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मंगलवार, 13 सितंबर 2022

सौवर्णशकटिका

 

सौवर्णशकटिका

       महाकवि शूद्रक-प्रणीत प्रकरण तत्कालीन समाज का दर्पण माना जाता है। अपने दानशील स्वभाव के कारण धनहीन ब्राह्मण सार्थवाह आर्य चारुदत्त तथा उज्जयिनी नगर की गणिका वसन्तसेना की प्रणयकथा पर आधारित यह नाट्यकृति उस युग की अराजकता, समाज में व्याप्त कुरीति, द्यूतव्यसन, चौर्यवृत्ति, न्यायालय में व्याप्त पक्षपात तथा राजा के सगे-संबन्धियों के स्वैराचार का प्रामाणिक वृत्त प्रस्तुत करती है।
       प्रस्तुत नाट्यांश मृच्छकटिक के छठे अंक से लिया गया है। इसमें शिशु मन को उद्वेलित करने वाली बालसुलभ इच्छा को मार्मिक ढंग से व्यक्त किया गया है। धनी मानी पड़ोसी बच्चे की सोने की गाड़ी देख, धनहीन चारुदत्त का बेटा रोहसेन अशांत हो उठता है। दासी रदनिका उसे फुसलाने का प्रयत्न करती है - मिट्टी की गाड़ी देकर। परन्तु भोला शिशु अपनी जिद पर अड़ा रहता है। रदनिका उसे वसन्तसेना के पास ले जाती है। बच्चे का परिचय तथा उसके रोने का कारण जानकर वात्सल्यमयी वसन्तसेना अपने सारे आभूषण बच्चे को सौंप देती है और कहती है - इनसे तुम भी सोने की गाड़ी बनवा लेना।
        इस प्रकार, प्रस्तुत नाट्यांश शिशुओं के निर्मल अन्त:करण तथा स्नेहशीला नारी की वत्सलता को प्रकाशित करता है।
(ततः प्रविशति दारकं गृहीत्वा रदनिका)
(उसके बाद बच्चे को लेकर रदनिका प्रवेश करती है।) 
रदनिका:--एहि वत्स! शकटिकया क्रीडावः ।
रदनिका-आओ पुत्र! हम दोनों गाड़ी से खेलते हैं। 
दारकः--(सकरुणम्) रदनिके! किम्मम एतया मृत्तिकाशकटिकया? तामेव सौवर्णशकटिकां देहि ।
बच्चा - (करुणा के साथ) अरे रदनिका! मुझे इस मिट्टी की गाड़ी से क्या? (क्या प्रयोजन है?) (मुझे तो) वही सोने की गाडी दो।
रदनिका:--(सनिर्वेदं निःश्वस्य)
जात! कुतोऽस्माकं सुवर्णव्यवहारः? तातस्य पुनरपि ऋद्ध्या सुवर्णशकटिकया क्रीडिष्यसि। (स्वगतम्) तद्यावद् विनोदयाम्येनम्। आर्याया वसन्तसेनायाः समीपमुपसर्पिष्यामि। (उपसृत्य) आर्ये! प्रणमामि ।
 
रदनिका - (दुःख के साथ ठण्डी आह भरकर) पुत्र! हमारा सोने का लेन-देन कहाँ? पिता की फिर से समृद्धि के द्वारा (समृद्धि होने पर) सोने की गाड़ी से तुम खेलोगे। (मन में) तो जब तक मिट्टी की गाड़ी से इसे बहलाती हूँ। आर्या वसन्तसेना के समीप जाती हूँ। (समीप जाकर) आर्ये! प्रणाम करती हूँ। 
वसन्तसेना:--रदनिके! स्वागतं ते। कस्य पुनरयं दारकः ? अनलङ्कृत- शरीरोऽपि चन्द्रमुख आनन्दयति मम हृदयम्।
वसन्तसेना-रदनिका! तुम्हारा स्वागत है। फिर यह किसका पुत्र है? बिना अलंकार के शरीर वाला भी चन्द्रमा के समान मुख वाला (यह बालक) मेरे दिल को आनन्दित कर रहा है।
रदनिका:--एष खलु आर्यचारुदत्तस्य पुत्रो रोहसेनो नाम ।
रदनिका - निश्चय ही यह आये चारुदत्त का रोहसेन नाम का पुत्र है। 
वसन्तसेना:--(बाहू प्रसार्य)
एहि मे पुत्रक! आलिङ्ग।
(इत्यङ्के उपवेश्य)
अनुकृतमनेन पितुः रूपम्।

वसन्तसेना-(दोनों भुजायें फैलाकर) आओ मेरे पुत्र ! मुझे गले मिलो।
 (इस प्रकार गोद में बिठाकर)
 इसने तो अपने पिता के रूप का अनुकरण किया है अर्थात् इसका रूप हूबहू अपने पिता के तुल्य है।
रदनिका:--न केवलं रूपं, शीलमपि तर्कयामि । एतेन आर्यचारुदत्त आत्मानं विनोदयति ।
रदनिका-न केवल रूप का, शील (चरित्र, स्वभाव) का भी इसने अनुकरण किया है - ऐसा मैं सोचती हूँ। इससे आर्य चारुदत्त अपने आपको बहलाते हैं। 
वसन्तसेना:--अथ किन्निमित्तमेष रोदिति ?
दारक:--रदनिके! का एषा ?
बच्चा - अरी रदनिका ! यह कौन है? 
रदनिका:--जात! आर्या ते जननी भवति ।
रदनिका-पुत्र! आर्या तुम्हारी माता है। 
दारक:-- रदनिके! अलीकं त्वं भणसि । यद्यस्माकमार्या जननी तत् केन अलङ्कृता ?
बच्चा - अरी रदनिका, तू झूठ बोल रही है। यदि आर्या हमारी माँ है, तो यह अलंकृत क्यों है, इसे किसने आभूषण पहनाये हैं?
वसन्तसेना:--जात! मुग्धेन मुखेन अतिकरुणं मन्त्रयसि।
वसन्तसेना-पुत्र! (तू) भोले मुख से अत्यन्त करुणापूर्ण कथन कर रहा है।
(नाट्येन आभरणान्यवतार्य रोदिति)
(अभिनयपूर्वक आभूषणों को उतारकर, रोती है) 
 एषा इदानीं ते जननी संवृत्ता। तद् गृहाणैतमलङ्कारकम्,सौवर्णशकटिकां घटय।
(लो) यह (अब) मैं तुम्हारी माँ बन गई। तो इन गहनों को ले लो तथा इनसे सोने की गाड़ी बनवा लो। 
दारक:--अपेहि, न ग्रहीष्यामि। रोदिषि त्वम् । 
बच्चा - दूर हटो। नहीं लूँगा। तुम रो रही हो। 
वसन्तसेना:--(अश्रूणि प्रमृज्य)
वसन्तसेना - (आँसुओं को पौंछकर)
जात! न रोदिष्यामि। गच्छ, क्रीड।
 पुत्र! (अब) नहीं रोऊँगी। जाओ, खेलो।
(अलङ्कारैर्मृच्छकटिकां पूरयित्वा)
 (आभूषणों से मिट्टी की गाड़ी को भरकर) 
जात! कारय सौवर्णशकटिकाम्।

पुत्र ! सोने की गाड़ी बनवा लो।
(इति दारकमादाय निष्क्रान्ता रदनिका)
वसन्तसेना-अच्छा तो यह किस कारण से रो रहा है?                                                                              रदनिका:--एतेन प्रातिवेशिकगृहपतिदारकस्य सुवर्णशकटिकया क्रीडितम्। तेन च सा नीता । ततः पुनस्तां मार्गयतो मयेयं मृत्तिकाशकटिका कृत्वा दत्ता । ततो भणति रदनिके! किम्मम एतया मृत्तिकाशकटिकया? तामेव सौवर्णशकटिकां देहि इति ।                                                                                                       रदनिका-इसने पड़ोस में रहने वाले घर के स्वामी के पुत्र की सोने की गाड़ी से क्रीड़ा बेला है। इसके बाद वह (बालक) उस गाडी को ले गया। इसके बाद पनः उस गाडी को खोजते हये इसाको मैंने मिट्टी की गाड़ी बनाकर दे दी। (उसे देखकर) यह कहता है-रदनिके! मुझे इस मिट्टी की गाड़ी से क्या प्रयोजन! मुझे तो वही सोने की गाड़ी दो।   वसन्तसेना:--हा धिक् हा धिक् ! अयमपि नाम परसम्पत्त्या सन्तप्यते?भगवन् कृतान्त । पुष्करपत्रपतित- जलबिन्दुसदृशैः क्रीडसि त्वं पुरुषभागधेयैः। (इति सास्रा)। जात! मा रुदिहि!सौवर्णशकटिकया क्रीडिष्यसि।वसन्तसेना - हाय!, धिक्कार है, धिक्कार है। यह भी पराई सम्पत्ति से सन्तप्त (दुःखी) हो रहा है। हे भगवन् यमराज ! तू कमल पत्र पर गिरी जल की बिन्दुओं के समान मनुष्य के भाग्य के साथ खेल रहा है। (इस प्रकार आँखों में अश्रु भरकर) पुत्र! मत रो (तू) सोने की गाड़ी से खेलेगा। 
(इस प्रकार बच्चे को देकर रदनिका बाहर निकल गई)

प्रश्न: 1. 
संस्कृतेन उत्तरं दीयताम् - 
(क) 'मृच्छकटिकम्' इति नाटकस्य रचयिता कः? 
उत्तरम : 
'मच्छकटिकम' इति नाटकस्य रचयिता शद्रकः अस्ति। 

(ख) दारकः (रोहसेनः) रदनिकां किमयाचत? 

उत्तरम् : 
दारकः (रोहसेनः) रदनिकां सौवर्णशकटिकां अयाचत। 

(ग) वसन्तसेना दारकस्य विषये किं पृच्छति? 
उत्तरम् : 
वसन्तसेना दारकस्य विषये अपृच्छत् यत् एषः किं निमित्तम् रोदिषि। 

(घ) रदनिका किमुक्त्वा दारकं तोषितवती? 
उत्तरम् : 
तातस्य ऋद्ध्या सुवर्णशकटिकया क्रीडिष्यति इत्युक्त्वा रदनिका दारकं तोषितवती। 

(ङ) रोहसेनः कस्य पुत्रः आसीत्? 
उत्तरम् : 
रोहसेनः चारुदत्तस्य पुत्रः आसीत्। 

(च) आर्य चारुदत्तः केन आत्मानं विनोदयति? 
उत्तरम् : 
आर्य चारुदत्तं स्वपुत्रेण रोहसेनेन आत्मानं विनोदयति।। 

(छ) रोहसेनः कीदृशीं शकटिकां याचते? 
उत्तरम् : 
रोहसेनः सौवर्णशकटिकां याचते। 

(ज) वसन्तसेना कैः मृच्छकटिकां पूरयति? 
उत्तरम् : 
वसन्तसेना अलंकारैः मृच्छकटिकां पूरयति। 

(झ) रोहसेनेन स्वपितुः किं अनुकृतम्? 
उत्तरम् : 
रोहसेनेन स्वपितुः रूपं अनुकृतम्।

(ञ) वसन्तसेना किमुक्त्वा दारकं सान्त्वयामास? 
उत्तरम् : 
जात! मा रुदिहि। सौवर्णशकटिकया क्रीडिष्यमि इत्युक्त्वा दारकं सान्त्वयामास। 

प्रश्नः 2. 
हिन्दी भाषया व्याख्यां लिखत - 
(क) अनलड्कृतशरीरोऽपि आनन्दयति मम हृदयम्। 
व्याख्या - यद्यपि इस बालक रोहसेन के शरीर पर कोई आभूषण नहीं है परन्तु फिर भी चन्द्रमा के समान सुन्दर मुख वाला यह बालक मेरे हृदय को आनन्दित कर रहा है। अर्थात् बालक को देखकर वसन्तसेना के हृदय को अत्यधिक . आनन्दानुभूति हो रही है। 

(ख) न केवलं रूपं शीलमपि तर्कयामि। 
व्याख्या - यह कथन रदनिका का है। वसन्तसेना के यह कहने पर कि यह बालक अपने पिता के रूप का (सौन्दर्य का) अनुकरण करता है, रदनिका तुरन्त कहती है न केवल रूप का अपितु शील अर्थात् सदाचरण व सद्व्यवहार में भी अपने पिता का अनुकरण करता है।

(ग) पुष्करपत्र पतित जलबिन्दु सदृशैः क्रीडसि त्वं पुरुष भागधेयैः। 
व्याख्या - प्रस्तुत कथन वसन्तसेना का है। बालक रोहसेन पड़ौसी बालक की सोने की गाड़ी से खेलना चाहता है। वसन्तसेना इसे बालक की पराये धन के प्रति ईर्ष्या समझती है। वह कहती है, हे भगवान् यमराज! तुम कमल के पत्ते पर पड़ी पानी की बूंद के समान मनुष्य के भाग्य से खिलवाड़ करते हो। जैसे कमल के चिकने पत्ते पर पड़ी पानी की बूंद मोती के समान चमकती है परन्तु अगले ही क्षण वह लुढ़ककर समाप्त हो जाती है। इसी प्रकार मानव का भाग्य भी क्षणिक है।

(घ) जात! मुग्धेन मुखेन अतिकरुणं मंत्रयसि। 
व्याख्या - यह कथन वसन्तसेना का है। रदनिका जब वसन्तसेना को उसकी माँ कहती है तो बालक रोहसेन उसे स्वीकार नहीं करता तथा रदनिका से कहता है कि वह झूठ बोल रही है क्योंकि हमारी माँ होती तो उसके पास गहने कहाँ से आते क्योंकि हम तो गरीब हैं। बालक के इस कथन से प्रभावित होकर वसन्तसेना ने कहा-हे पुत्र ! (तुम) भोले मुख से अत्यन्त करुण बात कह रहे हो। 

प्रश्नः 3. 
अधोलिखितानां पदानां स्वसंस्कृत वाक्येषु प्रयोगं कुरुत - 
मृत्तिशकटिकया, सुवर्ण व्यवहारः, अश्रूणि, विनोदयति, प्रातिवेशिकः ऋद्ध्या, रोदिति। 
उत्तरम् : 

  1. रोहसेनः मृत्तिशकटिकया क्रीडितुं न इच्छति।
  2. कुतोऽस्माकं सुवर्ण व्यवहारः? 
  3. सा अश्रूणि प्रमृज्य कथयति। 
  4. सः कन्दुकेन आत्मानं विनोदयति।
  5. श्री बिहारीलालः मम प्रातिवेशिकः अस्ति। 
  6. पुनरपि ऋद्ध्या सः सुवर्णशकटिकया क्रीडिष्यति। 
  7. बालोऽयं कथं रोदिति?

प्रश्न: 4. 
अधोलिखितानां क्रियापदानि वीक्ष्य समुचितं कर्तृपदं लिखत -
(क) ........... क्रीडावः। 
(ख) .................."विनोदयामि। 
(ग) ...................... सुवर्णशकटिकया क्रीडिष्यसि। 
(घ) ........... अलीकं भणसि। 
(ङ) किं निमित्त......... रोदिति। 
उत्तरम् : 
(क) एहि वत्स! आवां क्रीडावः। 
(ख) अहं स्वमित्रं संगीतेन विनोदयामि। 
(ग) त्वं सुवर्णशकटिकया क्रीडिष्यसि। 
(घ) त्वं अलीकं भणसि। 
(ङ) किं निमित्तं बालोऽयं रोदिति।

प्रश्न: 5. 
अधोलिखितानां पदानां सन्धिविच्छेदं कुरुत -
(क) कुतोऽस्माकम् = ............ 
(ख) पुनरपि = ............ 
(ग) किन्निमित्तम् = .......... 
(घ) पुनस्ताम् = .............. 
(ङ) यद्यस्माकम = ..............
(च) आभरणान्यवतार्य = ........... 
उत्तरम् : 
(क) कुतः + अस्माकम्। 
(ख) पुनः + अपि। 
(ग) किम् + निमित्तम्। 
(घ) पुनः + ताम्। 
(ङ) यदि + अस्माकम्।
(च) आभरणानि + अवतार्य। 

प्रश्नः 6. 
निर्दिष्ट प्रकृति प्रत्यय निर्मितं पदं लिखत - 
(क) निः + श्वस् + ल्यप् = ............ 
(ख) अनु + कृ + क्त = .............. 
(ग) अलम् + कृ + क्त + टाप् = ........
(घ) अव + तृ + णिच् + ल्यप् = ..........
(ङ) पूर् + क्त्वा = .......... 
(च) आ + दा + ल्यप् = ............ 
(छ) ग्रह् + क्त्वा = ............
(ज) उप + सृ + ल्यप् = ............
(झ) क्रीड् + क्त = ............ 
(ञ) प्र + मृज् + ल्यप् = ............. 
उत्तरम् :
(क) निःश्वस्य। 
(ख) अनुकृतम्। 
(ग) अलङ्कृता। 
(घ) अवतार्य। 
(ङ) पूरयित्वा। 
(च) आदाय। 
(छ) गृहीत्वा। 
(ज) उपसृत्य। 
(झ) क्रीडितः। 
(ञ) प्रमृज्य।

प्रश्नः 7. 
अधोलिखितानां पदानां विलोमपदानि लिखत। 
उत्तरम् :
पदानि - विलोम पदानि 
(क) सौवर्णशकटिका - मृत्तिकाशकटिका। 
(ख) अलीकम् - सत्यम्। 
(ग) अलङ्कृता - अनलकृता।
(घ) निष्क्रान्ता - प्रविष्टा। 
(ङ) अपेहि - उपेहि। 
(च) परसम्पत्त्या - स्वसम्पत्त्या। 

प्रश्न: 8. 
अधोलिखितानां पदानां पर्यायवाचिपदानि लिखत - 
दारकः, पितुः, तर्कयामि, जननी, नीता, भणति, अलीकम्। 
उत्तरम् : 
दारकः - पुत्रः, शिशुः, बालः, वत्सः, बालकः। 
पितुः - जनकस्य, तातस्य, जन्मदस्य, जनयितुः। 
तर्कयामि - विचारयामि, चिन्तयामि, विकल्पयामि। 
जननी- माता, अम्बा, जनयित्री, जनित्री, जन्मदात्री। 
नीता - गृहीता, गता, आदाय। 
भणति - कथयति, वदति, गदति, उदीरयति। 
अलीकम् - असत्यम्, अनृतम्, मृषा, मिथ्यावचनम्। 

प्रश्नः 9. 
अधोलिखिताः पङ्क्तयः केन के प्रति उक्ता? 
(क) एहि वत्स! शकटिकया क्रीडावः। 
उत्तरम् : 
रदनिकया दारकम् प्रति। 

(ख) आर्यायाः वसन्तसेनायाः समीपम् उपसर्पिष्यामि। 
उत्तरम् : 
रदनिकया स्वगतम्। 
जननी 

(ग) एहि मे पुत्रक! आलिङ्ग। 
उत्तरम् : 
वसन्तसेनया-दारकं प्रति। 

(घ) किं निमित्तं एष रोदिति। 
उत्तरम् : 
वसन्तसेनया-रदनिकां प्रति।

(ङ) रदनिके ! का एषा? 
उत्तरम् : 
दारकेन रदनिकां प्रति। 

(च) जात ! कारय सौवर्ण शकटिकाम्। 
उत्तरम् : 
वसन्तसेनया दारकम् प्रति। 

प्रश्न: 10.
पाठमाश्रित्य सोदाहरणं वसन्तसेनायाः रोहसेनस्य च चारित्रिक-वैशिष्टयम् हिन्दीभाषायां लिखत -
उत्तरम् :
वसन्तसेना - वसन्तसेना एक गणिका है। वह आर्य चारुदत्त के प्रति आसक्त है। चारुदत्त के पत्र रोहसेन के प्रति भी उसकी आसक्ति है। वह गरीबी को एक अभिशाप मानती है। रोहसेन की भोली आकृति व उसकी बातों पर वह मुग्ध हो जाती है तथा उसके लिए सोने की गाड़ी बनाने हेतु अपने स्वर्णाभूषणों को उतारकर मिट्टी की गाड़ी को भर देती है। वह रोहसेन को प्रसन्न करने के लिए बाहरी तौर पर तो रोना बन्द कर देती है परन्तु उसका हृदय अन्दर से रोता रहता है। वह दरिद्रता को पुरुषों का भाग्य समझती है। 

इस पाठ में वसन्तसेना की उदारता एवं वात्सल्य भाव व्यक्त हुआ है। 
रोहसेन - रोहसेन आर्य चारुदत्त का पुत्र है। उसमें बालसुलभ लालसा एवं लोभ की भावना है। बालहठ उसमें विद्यमान है। वह रूप-सौन्दर्य तथा शील दोनों में अपने पिता के समान है। मातृ-सुलभ ममत्व को वह भली प्रकार समझता है। वह धनाढ्य पड़ोसी बालक की सोने की गाड़ी देखकर अशान्त हो जाता है। रदनिका मिट्टी की गाड़ी बनाकर उसे देती है परन्तु वह उसे न लेकर उसी सोने की गाड़ी में खेलने का आग्रह करता है। पाठ में अनेक स्थलों पर बाल सुलभ भोलापन देखने को मिलता है। रदनिका जब वसन्तसेना को उसकी माता बतलाती है तो वह कहता है..."अरी रदनिका! तू झूठ बोल रही है। यदि आर्या हमारी माँ है तो यह आभूषण क्यों पहने हुए है।"

संस्कृतभाषया उत्तरम् दीयताम् -

प्रश्न: 1. 
तत्कालीन समाजस्य दर्पणं किं मन्यते? 
उत्तरम् : 
तत्कालीन समाजस्य दर्पणं महाकवि शूद्रक प्रणीत मृच्छकटिकं प्रकरणं मन्यते। 

प्रश्न: 2.
'सौवर्णशकटिका' पाठः कुत्रतः संकलितः? 
उत्तरम् :
'सौवर्णशकटिका' पाठः मृच्छकटिकस्य षष्ठाङ्कात् संकलितः।

प्रश्नः 3. 
'सौवर्णशकटिका' इति नाट्यांशे किं अभिव्यक्तम्? 
उत्तरम् :
अस्मिन् नाट्यांशे शिशोः मनः उद्वेलितक: बालसुलभ इच्छां मार्मिकतया अभिव्यक्तम्। 

प्रश्न: 4. 
प्रस्तुत नाट्यांशः किं प्रकाशितं करोति? 
उत्तरम् : 
प्रस्तुत नाट्यांशः शिशूनां निर्मल अन्तःकरणं स्नेहशीला नार्या: वात्सल्यं च प्रकाशितं करोति। 

प्रश्न: 5. 
किं दृष्ट्वा चारुदत्तपुत्रः रोहसेनः अशान्तो भवति? 
उत्तरम् : 
प्रातिवेशिक गृहपतिदारकस्य सुवर्णशकटिकां दृष्ट्वा रोहसेनः अशान्तो भवति। 

प्रश्नः 6. 
रोहसेनं दृष्ट्वा वसन्तसेना तस्मिन् विषये किं अकथयत्? 
उत्तरम् : 
रोहसेनं दृष्ट्वा वसन्तसेना उक्तवती यत् कस्य अयं दारकः? अनलङ्कृतशरीरोऽपि चन्द्रमुख आनन्दयति मम हृदयम्। 

प्रश्नः 7. 
यदा रदनिका वसन्तसेनां रोहसेनस्य जननी कथयति तदा रोहसेनः किं कथयति? 
उत्तरम् : 
सः कथयति यत् सा अलीकं भणति। यदि सा अस्माकं जननी तर्हि केन कथं अलङ्कता? 

प्रश्न: 8.
वसन्तसेनानुसारेण परसम्पत्या कः सन्तप्यते? 
उत्तरम् : 
वसन्तसेनानुसारेण परसम्पत्या रोहसेनः सन्तप्यते। 

प्रश्नः 9. 
'जात! कारय सौवर्णशकटिकाम्' इदं कथनं कस्यास्ति? 
उत्तरम् : 
इदं कथनं वसन्तसेनायाः अस्ति। 

प्रश्नः 10. 
वसन्तसेना का आसीत्?
उत्तरम् : 
वसन्तसेना उज्जयिन्याः एका गणिका आसीत्। 

प्रश्न: 11. 
दारकः रोहसेनः कस्याः आग्रहं करोति? 
उत्तरम : 
दारकः रोहसेनः सौवर्णशकटिकायाः आग्रहं करोति। 

प्रश्न: 12. 
वसन्तसेना बाहू प्रसार्य किं कथयति? 
उत्तरम् : 
वसन्तसेना बाहू प्रसार्य 'एहि मे पुत्रक! आलिङ्ग।' इति कथयति। 


विशेष - यहाँ बालक की स्वाभाविक चंचलता, सरलता एवं वसन्तसेना की करुणा व वात्सल्यता का सुन्दर चित्रण हुआ है। सप्रसङ्ग 

संस्कृत-व्याख्या 
प्रसङ्गः-प्रस्तुत नाट्यांशः अस्माकं पाठ्यपुस्तक 'शाश्वती' प्रथम भागस्य 'सौवर्णशकटिका' शीर्षक पाठात् अवतरितः। अस्मिन् नाट्यांशे वसन्तसेना रोहसेनयोः मध्ये वार्तालापः प्रस्तुतः। रोहसेनः रदनिकां वसन्तसेना विषये पृच्छति 

संस्कृत-व्याख्या - दारकः-रदनिके ! = हे रदनिके! का एषा? इयं का? रदनिका-जात! = हे पुत्र! आर्या ते = तब, जननी = माता, भवति = अस्ति। 

दारकः - रदनिके ! अलीकं = असत्यं, त्वं भणसि = त्वं कथयसि। यदि अस्माकं = मम, आर्या जननी = माता (वर्तते) तत् = तर्हि केन = केन कारणेन, अलकृता? = विभूषिता? 

वसन्तसेना - जात! = हे पुत्र! मुग्धेन मुखेन = कोमलेन (निर्दोषेण) आननेन, अतिकरुणं = अतिदयायुक्तं, मन्त्रयसि = कथयसि। 
(नाट्येन = अभिनयेन, आभरणानि = आभूषणानि अवतार्य, रोदिति = विलपति) एषा = इयं, इदानीं = साम्प्रतम्, ते = तव, जननी = माता, संवृत्ता = जाता। तद् = तर्हि, एतम् अलङ्कारकम् = आभूषणम्, गृहाण = स्वीकुरुस्व, घटय = निर्मायय, सौवर्णशकटिकाम् = सुवर्णनिर्मितवाहनविशेषम्। 

दारकः - अपेहि = दरीभव। न ग्रहीष्यामि = न स्वीकरिष्यामि। त्वम = भवती. रोदिषि = विलपसि. रुदनं करोषि। 

वसन्तसेना - (अश्रूणि, प्रमृज्य = सारयित्वा) जात! = पुत्र! न रोदिष्यामि = न रुदनं करिष्यामि। गच्छ, क्रीड = क्रीडां कुरु। (अलंकारैः = आभूषणै मृच्छकटिकां = मृत्तिका निर्मित वाहन विशेषम्, पूरयित्वा = सम्पूर्यं) जात! = हे पुत्र ! कारय = घटय, सौवर्णशकटिकाम् = स्वर्णनिर्मितवाहनविशेषम्। 

(इति = एवं, दारकमादाय = बालकं गृहीत्वा, निष्क्रान्ता = बहिर्गता, रदनिका = एतन्नाम्नी = दासी) 

व्याकरणात्मक - टिप्पणी-यद्यस्माकम्-यदि + अस्माकम् (यण् सन्धि)। अवतार्य-अव + तृ + ल्यप्। संवृत्ता सम् + वृत् + क्त + टाप्। प्रमृज्य-प्र + मृज् + ल्य - पूर + णिच् + क्त्वा। आदाय-आ + दा + ल्यप्। निष्क्रान्ता-निस् + क्रम् + क्त + टाप्।

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जयतु संस्कृतम्।