वृणते हि विमश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः॥ (भारविः-किरातार्जुनीयम्)
सरलार्थः-मनुष्यों को अचानक ही (बिना सोचे-विचारे) कोई कार्य नहीं करना चाहिए। क्योंकि विवेकहीनता घोर विपत्तियों का स्थान होती है। सम्पत्तियाँ गुणों की लोभी होती हैं; अतः सोच-विचार कर कार्य करने वाले मनुष्य को वे स्वयं ही चुन लेती है।
भावार्थ:-‘बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताए’ हिन्दी की इस कहावत का मूल भाव इस सूक्ति में है। मनुष्य को सोच-विचार कर ही प्रत्येक कार्य करना चाहिए। बिना सोचे-समझे कार्य करने से घोर विपत्तियों का सामना करना पड़ता है। मनुष्य सम्पत्ति पाने के लिए कार्य करता है, सम्पत्तियाँ गुणों के पीछे चलती हैं । गुणवान् मनुष्य विवेकपूर्वक कार्य करता है और सम्पत्तियाँ भी ऐसे विचारशील मनुष्य के पास स्वयं दौड़कर चली आती हैं। विशेष:-इस पद्य में ‘आर्या’ छन्द है तथा ‘अर्थान्तरन्यास’ अलंकार है।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
विदधीत = करो ; कुर्वीत, (वि उपसर्ग + √डुधाञ् (धा) विधिलिङ् प्रथम पुरुष एकवचन)। वृणते = वरण करती है ; वरणं कुर्वन्ति। विमृश्यकारिणम् = विचार कर कार्य करने वाले को ; विचिन्त्यकारिणम्।
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते झवश: कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥
(यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्याय का पाँचवाँ श्लोक है।)
हि =क्योंकि
कश्चित् = कोई भी (पुरुष)
जातु =किसी काल में
क्षणम् =क्षणमात्र
अपि= भी
अकर्मकृत् = बिना कर्म किये
न = नहीं
तिष्ठति = रहता है
हि =निःसन्देह
सर्वः =सब (ही पुरुष)
प्रकृतिजैः = प्रकृतिसे उत्पन्न हुए
गुणैः = गुणों द्वारा
अवशः = परवश हुए
कर्मं = कर्म
कार्यते = करते हैं।
अर्थ-लव-(कौतूहल,बटुकों के आग्रह और विनय के साथ) आर्यगण !देखिये।इसके द्वारा ले जाया जा रहा हूँ।
(इतित्वरितं परिक्रामति।)=
अर्थ-(ऐसा कहकर शीघ्रता से घूमता है)
अरुन्धतीजनकौ: महत्कौतुकं वत्सस्य।=
अरुन्धती और जनक-बालक को (घोड़ा देखने का) बड़ा कौतूहल है।
कौसल्या : अरण्यगर्भरूपालापै!यं तोषिता वयं च। भगवति! जानामि तं पश्यन्ती वञ्चितेव। तस्मादितोऽन्यतो भूत्वा प्रेक्षामहे तावत् पलायमानं दीर्घायुषम्।
अर्थ-कौसल्या-बनवासी बालकों के रूप और बातचीत से आप और हम लोग बड़े सन्तुष्ट हुए हैं । भगवति ! मुझे तो ऐसा लगता है कि मानो मैं उसे देखती हुई ठगी-सी रह गई हूँ । इसलिये दूसरी ओर इस दीर्घायु को भागते हुए देखें।
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
अरण्यगर्भ=बनवासी बालकों के
रूपालापै=रूप और बातचीत से
वयं च=आप और हम लोग
यं तोषिता=बड़े सन्तुष्ट हुए हैं ।
भगवति!=भगवति !
जानामि=मुझे तो ऐसा लगता है कि मानो मैं
तं= उसे
पश्यन्ती=देखती हुई
वञ्चितेव=ठगी-सी रह गई हूँ ।
तस्मात्=इसलिये
तावत् =तब
इतोऽन्यतो=दूसरी ओर
भूत्वा=(एकान्त) होकर
दीर्घायुषम्=इस दीर्घायु को
पलायमानं=भागते हुए
प्रेक्षामहे =देखें।
अरुन्धती : अतिजवेन दूरमतिक्रान्तः स चपलः कथं दृश्यते?=
अर्थ-अरुन्धती-अत्यन्त वेग से दूर निकलने वाला वह चंचल (बालक) कैसे देखा जा सकता है ?
(प्रविश्य)=(प्रवेशकर)
बटवः : पश्यतु कुमारस्तावदाश्चर्यम्।=
अर्थ-बटवः-कुमार इस आश्चर्य को देखें।
लवः: दृष्टमवगतं च। नूनमाश्वमेधिकोऽयमश्वः।=
अर्थ-लव-देख लिया और समझ भी लिया ! निश्चय ही यह 'अश्वमेध' यज्ञ का घोड़ा है।
बटवः : कथं ज्ञायते?=
शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
लवः : ननु मूर्खा:! पठितमेव हि युष्माभिरपि तत्काण्डम्। किं न पश्यथ?प्रत्येकं शतसंख्याः कवचिनो दण्डिनो निषङ्गिणश्च रक्षितारः। यदि च विप्रत्ययस्तत्पृच्छत।
अर्थ-लव-अरे मूर्खों ! तुम लोगों ने भी वह 'काण्ड' (अश्मेध-प्रतिपादक वेद का अध्याय) पढ़ा ही है। फिर क्या तुम सैकड़ों की संख्या में कवच-दण्ड तथा तूणीरधारियों को नहीं देखते ? इसी प्रकार (सेना का) दूसरा भाग भी (सुसज्जित) दिखाई दे रहा है (अत: यह निश्चय ही 'मेध्याश्व' है ।) और यदि तुम्हें विश्वास नहीं होता तो (इन अनुयायी रक्षकों से पूछ लो ।)
लवः : ननु मूर्खा:!=अरे मूर्खों !
युष्माभिरपि =तुम लोगों ने भी
तत्काण्डम्=वह 'काण्ड' (अश्मेध-प्रतिपादक वेद का अध्याय)
पठितमेव हि=पढ़ा ही है।
किं=फिर क्या तुम
शतसंख्याः =सैकड़ों की संख्या में
प्रत्येकं =प्रत्येक
कवचिनो =कवच-
दण्डिनो=दण्ड तथा
निषङ्गिणश्च =तूणीरधारियों को
रक्षितारः=रक्षा करते हुए
न पश्यथ?=नहीं देखते ?
यदि च =और यदि
विप्रत्ययः=(तुम्हें) संदेह होता है
तत् =तो (इन अनुयायी रक्षकों से)
पृच्छत=पूछ लो ।
यौवराज्याभिषेकं -युवराज के पद पर अभिषेक चिकीर्षुः -करने के इच्छुक
कदाचित् -कभी
दर्शनार्थमागतमारुढविनयमपि -दर्शन के लिए आया हुआ और विनयशील होने पर भी उसको
विनीततरमिच्छन् कर्तुं -और विनीत करने की
शुकनासः सविस्तरमुवाच--विस्तार पूर्वक उपदेश दिया।
गद्यांश का अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-