरीरम उपचिनोति।

(च) मात्रावद् हि भुक्तं सुखं ................. 
उत्तरम् : 
मात्रावद् हि भुक्तं सुखं विपच्यते। 

(छ) अतिद्रुतं हि न ........... 
उत्तरम् : 
अतिद्रुतं हि न अश्नीयात्। 

(ज) उष्णं भोजनं वात........ 
उत्तरम् : 
उष्णं भोजनं वातं अनुलोमयति। 

प्रश्न: 3. 
अधोलिखितपदानां वाक्येषु प्रयोगं कुरुत - 
शीघ्रम्, उष्णम्, स्निग्धम्, तैलादियुक्तम्, विवर्धयति, अतिद्रुतम्, अतिविलम्बितम्, पच्यते। 
उत्तरम् : 

  • शीघ्रम् - रामः शीघ्रम् भोजनं करोति। 
  • उष्णम् - सदैव उष्णं भोजनं करणीयम्। 
  • स्निग्धम् - रमा स्निग्धं भोजनं न करोति। 
  • तैलादियुक्तम् - तैलादियुक्तं भोजनं बलाभिवृद्धिं करोति। 
  • विवर्धयति - सन्तुलित आहारः आयुः विवर्धयति। 
  • अतिद्रुतम् - अतिद्रुतम् न अश्नीयात्। 
  • अतिविलम्बितम् - अतिविलम्बितम् न अश्नीयात्। 
  • पच्यते - सन्तुलित भोजनं सम्यक्तया पच्यते। 

प्रश्न: 4. 
अधोलिखित प्रकृति प्रत्ययविभागं योजयत - 
यथा - जृ + क्त नपुं. प्र. एकवचनम् = जीर्णम्। 
उत्तरम् : 
अश् शतृ नपुं. प्रथमा एकवचनम् = अश्नन्। 
अभि वृध् णिच् लट् प्र. पु. एकवचनम् = अभिवर्धयति। 
उप + सृज् + कर्मवाच्य, लट् प्र. पु. एकवचनम् = उपसृज्यते। 
इष् + क्त, पु. सप्तमी एकवचनम् = इष्टे। 
भुज् + शानच् + पु. षष्ठी एकवचनम् = भुञानस्य। 
न हसन् इति = अहसन्। 
प्र + कुप् + णिच् लट् प्र. पु. एकवचनम् = प्रकोपयति। 
जन् + क्त स्त्रीलिङ्गम् = जाता।
उप + चि + लट् प्र. पु. एकवचनम् = उपचिनोति। 
अभि + नि + वृत + णिच, लट् लकार प्र. प. एकवचनम् = अभिनिवर्तयति। 

प्रश्न: 5. 
अधोलिखितानां पदानां सन्धिविच्छेदं कुरुत -
जीर्णेऽश्नीयात्, चोष्माणं, पूर्वस्याहारस्य, प्रकोपयत्याशु, दोषेष्वग्नौ, अभ्यवहृतम्, तस्माज्जीणे, चाश्नीयात्। 
उत्तरम् : 
पद - सन्धि विच्छेद 

  1. जीर्णेऽश्नीयात् - जीर्णे + अश्नीयात्। 
  2. चोष्माणं - च + ऊष्माणम्। 
  3. पूर्वस्याहारस्य - पूर्वस्य + आहारस्य। 
  4. प्रकोपयत्याशु - प्रकोपयति + आशु। 
  5. दोषेष्वग्नौ - दोषेषु + अग्नौ। 
  6. अभ्यवहृतम् - अभि + अवहृतम्। 
  7. तस्माज्जीर्णे - तस्मात् + जीर्णे। 
  8. चाश्नीयात् - च + अश्नीयात्। 

प्रश्नः 6. 
अधोलिखितेषु पदेषु विभक्तिं वचनं च दर्शयत मुखेषु, सर्वान्, हृदये, वृद्धिम्, जराम्, भुञानस्य। 
उत्तरम् : 

  1. मुखेषु - सप्तमी विभक्ति, बहुवचनम्। 
  2. सर्वान् - द्वितीया, बहुवचनम्। 
  3. हृदये - सप्तमी, एकवचनम्।
  4. वृद्धिम् - द्वितीया, एकवचनम्। 
  5. जराम् - द्वितीया, एकवचनम्। 
  6. भुञ्जानस्य - षष्ठी, एकवचनम्। 

प्रश्नः 7. 
पाठात् चित्वा विलोम शब्दान् लिखत। 
यथा - विरुद्धम् - अविरुद्धम् 
अतिविलम्बितम् - ...........................
जल्पन् - ........................... 
हसन् - ........................... 
जीर्णे - ........................... 
इष्टम् - ........................... 
तन्मनाः - ........................... 
अतिद्रुतम् - ........................... 
उत्तरम् : - ........................... 
शब्द - विलोम शब्द 

  • अतिविलम्बितम् = अतिद्रुतम् 
  • जल्पन् = अजल्पन् 
  • हसन् = अहसन्, रुदन् 
  • जीणे = अजीर्णे 
  • इष्टम् = अनिष्टम् 
  • तन्मनाः = अन्यमनाः 
  • अतिद्रुतम् = अतिविलम्बितम्। 

प्रश्नः 8. 
इष्टे देशे......... चाश्नीयात् इत्यस्य गद्यांशस्य आशयं हिन्दी भाषया स्पष्टं कुरुत - 
उत्तर :
अभीष्ट अथवा मनपसन्द स्थान पर तथा मनोवांछित खाद्य-पदार्थों से युक्त भोजन करना चाहिए क्योंकि मनपसन्द स्थान पर मनोवांछित भोजन करने से वे कष्ट तथा विकार उत्पन्न नहीं होते जो अवांछित स्थान पर भोजन करने से उत्पन्न होते हैं।

संस्कृतभाषया उत्तरम् दीयताम् - 

प्रश्न: 1. 
'आहार विचारः' इत्यस्मिन् पाठे किं अभिव्यक्तम्? 
उत्तरम् : 
'आहार विचारः' इत्यस्मिन् पाठे स्वास्थ्यस्य मूलाधारः समुचिताहारः अस्ति इति अभिव्यक्तम्। 

प्रश्न: 2. 
कीदृशं भोजनं भुज्यमानं स्वदते? 
उत्तरम् : 
उष्णं भोजनं भुज्यमानं स्वदते। 

प्रश्न: 3. 
श्लेष्माणं कः परिह्रासयति?
उत्तरम् :
उष्णं भोजनं श्लेष्माणं परिह्रासयति।

प्रश्न: 4. 
कीदृशं भोजनं वर्णप्रसादं अभिनिवर्तयति? 
उत्तरम् : 
स्निग्ध भोजनं वर्णप्रसादं अभिनिवर्तयति। 

प्रश्न: 5. 
कीदृशं भोजनं आयुः विवर्धयति? 
उत्तरम् : 
मात्रावद्धि भुक्तं आयुरेव विवर्धयति। 

प्रश्न: 6. 
'आहार विचारः' पाठस्य किं वर्ण्यविषयः अस्ति? 
उत्तरम् : 
'आहार विचारः' पाठस्य वर्ण्यविषयः भोजनस्य प्रकाराः, तस्य मात्रा उचितसमयादिना विधानमस्ति। 

प्रश्न: 7. 
कः तृप्तिं नाधिगच्छति? 
उत्तरम् : 
अतिविलम्बितं हि भुञ्जानो तृप्तिं नाधिगच्छति। 

प्रश्नः 8. 
कथं भुञ्जीत?। 
उत्तरम् : 
अजल्पन्नहसन् तन्मना भुञ्जीत।

प्रश्नः 9. 
कस्मिन् देशे अश्नीयात्? 
उत्तरम् : 
इष्टे देशे अश्नीयात्। 

प्रश्नः 10. 
कीदृशं भोजनं शरीरमुपचिनोति? 
उत्तरम् : 
स्निग्धं भोजनं शरीरमुपचिनोति। 

प्रश्न: 11. 
वीर्याविरुद्धम् कथं अश्नीयात्? 
उत्तरम् : 
यतो हि अविरुद्धवीर्यमश्नन् विरुद्धवीर्याहारजैर्विकारैनौपसृज्यते। 

प्रश्न: 12.
किं अतिद्रुतमश्नीयात्?
उत्तरम् : 
न हि अतिद्रुतम् न अश्नीयात्।






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जयतु संस्कृतम्।