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शनिवार, 27 जून 2020

बालकौतुकम्

                              बालकौतुकम्  

       जेसीईआरटी तथा एनसीईआरटी के कक्षा-12 के संस्कृत पाठ्यपुस्तक-शाश्वती भाग 2 के  तृतीय: पाठ: सूक्तिसुधा  का शब्दार्थ सहित हिन्दी अनुवाद एवं भावार्थ तथा उस पर आधारित प्रश्नोत्तर यहाँ दिए गए हैं।यहाँ दिए गए हिंदी अनुवाद तथा भावार्थ की मदद से विद्यार्थी पूरे पाठ को आसानी से समझकर अभ्यास के प्रश्नों को स्वयं कर सकते हैं।                                                                                                                                                                       प्रस्तुत पाठ करुण रस के अनुपम चितेरे महाकवि भवभूति विरचित "उत्तररामचरितम्" नामक प्रसिद्ध नाटक के चतुर्थ अंक से संकलित किया गया है। राजा राम द्वारा निर्वासिता भगवती सीता | के जुड़वाँ पुत्रों लव एवं कुश का महर्षि वाल्मीकि के द्वारा र एवं शास्त्रों की शिक्षा दी गयी तथा स्वरचित रामायण के सस्वर गान का अभ्यास कराया गया। महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में अतिथि रूप में पधारे राजर्षि जनक, कौसल्या एवं अरुन्धती खेलते हुए बालकों के बीच एक बालक में राम एवं सीता की छाया देखते हैं। वे उन्हें बुलाकर गोद में बिठाकर वात्सल्य की वर्षा करते हैं। इतने में ही चन्द्रकेतु द्वारा रक्षित राजा राम का अश्वमेधीय अश्व आश्रम में प्रवेश करता है। नगरीय अश्व को देखकर आश्रम के बालकों में कौतूहल उत्पन्न होता है। वे उसे देखने के लिए लव को भी बुला लाते हैं। लव घोड़ का दखत है कि यह अश्वमेधीय घोडा है। रक्षकों की घोषणा सुनकर बालक लव घोड़े को आश्रम में ले जाकर बाँधने का आदेश देते हैं। इसका अत्यन्त मार्मिक चित्रण इस पाठ में हुआ है।इस पाठ का शब्दार्थ सहित हिन्दी अनुवाद एवं भावार्थ तथा उस पर आधारित प्रश्नोत्तर देखने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें-https://www.sanskritsight.in/2020/06/blog-post.html

(नेपथ्ये कलकलः। सर्वे आकर्णयन्ति)
 अर्थ-(नेपथ्य में कोलाहल होता है।सब सुनते हैं)
जनकः : अये, शिष्टानध्याय इत्यस्खलितं खेलतां बटूनां कोलाहलः।
 अर्थ-जनक- अरे, शिष्टजनों के आगमन से अवकाश होने के कारण बेरोक-टोक खेलते हुए बटुओं का यह कोलाहल है।
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
अये=अरे
शिष्टानध्यायशिष्टजनों के आगमन से
इत्यस्खलितं अवकाश होने के कारण
खेलतांबेरोक-टोक खेलते हुए
बटूनांबटुओं का
कोलाहलःयह कोलाहल है।
कौसल्या : सुलभसौख्यमिदानीं बालत्वं भवति। अहो, एतेषां मध्ये क एष रामभद्रस्य मुग्धललितैरङ्गैर्दारकोऽस्माकं लोचने शीतलयति?
 अर्थ-कौसल्या-बाल्यावस्था में सुख सुलभ होता है। ओह ! इनके (बालकों के) बीच में कौन बालक रामभद्र को शैशव-कालीन शोभा से सम्पन्न सुन्दर और सुकुमार अङ्गों से नेत्रों को ठण्डा कर रहा है ?
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
बालत्वंबाल्यावस्था
इदानींमें
सौख्यम्सुख
सुलभसुलभ
भवति होता है।
अहोओह !
एतेषांइन(बालकों) के
मध्येबीच में
क एषकौन यह
दारकः बालक
रामभद्रस्यरामभद्र के
मुग्धललितैःशैशव-कालीन शोभा से सम्पन्न सुन्दर
अङ्गैः(और) सुकुमार अङ्गों से
अस्माकं हमारे
लोचने नेत्रों को
शीतलयतिठण्डा कर रहा है ?
अरुन्धती:-
कुवलयदलस्निग्धश्यामः शिखण्डकमण्डनो
वटुपरिषदं पुण्यश्रीकः श्रियैव सभाजयन् ।
पुनरपि शिशु तो वत्सः स मे रघुनन्दनो
झटिति कुरुते दृष्टः कोऽयं दृशोरमृताञ्जनम् ॥1॥
 अर्थ-अरुन्धती-(प्रकाश में) नील-कमल-दल के समान चिकना और श्याम काकपक्षों(घुंघराले बालों) से सुशोभित अलौकिक शोभा से सम्पन्न शरीर को कान्ति से ही ब्रह्मचारियों की मण्डली को अलङ्कृत करने वाला यह कौन है ? जो कि देखने पर फिर से शिशु रूप धारी राम की भाँति मेरी आँखों में अमृत-मय अंंजन का लेप सा कर रहा है ?
अन्वय,शब्दार्थ और श्लोकार्थ-
कुवलयदलनील-कमल-दल के समान
स्निग्धश्यामः चिकने और श्याम
शिखण्डकघुंघराले बालों से
मण्डनो सुशोभित
पुण्यश्रीकःअलौकिक शोभा से सम्पन्न शरीर की
श्रियैव कान्ति से ही
वटुपरिषदंब्रह्मचारियों की मण्डली को
सभाजयन् अलङ्कृत करने वाला
कोऽयं यह कौन है? जो कि
पुनरपि फिर से
शिशु तो शिशु रूप धारी
स मे वह मेरे
वत्सः पुत्र
रघुनन्दनोराम की भाँति
झटिति शीघ्र ही
दृशोरमृताञ्जनम्मेरी आँखों में अमृत-मय अंंजन का लेप सा
कुरुते दृष्टः करते हुए दिखाई दे रहा है ?
जनकः(चिरं निर्वर्ण्य ) भोः किमप्येतत्।
 अर्थ-जनक-(बहुत देर तक देखकर) ओह ! यह क्या (अपूर्व सा अनुभव) है ?
महिम्नामेतस्मिन् विनयशिशिरो मौग्ध्यमसृणो
विदग्धैर्निर्ग्राह्यो न पुनरविदग्धैरतिशयः।
मनो मे संमोहस्थिरमपि हरत्येष बलवान्
अयोधातुं यद्वत्परिलघुरयस्कान्तशकलः ॥                                                                                                 अर्थ-इस बालक में विद्यमान विनय से शीतल तथा कोमल जो महत्ता का उत्कर्ष है, वह सूक्ष्ममति मनुष्यों द्वारा ही ग्राह्य है, (स्थूलमति) अविवेकियों के द्वारा नहीं । यह बलिष्ठ बालक जैसे 'चुम्बक' का छोटा-सा टुकड़ा लोहे को अपनी ओर खींच लेता है, वैसे ही मेरे सम्मोह (शोकाघात) से स्थिर हृदय को अपनी ओर आकृष्ट कर रहा है।
अन्वय,शब्दार्थ और श्लोकार्थ-
एतस्मिन् इस बालक में विद्यमान
विनयशिशिरो विनय से शीतल तथा
मौग्ध्यमसृणो कोमल और चिकने
महिम्नाम्जो महत्ता का
अतिशयःउत्कर्ष है,
विदग्धैःवह सूक्ष्ममति मनुष्यों द्वारा ही
र्निर्ग्राह्योग्राह्य है,
अविदग्धैःअविवेकियों के द्वारा
न पुनःनहीं।
एष बलवान्यह बलिष्ठ बालक
संमोहस्थिरमपिशोकाघात से स्थिर
मनो मेमेरे हृदय को
हरति(वैसे ही) आकृष्ट कर रहा है।
यद्वत् जैसे
त्रयस्कान्तशकलः चुम्बक का
परिलघुः छोटा-सा टुकड़ा
अयोधातुं लोहे को
(हरति)अपनी ओर खींच लेता है।
लवः:(प्रविश्य,स्वगतम्) क्रमौचित्यात् पूज्यानपि सतः कथमभिवादयिष्ये?,अविज्ञातवयः(विचिन्त्य) अयं पुनरविरुद्धप्रकार इति वृद्धेभ्यः श्रूयते। (सविनयमुपसृत्य) एष वो लवस्य शिरसा प्रणामपर्यायः।
 अर्थ-लव-(प्रवेश कर स्वयं ही) अवस्था, क्रम और औचित्य न जानने के कारण इन पूजनीयों को कैसे प्रणाम करू ? (इनमें कोन वयोवृद्ध है ? और किसे प्रथम प्रणाम करना चाहिये? मैं यह नहीं जानता (तो इन्हें कैसे प्रमाण करू?) (सोचकर) "यह प्रणाम की विरोध हीन पद्धति है" ऐसा गुरुजनों से सुना जाता है। (विनयपूर्वक पास जाकर) यह आपको 'लव' को (क्रमानुसार) प्रणाम-परम्परा है।
शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
(प्रविश्य, स्वगतम्)(प्रवेश कर स्वयं ही)
वयः अवस्था
क्रमौचित्यात् क्रम और औचित्य
अविज्ञातम्न जानने के
सतः कारण
पूज्यानपि इन पूजनीयों को
कथम्कैसे
अभिवादयिष्ये?प्रणाम करूँ ?
(विचिन्त्य) (सोचकर)
अयं यह
पुनरविरुद्धप्रकारप्रणाम की विरोध हीन पद्धति है
इति वृद्धेभ्यःऐसा गुरुजनों से
श्रूयतेसुना जाता है।
(सविनयमुपसृत्य) (विनयपूर्वक पास जाकर)
एष वो यह आपको
लवस्य 'लव' का (क्रमानुसार)
शिरसा सिर झुकाकर
प्रणामपर्यायः प्रणाम-परम्परा है।
अरुन्धतीजनकौ : कल्याणिन्! आयुष्मान् भूयाः।
 अर्थ-अरुन्धती और जनक-कल्याण सम्पन्न ! चिरजीव हो!
कौसल्या : जात! चिरं जीव।
 अर्थ-कोसल्या-वत्स ! चिरञ्जीव !
अरुन्धती : एहि वत्स! (लवमुत्सङ्गे गृहीत्वा आत्मगतम्) दिष्ट्या न केवल-मुत्सङ्गश्चिरान्मनोरथोऽपि मे पूरितः।
 अर्थ-अरुन्धती-आओ बेटा ! (लव को गोदी में लेकर स्वयं ही) सौभाग्य से केवल मेरी गोदी ही नहीं अपितु मेरी बहुत दिनों की अभिलाषा भी पूर्ण हो गई।
शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
एहि वत्स!आओ बेटा !
(लवमुत्सङ्गे गृहीत्वा आत्मगतम्)(लव को गोदी में लेकर स्वयं ही)
दिष्ट्या सौभाग्य से
केवलम्केवल
उत्सङ्गः न(मेरी) गोदी ही नहीं
मे चिरात्(अपितु)मेरी बहुत दिनों की
मनोरथोऽपिअभिलाषा भी
पूरितःपूर्ण हो गई।
कौसल्या : जात! इतोऽपि तावदेहि। (उत्सङ्गे गृहीत्वा) अहो, न केवलं
मांसलोज्ज्वलेन देहबन्धेन, कलहंसघोषघर्घरानुनादिना स्वरेण च रामभद्रमनुसरति। जात! पश्यामि ते मुखपुण्डरीकम्। (चिबुकमुन्नमय्य, निरूप्य, सवाष्पाकूतम्) राजर्षे! किं न पश्यसि? निपुणं निरूप्यमाणो वत्साया मे वध्वा मुखचन्द्रेणापि संवदत्येव।
 अर्थ-कौसल्या-बेटा इधर (मेरी गोद में) भी आओ ! (गोदी में लेकर) ओह ! यह केवल अर्धविकसित नोल-कमल के समान बलिष्ठ तथा तेजस्वी शरीर के गठन से ही नहीं अपितु कमल को केसर के खाने के कारण मधुर कण्ठ वाले हंस के घरघराते स्वर का अनुकरण करने ज्ञाले स्वर से भी राममद्र' का अनुसरण कर रहा है।ओह विकसित कमल के भीतरी भाग के समान सुकुमार इसके शरीर का स्पर्श भी वैसा ही है। बेटा! (जरा) तुम्हारा मुख-कमल (तो) देखूँ!(ठोडी को ऊँचाकर आँसू भरी आंखों से अभिप्राय-पूर्वक देखकर) राजर्षे।क्या आप नहीं देखते? कि ध्यान से देखने पर इस बालक का मुख मेरो प्रिय वधू सीता के मुख-चन्द्र से मिल रहा है।
शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
जात! बेटा
इतोऽपिइधर (मेरी गोद में) भी
तावदेहिआओ !
(उत्सङ्गे गृहीत्वा)(गोदी में लेकर)
अहो,केवलं ओह ! यह केवल
मांसलोज्ज्वलेनबलिष्ठ तथा तेजस्वी
देहबन्धेन, शरीर के गठन से ही नहीं
कलहंसमधुर कण्ठ वाले हंस के
घोषघर्घर घरघराते स्वर का
अनुनादिना अनुकरण करने ज्ञाले
स्वरेण च स्वर से भी
रामभद्रम्राममद्र' का
अनुसरतिअनुसरण कर रहा है।
जात! बेटा!
ते (जरा) तुम्हारा
मुखपुण्डरीकम्मुख-कमल (तो)
पश्यामि देखूँ!
(चिबुकमुन्नमय्य, निरूप्य, सवाष्पाकूतम्)
(ठोडी को ऊँचाकर आँसू भरी आंखों से अभिप्राय-पूर्वक देखकर)
राजर्षे! राजर्षे!
किं न क्या आप नहीं
पश्यसि?देखते?
निपुणं कि ध्यान से
निरूप्यमाणो देखने पर
वत्साया इस बालक का मुख
मे वध्वा मेरी प्रिय वधू सीता के
मुखचन्द्रेणापि मुख-चन्द्र से भी
संवदत्येव मिल रहा है।                                                                                                                                जनक : पश्यामि, सखि! पश्यामि। (निरूप्य)
 अर्थ-जनक-देख रहा हूँ सखि देख रहा हूँ।(देखकर)
वत्सायाश्च रघूद्वहस्य च शिशावस्मिन्नभिव्यज्यते,
संवृत्तिः प्रतिबिम्बतेव निखिला सैवाकृतिः सा द्युतिः।
सा वाणी विनयः स एव सहजः पुण्यानुभावोऽप्यसौ
हा हा देवि किमुत्पथैर्मम मनः पारिप्लवं धावति ॥
 अर्थ-इस बालक में बेटी सीता एवं रघुकुल-श्रेष्ठ राम का (पावन) सम्बन्ध प्रतिबिम्बित हो रहा है और आकृति कान्ति, वाणी, स्वाभाविक विनय तथा पवित्र प्रभाव भी ठीक वैसा ही है । हा ! हा! देवि ! (इसको देख कर) मेरा मन चञ्चल होकर उन्मार्गों से क्यों दौड़ रहा है ? (सीता के पुत्र को कल्पना क्यों कर रहा है ?)
अन्वय,शब्दार्थ और श्लोकार्थ-
अस्मिन्इस
शिशौबालक में
वत्सायाश्चबेटी सीता एवं
रघूद्वहस्य चरघुकुल-श्रेष्ठ राम के
इव जैसा
संवृत्तिःसम्बन्ध
प्रतिबिम्बताप्रतिबिम्बित हो रहा है
सैवठीक वैसा ही
निखिलास्वाभाविक
आकृतिःआकृति
सा द्युतिःवही कान्ति
सा वाणी वही वाणी
स एव वही
सहजः सहज
विनयः विनय
पुण्यानुभावःपवित्र प्रभाव
अपिभी
असौ इसमें
अभिव्यज्यतेअभिव्यंजित हो रहा है
हा हा देविहा ! हा! देवि !
मम=मेरा
मनःमन
पारिप्लवं चञ्चल होकर
किमुत्पथैःउन्मार्गों से क्यों
धावतिदौड़ रहा है ?
कौसल्या : जात! अस्ति ते माता? स्मरसि वा तातम्?
 अर्थ-कौसल्या-वत्स ! तुम्हारी माता है ? क्या तुम अपने पिता को याद करते हो?
लवः:नहि।
 अर्थ-लव-नहीं।
कौसल्या:ततः कस्य त्वम्?
 अर्थ-कौसल्या-तब तुम किसके हो ?
लवः:भगवतः सुगृहीतनामधेयस्य वाल्मीकेः।
 अर्थ-लव: स्वनामधन्य भगवान् बाल्मीकि के।
कौसल्या:अयि जात! कथयितव्यं कथय।
 अर्थ-कौल्सया–प्यारे बेटे ! कहने योग्य बात कह ।
लवः : एतावदेव जानामि।
 अर्थ-लवः मैं तो इतना ही जानता हूँ।
(प्रविश्य सम्भ्रान्ताः)
 अर्थ-(प्रवेश कर घबराये हुए)
बटवः: कुमार! कुमार! अश्वोऽश्व इति कोऽपि भूतविशेषो जन
पदेष्वनुश्रूयते, सोऽयमधुनाऽस्माभिः स्वयं प्रत्यक्षीकृतः।
 अर्थ-बटुगण-कुमार ! कुमार ! जनपदों में जो 'घोड़ा-घोड़ा' नामक कोई प्राणी विशेष सुना जाता है, अब हमने उसे स्वयं प्रत्यक्ष कर लिया है ।
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
कुमार! कुमार!कुमार ! कुमार !
जनपदेषुजनपदों में जो
अयम्यह
अश्वोऽश्व इति'घोड़ा-घोड़ा' नामक
कोऽपिकोई
भूतविशेषोप्राणी विशेष
अनुश्रूयतेसुना जाता है
अधुनाअब
अस्माभिःहमने
सः उसे
स्वयं स्वयं
प्रत्यक्षीकृतःप्रत्यक्ष कर लिया है ।
लवः: 'अश्वोऽश्व' इति नाम पशुसमाम्नाये सांग्रामिके च पठ्यते, तद्
ब्रूत-कीदृशः?
 अर्थ-लव-'घोड़ा-घोड़ा' यह पशु-शास्त्र तथा संग्राम-शास्त्र में पढ़ा जाता है । तो बतलाओ-वह कैसा है ?
बटवः : अये, श्रूयताम्-
 अर्थ-बटुगण-अजी सुनिये !
पश्चात्पुच्छं वहति विपुलं तच्च धूनोत्यजस्त्रम्
दीर्घग्रीवः स भवति, खुरास्तस्य चत्वार एव ।
शष्पाण्यत्ति.प्रकिरति शकृत्पिण्डकानाम्रमात्रान्
किं व्याख्यानैर्ऋजति स पुनर्दूरमेह्येहि यामः ॥
 अर्थ-उसकी पिछली ओर बहुत लम्बी पूँछ लटकती है और वह उसे निरन्तर हिलाता रहता है । उसकी गर्दन लम्बी और खुर भी चार ही होते हैं। वह घास खाता है और आम्र-फलों जैसा मल-त्याग (लीद) करता है । अब अधिक वर्णन करने की आवश्यकता नहीं-वह घोड़ा दूर निकला जा रहा है। आओ ! आओ! चलें !
अन्वय,शब्दार्थ और श्लोकार्थ-
स्य उसकी
पश्चात्उसकी पिछली ओर
विपुलं बहुत लम्बी
पुच्छंपूँछ
वहतिलटकती है
तच्चऔर वह उसे
अजस्रम्निरन्तर
धूनोतिहिलाता रहता है।
दीर्घग्रीवः(उसकी) गर्दन लम्बी
भवतिहोती है।
खुराःऔर खुर भी
चत्वार एवचार ही होते हैं।
शष्पाण्यत्ति(वह) घास खाता है
आम्रमात्रान्और आम्र-फलों जैसा
शकृत्पिण्डकान्मल-त्याग (लीद)
प्रकिरति करता है ।
व्याख्यानैःअधिक वर्णन करने की
किं क्या आवश्यकता ?
वह घोड़ा
पुनर्दूरम्पुनः दूर
व्रजतिनिकला जा रहा है।
एह्येहिआओ ! आओ!
यामः चलें !
(इत्यजिने हस्तयोश्चाकर्षन्ति)
 अर्थ-ऐसा कहकर उसके हाथ और मगचर्म पकड़कर खींचते हैं।
लवः : (सकौतुकोपरोधविनयम्।) आर्याः! पश्यत। एभिर्नीतोऽस्मि।
 अर्थ-लव-(कौतूहल,बटुकों के आग्रह और विनय के साथ) आर्यगण !देखिये।इसके द्वारा ले जाया जा रहा हूँ।
(इतित्वरितं परिक्रामति।)
 अर्थ-(ऐसा कहकर शीघ्रता से घूमता है)
अरुन्धतीजनकौ: महत्कौतुकं वत्सस्य।
अरुन्धती और जनक-बालक को (घोड़ा देखने का) बड़ा कौतूहल है।
कौसल्या : अरण्यगर्भरूपालापै!यं तोषिता वयं च। भगवति! जानामि तं पश्यन्ती वञ्चितेव। तस्मादितोऽन्यतो भूत्वा प्रेक्षामहे तावत् पलायमानं दीर्घायुषम्।
 अर्थ-कौसल्या-बनवासी बालकों के रूप और बातचीत से आप और हम लोग बड़े सन्तुष्ट हुए हैं । भगवति ! मुझे तो ऐसा लगता है कि मानो मैं उसे देखती हुई ठगी-सी रह गई हूँ । इसलिये दूसरी ओर इस दीर्घायु को भागते हुए देखें।
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
अरण्यगर्भबनवासी बालकों के
रूपालापैरूप और बातचीत से
वयं चआप और हम लोग
यं तोषिताबड़े सन्तुष्ट हुए हैं ।
भगवति!भगवति !
जानामिमुझे तो ऐसा लगता है कि मानो मैं
तं उसे
पश्यन्तीदेखती हुई
वञ्चितेवठगी-सी रह गई हूँ ।
तस्मात्इसलिये
तावत् तब
इतोऽन्यतोदूसरी ओर
भूत्वा(एकान्त) होकर
दीर्घायुषम्इस दीर्घायु को
पलायमानंभागते हुए
प्रेक्षामहे देखें।
अरुन्धती : अतिजवेन दूरमतिक्रान्तः स चपलः कथं दृश्यते?
 अर्थ-अरुन्धती-अत्यन्त वेग से दूर निकलने वाला वह चंचल (बालक) कैसे देखा जा सकता है ?
(प्रविश्य)(प्रवेशकर)
बटवः : पश्यतु कुमारस्तावदाश्चर्यम्।
 अर्थ-बटवः-कुमार इस आश्चर्य को देखें।
लवः: दृष्टमवगतं च। नूनमाश्वमेधिकोऽयमश्वः।
 अर्थ-लव-देख लिया और समझ भी लिया ! निश्चय ही यह 'अश्वमेध' यज्ञ का घोड़ा है।
बटवः : कथं ज्ञायते?
 अर्थ-बटुगण-कैसे जानते हो ?
शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
लवः : ननु मूर्खा:! पठितमेव हि युष्माभिरपि तत्काण्डम्। किं न पश्यथ?प्रत्येकं शतसंख्याः कवचिनो दण्डिनो निषङ्गिणश्च रक्षितारः। यदि च विप्रत्ययस्तत्पृच्छत।
 अर्थ-लव-अरे मूर्खों ! तुम लोगों ने भी वह 'काण्ड' (अश्मेध-प्रतिपादक वेद का अध्याय) पढ़ा ही है। फिर क्या तुम सैकड़ों की संख्या में कवच-दण्ड तथा तूणीरधारियों को नहीं देखते ? इसी प्रकार (सेना का) दूसरा भाग भी (सुसज्जित) दिखाई दे रहा है (अत: यह निश्चय ही 'मेध्याश्व' है ।) और यदि तुम्हें विश्वास नहीं होता तो (इन अनुयायी रक्षकों से पूछ लो ।)
लवः : ननु मूर्खा:!अरे मूर्खों !
युष्माभिरपि तुम लोगों ने भी
तत्काण्डम्वह 'काण्ड' (अश्मेध-प्रतिपादक वेद का अध्याय)
पठितमेव हिपढ़ा ही है।
किंफिर क्या तुम
शतसंख्याः सैकड़ों की संख्या में
प्रत्येकं प्रत्येक
कवचिनो कवच-
दण्डिनोदण्ड तथा
निषङ्गिणश्च तूणीरधारियों को
रक्षितारःरक्षा करते हुए
न पश्यथ?नहीं देखते ?
यदि च और यदि
विप्रत्ययः=(तुम्हें) संदेह होता है
तत् तो (इन अनुयायी रक्षकों से)
पृच्छतपूछ लो ।
बटवः : भो भोः! किंप्रयोजनोऽयमश्वः परिवृतः पर्यटति?
 अर्थ-बटुगण-अरे ! रक्षकों से घिरा हुआ यह घोड़ा क्यों घूम रहा है ?
लवः : (सस्पृहमात्मगतम्) अश्वमेध' इति नाम विश्वविजयिनां क्षत्रियाणामूर्जस्वलः सर्वक्षत्रपरिभावी महान् उत्कर्षनिकषः।
 अर्थ-लव-(अभिलाषापूर्वक, स्वयं ही ) 'अश्वमेध' यह विश्व-विजयी क्षत्रियों की समस्त (शत्रु) राजाओं को पराजित करने वाली अत्यन्त शक्तिशालिनी बड़ी भारी कसौटी है।
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
(सस्पृहमात्मगतम्)(अभिलाषापूर्वक, स्वयं ही )
'अश्वमेध''अश्वमेध'
इति नामयह
विश्वविजयिनांविश्व-विजयी
क्षत्रियाणाम्क्षत्रियों की
सर्वक्षत्रपरिभावीसमस्त (शत्रु) राजाओं को पराजित करने वाली
उर्जस्वलःअत्यन्त शक्तिशालिनी
महान् बड़ी
उत्कर्षनिकषःभारी कसौटी है।
(नेपथ्ये)(नेपथ्य में)
योऽयमश्वः पताकेयमथवा वीरघोषणा ।
सप्तलोकैकवीरस्य दशकण्ठकुलद्विषः ॥
 अर्थ-यह जो घोड़ा (दिखाई दे रहा है) वह सातों लोकों के एकमात्र वीर, रावण कुल के शत्रु (भगवान् राम) की विजय पताका अथवा वीर घोषणा है।
अन्वय,शब्दार्थ और श्लोकार्थ-
योऽयमश्वःयह जो घोड़ा(दिखाई दे रहा है)
सप्तलोकैकवीरस्यवह सातों लोकों के एकमात्र वीर,
दशकण्ठकुलद्विषःरावण कुल के शत्रु (भगवान् राम)
पताकेयमथवाकी विजय पताका अथवा
वीरघोषणावीर घोषणा है।
लवः : (सगर्वम्)। अहो! संदीपनान्यक्षराणि।
लव-(सगर्व) ओह! ये अक्षर बड़े कोधोत्पादक हैं ।
बटवः : किमुच्यते? प्राज्ञः खलु कुमारः।
 अर्थ-बटुगण-क्या कहते हो? (कि यह 'अश्वमेध-यज्ञ' का घोड़ा है ? तब तो 'कुमार' बड़े विज्ञ है ।(क्योंकि बिना पूछे हो समझ लिया था कि यह 'मेध्याश्व' है।)
लवः : भो भोः! तत्किमक्षत्रिया पृथिवी? यदेवमुद्घोष्यते? (नेपथ्ये)
 अर्थ-लव-अरे सैनिकों ! तो क्या पृथ्वी क्षत्रिय-शून्य है ! जो इस प्रकार घोषणा कर रहे हो।
(नेपथ्ये)(नेपथ्य में)
रे, रे, महाराजं प्रति कः क्षत्रियः?
 अर्थ-अरे ! रे! (महाराज के सामने) कौन क्षत्रिय हैं ? (ऐसा कौन-सा क्षत्रिय है जो कि भगवान राम की तुलना में आ सकता हो?)
लवः : धिग् जाल्मान्।
 अर्थ-लव-तुम नीचों को धिक्कार हैं।
यदि नो सन्ति सन्त्येव केयमद्य विभीषिका ।
किमुक्तैरेभिरधुना तां पताकां हरामि वः ॥
 अर्थ-यदि क्षत्रिय नहीं हैं,(ऐसा कहते हो तो मैं कहता हूँ कि) वे हैं ही। यह व्यर्थ का डर क्यों दिखा रहे हो इन बातों को कहने से क्या लाभ? मैं उस पताका का हरण कर रहा हूँ। (यदि तुममें शक्ति हो तो मुझे रोको ।)
अन्वय,शब्दार्थ और श्लोकार्थ-
यदि नो सन्ति यदि क्षत्रिय नहीं हैं,
(ऐसा कहते हो तो मैं कहता हूँ कि)
सन्त्येववे हैं ही।
इयमद्यआज यह
विभीषिका(व्यर्थ का) डर
काक्या है?
एभिरधुना इन बातों को इस समय
किमुक्तैःकहने से क्या लाभ?
तां पताकांउस पताका का
हरामि वः मैं हरण कर रहा हूँ।
हे बटवः! परिवृत्य लोष्ठैरभिजन्त उपनयतैनमश्वम्। एष रोहितानां मध्येचरो भवतु।
 अर्थ-अरे। बटुकों! इस घोडे को घेर कर ढेलों से मारते हुए (आश्रम में) ले आओ। यह भी मृगों के बीच विचरण करे ।(मगों के साथ ही यह भी घास खाया करे)
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
हे बटवः!अरे। बटुकों!
एनमश्वम्इस घोडे को
परिवृत्यघेर कर
लोष्ठैरभिजन्त ढेलों से मारते हुए
उपनयत(आश्रम में) ले आओ।
एष रोहितानांयह भी मृगों के
मध्येचरोबीच विचरण 
भवतु करे।
(प्रविश्य सक्रोधः)(प्रवेशकर क्रोध से)
पुरुषः : धिक् चपल! किमुक्तवानसि? तीक्ष्णतरा ह्यायुधश्रेणयः शिशोरपि दृप्तां वाचं न सहन्ते।
 अर्थ-पुरुष-चुप ! चपल! क्या कह रहा है ? 'तीखे शस्त्र वाले बच्चे  भी गर्वीली वाणी नहीं सहते ! '(शस्त्रधारी बालक को भी गर्व भरी वाणी नहीं सहन करते ।)
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
धिक् चपल!चुप ! चपल!
किमुक्तवानसि?क्या कह रहा है ?
तीक्ष्णतरा'तीखे
ह्यायुधश्रेणयःशस्त्र वाले
शिशोरपि बच्चे भी
दृप्तां वाचंगर्वीली वाणी
न सहन्तेनहीं सहते। '
राजपुत्रश्चन्द्रकेतुर्दुर्दान्तः, सोऽप्यपूर्वारण्यदर्शनाक्षिप्तहृदयो न यावदायाति , तावत् त्वरितमनेन तरुगहनेनापसर्पत।
 अर्थ-राजकुमार 'चन्द्रकेतु' बडे दुर्दमनीय है । अपूर्व (परम रमणीय) वन की शोभा देखने में उत्सुक जब तक वे नहीं आते हैं तब तक तुम इन सघन वृक्षों में छिपकर भाग जाओ।
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
राजपुत्रःराजकुमार
चन्द्रकेतु 'चन्द्रकेतु'
र्दुर्दान्तः बडे दुर्दमनीय है ।
सोऽपिवह भी
अपूर्वारण्यअपूर्व (परम रमणीय) वन की
दर्शनाक्षिप्तहृदयोदेखने में उत्सुक
न यावदायातिजब तक वे नहीं आते हैं
तावत्तब तक
त्वरितमनेनशीघ्र ही इस
तरुगहनेसघन वृक्षों में
नापसर्पतछिपकर भाग जाओ।
बटवः : कुमार! कृतं कृतमश्वेन। तर्जयन्ति विस्फारितशरासनाः कुमारमायुधीयश्रेणयः। दूरे चाश्रमपदम्। इतस्तदेहि। हरिणप्लुतैः पलायामहे।
 अर्थ-बटुगण-कुमार ! घोड़े को रहने दो ! धनुष ताने हुए शस्त्रधारियों के समूह तुम्हें धमका रहे हैं; और आश्रम यहाँ से दूर है । अतः आओ! हरिणों की मांति कूद-कूद कर भाग चले ।
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
कुमार!कुमार !
अश्वेनघोड़े को
कृतं रहने दो !
कृतम्रहने दो !
शरासनाःधनुष
विस्फारितताने हुए
कुमारम्कुमार
आयुधीयश्रेणयःशस्त्रधारियों के समूह
तर्जयन्तितुम्हें धमका रहे हैं;
चाश्रमपदम्और आश्रम
दूरेयहाँ से दूर है।
तदेहि अतः आओ!
हरिणप्लुतैःहरिणों की मांति कूद-कूद कर
इतःयहाँ से
पलायामहेभाग चलें।
लवः : किं नाम विस्फुरन्ति शस्त्राणि?
लव-क्या शस्त्र चमक रहे हैं ?
(इति धनुरारोपयति)
(धनुष सन्धान करता हुआ।)

प्रश्न 1.
संस्कृतभाषया उत्तराणि लिखत - 
(क) 'उत्तररामचरितम्' इति नाटकस्य रचयिता कः ? 
(ख) नेपथ्ये कोलाहलं श्रुत्वा जनक: किं कथयति ? 
(ग) लव: कौशल्यां रामभद्रं च कथमनुसरति ?
(घ) बटवः अश्वं कथं वर्णयन्ति ? 
(ङ) लवः कथं जानाति यत् अयम् आश्वमेधिकः अश्वः? 
(च) राजपुरुषस्य तीक्ष्णतरा आयुधश्रेण्यः किं न सहन्ते ? 
उत्तरम् :
(क) भवभूति: 'उत्तररामचरितम्' इति नाटकस्य रचयिता। 
(ख) नेपथ्ये कोलाहलं श्रुत्वा जनकः कथयति-"शिष्टानध्यायः इति क्रीडतां वटूनां कोलाहलः"। 
(ग) लवः कौशल्यां रामभद्रं च देहबन्धनेन स्वरेण च अनुसरति। 
(घ) बटवः अश्वं भूतविशेषं वर्णयन्ति।
(ङ) लवः अश्वमेध-काण्डेन जानाति यत् अयम् आश्वमेधिकः अश्वः। 
(च) राजपुरुषस्य तीक्ष्णतराः आयुधश्रेण्यः दृप्तां वाचं न सहन्ते। 
प्रश्न 2. 
रेखाङ्कितपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत 
(क) अश्वमेध इति नाम क्षत्रियाणां महान् उत्कर्षनिकषः। 
(ख) हे बटवः! लोष्ठैः अभिघ्नन्तः उपनयत एनम् अश्वम्। 
(ग) रामभद्रस्य एषः दारकः अस्माकं लोचने शीतलयति। 
(घ) उत्पथैः मम मनः पारिप्लवं धावति। 
(ङ) अतिजवेन दूरमतिक्रान्तः स चपल: दृश्यते। 
(च) विस्फारितशरासनाः आयुधश्रेण्यः कुमारं तर्जयन्ति।
(छ) निपुणं निरूप्यमाणः लवः मुखचन्द्रेण सीतया संवदत्येव। 
उत्तरम् : 
(प्रश्ननिर्माणम्) 
(क) अश्वमेध इति नाम केषां महान् उत्कर्ष-निकषः ? 
(ख) हे बटवः ! कथं अभिघ्नन्तः उपनयत एनम् अश्वम् ? 
(ग) रामभद्रस्य एष दारकः अस्माकं किं शीतलयति ? 
(घ) उत्पथैः कस्य मनः पारिप्लवं धावति ? 
(ङ) अतिजवेन दूरम् अतिक्रान्तः सः कथं दृश्यते ?
(च) विस्फारित-शरासनाः आयुधश्रेण्यः कं तर्जयन्ति ? 
(छ) निपुणं निरुप्यमाणः लवः मुखचन्द्रेण कया संवदति एव ? 

प्रश्न 3. 
सप्रसङ्ग-व्याख्यां कुरुत - 
(क) सर्वक्षत्रपरिभावी महान् उत्कर्षनिकषः। 
(ख) किं व्याख्यानैव्रजति स पुन(रमेह्यहि याम। 
(ग) सुलभसौख्यमिदानी बालत्वं भवति 
(घ) झटिति कुरुते दृष्टः कोऽयं दृशोरमृताञ्जनम् ? 
उत्तरम् : 
(क) सर्वक्षत्रपरिभावी महान् उत्कर्षनिकषः। 
प्रसंग: - प्रस्तुत पंक्ति 'लवकौतुकम्' पाठ से संकलित है। वाल्मीकि आश्रम में 'लव' के साथ ब्रह्मचारी-सहपाठी खेल रहे हैं। इसी समय कुछ बटुगण आकर, लव को आश्रम के निकट अश्वमेध घोड़े की सूचना देते हैं। यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा रक्षकों से घिरा हुआ है। लव उस अश्वमेध यज्ञ के महत्त्व को अपने मन में विचार करता हुआ कहता है
व्याख्या - यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा है। यह क्षत्रियों की शक्ति का सूचक होता है। क्षत्रिय राजा, अपने बलवान् शत्रु राजा पर अपनी विजय की धाक जमाने के लिए इसे छोड़ता है। वास्तव में यह घोड़ा सभी शत्रुओं पर प्रभाव डालने वाले उत्कर्ष श्रेष्ठपन का सूचक होता है।
(ख) किं व्याख्यानैर्ऋजति स पुन(रमेयेहि यामः। 
प्रसंग: - प्रस्तुत पंक्ति 'लवकौतुकम्' पाठ से संकलित है। वाल्मीकि आश्रम के निकट राम के अश्वमेध का घोड़ा घूमते-घूमते आ गया है। वहाँ खेलते हुए ब्रह्मचारी उस विशेष प्राणी को देखकर भागते हुए आश्रम में आते हैं और 'लव' के सामने उसका वर्णन करते हैं
व्याख्या - यह प्राणिविशेष लम्बी पूँछ को बारबार हिला रहा है। घास खाता है, लीद करता है, लम्बी गर्दन है, चार खुरों वाला है। अधिक कहने का समय नहीं है, यह जन्तु तेजी से आश्रम से दूर भागा जा रहा है, चलो आओ हम भी उसे देखते हैं। भाव यह है कि उसे बताने की अपेक्षा उसे देखना अधिक आनन्ददायक होगा। 
(ग) सुलभं सौख्यम् इदानी बालत्वं भवति।। 
प्रसंग: - प्रस्तुत पंक्ति 'लवकौतुकम्' पाठ से उद्धृत है। वाल्मीकि आश्रम में अतिथि के रूप में जनक, कौशल्या और अरुन्धती आए हुए हैं। उनके आने से आश्रम में अवकाश कर दिया गया है और सभी छात्रगण खेलते हुए शोर मचा रहे हैं। इस शोर को सुनकर, कौशल्या जनक को बता रही हैं 
व्याख्या - बाल्यकाल में सुख के साधन सुलभ होते हैं। बच्चों को मजा लेने के लिए किसी खिलौने आदि की आवश्यकता नहीं होती। वे तो साधारण से खेल-कूद और हँसी-मजाक द्वारा ही सुख प्राप्त कर लेते हैं। सुख प्राप्ति के लिए उन्हें बड़े बहुमूल्य क्रीडा-साधनों की आवश्यकता नहीं होती। ये ब्रह्मचारी अपने बचपन का आनन्द ले रहे हैं। 
(घ) झटिति कुरुते दृष्टः कोऽयं दृशोः अमृताञ्जनम्। 
प्रसंगः - प्रस्तुत पंक्ति 'लवकौतुकम्' पाठ से संकलित है। वाल्मीकि आश्रम में, राम के पुत्र 'लव' को देखकर, अरुन्धती (वशिष्ठ की पत्नी) अत्यन्त प्रभावित है। वह उसके रूप सौन्दर्य को देखकर, राम के बचपन को स्मरण करती हुई जनक तथा कौशल्या से कहती है - 
व्याख्या - यह बालक मेरे हृदय में अत्यन्त स्नेहभाव पैदा कर रहा है। इसे देखकर मुझे ऐसा लग रहा है, जैसे कि बचपन के राम को देख रही हूँ। यह प्रिय बालक देखने पर मुझे इतना आकृष्ट कर रहा है, मानो मेरी आँखों में अमृत का अंजन लगा दिया है। इसे देखकर मुझे अत्यन्त तृप्ति मिल रही है। 
प्रश्न 4. 
अधोलिखितानि कथनानि कः कं कथयति ? 
उत्तरसहितम् -



 
प्रश्न 5. 
अधोलिखितवाक्यानां रिक्तस्थानपूर्ति निर्देशानुसारं कुरुत -
(क) क एषः ........ रामभद्रस्य मुग्धललितैरङ्गैर्दारकोऽस्माकं लोचने .......। (क्रियापदेन) 
(ख) एष ............. मे सम्मोहनस्थिरमपि मनः हरति। (कर्तृपदेन) 
(ग) ................! इतोऽपि तावदेहि ! (सम्बोधनेन) 
(घ) 'अश्वोऽश्व' .............. नाम पशुसमाम्नाये साङ्ग्रामिके च पठ्यते। (अव्ययेन) 
(ङ) युष्माभिरपि तत्काण्डं ..................... एव हि। (कृदन्तपदेन) 
(च) एष वो लवस्य ................. प्रणामपर्यायः। (करणपदेन) 
उत्तरम् :
(क) क एषः अनुसरति रामभद्रस्य मुग्धललितैरङ्गैर्दारकोऽस्माकं लोचने शीतलयति। 
(ख) एष बलवान् मे सम्मोहनस्थिरमपि मनः हरति।
(ग) जात! इतोऽपि तावदेहि ! 
(घ) 'अश्वोऽश्व' इति नाम पशुसमाम्नाये सानामिके च पठ्यते। 
(ङ) युष्माभिरपि तत्काण्डं पठितम् एव हि। 
(च) एष वो लवस्य शिरसा प्रणामपर्यायः। 
प्रश्न 6. 
अधः समस्तपदानां विग्रहाः दत्ताः। उदाहरणमनुसृत्य समस्तपदानि रचयत, समासनामापि च लिखत - 
उदाहरणम् - पशूनां समाम्नायः, तस्मिन् पशुसमाम्नाये - षष्ठीतत्पुरुषः
(क) विनयेन शिशिरः-विनशिशिरः-तृतीयातत्पुरुष
(ख) अयस्कान्तस्य शकलः-अयस्कान्तशकलः-षष्ठीतत्पुरुष
(ग) दीर्घा ग्रीवा यस्य सः-दीर्घाग्रीवा-कर्मधारयतत्पुरुष
(घ) मुखम् एव पुण्डरीकम्-मुखपुण्डरीकम्-कर्मधारयतत्पुरुष  
(ङ) पुण्यः चासौ अनुभावः-पुण्यानुभावः-कर्मधारयतत्पुरुष
(च) न स्खलितम्-अस्खलितम्-नञ् तत्पुरुष
प्रश्न 7. 
अधोलिखित पारिभाषिक शब्दानां समुचितार्थेन मेलनं कुरुत -
(क) नेपथ्ये                  (क) प्रकटरूप में
(ख) आत्मगतम्            (ख) देखकर
(ग) प्रकाशम्                (ग) पर्दे के पीछे
(घ) निरूप्य                  (घ) अपने मन में
(ङ) उत्सङ्गे गृहीत्वा       (ङ) प्रवेश करके
(च) प्रविश्य                  (च) अपने मन में
(छ) सगर्वम्                  (छ) गोद में बिठा कर
(ज) स्वगतम्                 (ज) गर्व के साथ 
प्रश्न 8. 
पाठमाश्रित्य हिन्दीभाषया लवस्य चारित्रिकवैशिष्ट्यं लिखत - 
उत्तरम् : 
(बालक लव का चरित्र चित्रण) 
लव महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में पालित-पोषित, राजा राम द्वारा निर्वासित भगवती सीता के जुड़वा पुत्रों में से एक है। वह आकृति में बिल्कुल राम जैसा है, उसकी आँखों में राम की आँखों जैसी चमक है। यही कारण है कि जब महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में राजर्षि जनक, कौशल्या और अरुन्धती अतिथि के रूप में पधारते हैं; तब खेलते हुए बालकों के बीच कौशल्या बालक लव को देखकर राम के बचपन की याद में खो जाती है। तीनों की बातचीत से पता लगता है कि लव का मुख सीता के मुखचन्द्र की भाँति है। उसका मांसल और तेजस्वी शरीर राम के तुल्य है। उसका स्वर बिल्कुल राम से मिलता-जुलता है। 
       लव शिष्टाचार में कुशल है। वह गुरुजनों का आदर करना जानता है और जनक आदि के आश्रम में पधारने पर उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम करता है। लव ने महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा प्राप्त की है। इसीलिए जब चन्द्रकेतु द्वारा रक्षित राजा राम का अश्वमेधीय अश्व आश्रम में प्रवेश करता है; तब लव इस घोड़े को देखते ही पहचान जाता है कि यह अश्वमेधीय अश्व है, क्योंकि उसने युद्धशास्त्र तथा पशु-समाम्नाय में इस अश्व के बारे में पढ़ा हुआ है।
      लव स्वभाव से वीर है, उसका स्वाभिमान क्षत्रियोचित है। इसीलिए अश्व के रक्षक सैनिकों के द्वारा जब अश्व के सम्बन्ध में गर्वपूर्ण शब्दावली का प्रयोग किया जाता है; तब वह उन सैनिकों को ललकारता है और अपने साथी बालकों को आदेश करता है कि पत्थर मार मारकर इस घोड़े को पकड़ लो, यह भी हमारे हिरणों के बीच रहकर घास चर लिया करेगा। इतना ही नहीं वह विजयपताका को छीनने की घोषणा करता है। अन्य बालक युद्ध के लिए चमकते हुए अस्त्रों को देखकर आश्रम में भाग जाना चाहते हैं परन्तु लव उनका सामना करने के लिए धनुष पर बाण चढ़ा लेता है। इस प्रकार लव राम और सीता की आकृति से मेल रखता हुआ, गंभीर स्वर वाला, शिष्टाचार में निपुण, वीर, स्वाभिमानी, और तेजस्वी बालक है।
प्रश्न 9. 
अधोलिखितेषु श्लोकेषु छन्दोनिर्देशः क्रियताम् - 
(क) महिम्नामेतस्मिन् विनयशिशिरो मौग्ध्यमसृणो। 
(ख) वत्सायाश्च रघूद्वहस्य च शिशावमिस्मन्नभिव्यज्यते। 
(ग) पश्चात्पुच्छं वहति विपुलं तच्च धूनोत्यजस्त्रम्। 
उत्तरम् :
(क) शिखरिणी छन्दः। 
बालकौतुकम् 
(ख) शार्दूलविक्रीडितम् छन्दः। 
(ग) मन्दाक्रान्ता छन्दः। 
प्रश्न 10. 
पाठमाश्रित्य उत्प्रेक्षालङ्कारस्य उपमालङ्कारस्य च उदाहरणं लिखत - 
उत्तरम् : 
(क) उत्प्रेक्षालड्कारस्य उदाहरणम् - 
वत्सायाश्च रघूद्वहस्य च शिशावस्मिन्नभिव्यज्यते, 
संवृत्तिः प्रतिबिम्बितेव निखिला सैवाकृतिः सा द्युतिः। 
(ख) उपमालङ्कारस्य उदाहरणम् -
मनो मे संमोहस्थिरमपि हरत्येष बलवान्, 
अयोधातुर्यद्वत्परिलघुरयस्कान्तशकलः॥ 

बहुविकल्पीय-प्रश्नाः 
I. समुचितम् उत्तरं चित्वा लिखत -  
(i) 'उत्तररामचरितम्' इति नाटकस्य रचयिता कः ? 
(A) भासः 
(B) कालिदासः 
(C) भवभूतिः 
(D) अश्वघोषः। 
उत्तरम् :
(B) कालिदासः 
(ii) बटवः अश्वं कथं वर्णयन्ति ? 
(A) भूतविशेषम् 
(B) भूतम् 
(C) राजाश्वम् 
(D) विशेषम्।
उत्तरम् :
(A) भूतविशेषम् 
(ii) लवः कथं जानाति यत् अयम् आश्वमेधिकः अश्व: ? 
(A) उत्तरकाण्डेन 
(B) युद्धकाण्डेन 
(C) पूर्वकाण्डेन 
(D) अश्वमेधकाण्डेन। 
उत्तरम् :
(D) अश्वमेधकाण्डेन। 
(iv) राजपुरुषस्य तीक्ष्णतरा आयुधश्रेण्यः कीदृशीं वाचं न सहन्ते ? 
(A) दृप्ताम् 
(B) सुप्ताम्
(C) मधुराम् 
(D) असत्ययुक्ताम्। 
उत्तरम् :
(A) दृप्ताम् 
II. रेखाङ्कितपदम् आधृत्य-प्रश्ननिर्माणाय समुचितं पदं चित्वा लिखत 
(i) अश्वमेध इति नाम क्षत्रियाणां महान् उत्कर्षनिकषः। 
(A) कः 
(B) केषाम्
(C) कस्मै 
(D) कस्मात्। 
उत्तरम् :
(B) केषाम्
(ii) हे बटवः ! लोष्ठैः अभिनन्तः उपनयत एनम् अश्वम्। 
(A) काः 
(B) कस्मात् 
(C) कुत्र 
(D) कैः। 
उत्तरम् :
(D) कैः। 
(iii) रामभद्रस्य एषः दारकः अस्माकं लोचने शीतलयति। 
(A) के 
(B) कैः 
(C) कस्मिन् 
(D) कथम्। 
उत्तरम् :
(A) के 
(iv) उत्पथैः मम मनः पारिप्लवं धावति। 
(A) कस्य 
(B) कस्मै 
(C) कस्याम् 
(D) किम्। 
उत्तरम् :
(A) कस्य 
(v) अतिजवेन दूरमतिक्रान्तः स चपलः 
(A) केन 
(B) कम् 
(C) कः 
(D) काः। 
उत्तरम् :
(C) कः 
(vi) विस्फारितशरासनाः आयुधश्रेण्यः कुमारं तर्जयन्ति। 
(A) किम् 
(B) कथम् 
(C) केन 
(D) कम्। 
उत्तरम् :
(D) कम्।
(vi) निपुणं निरूप्यमाणः लव: मुखचन्द्रेण सीतया संवदत्येव। 
(A) कस्मात् 
(B) कस्याः 
(C) कया 
(D) कस्याम्। 
उत्तरम् :
(C) कया