अन्वयः-यद्यपि सर्वत्र नीरज-राजितं नीरम् अस्ति, (परन्तु) मरालस्य मानसं मानसं विना न रमते। प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य पण्डितराज जगन्नाथ द्वारा रचित तथा ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ में संकलित है, जिसमें हंस के बहाने से यह बताया गया है कि ऊँची सोच के लोगों (सज्जनों) का मन तुच्छ वस्तुओं में आनन्दित नहीं होता। सरलार्थः-यद्यपि सभी जगह कमलों से सुशोभित जल (सरोवर) होते हैं, परन्तु हंस का मन मानसरोवर के बिना कहीं नहीं रमता। भावार्थ:-सरोवरों में जल भी होता है और कमलपुष्प भी। परन्तु उन सरोवरों का जल बरसात में गन्दा हो जाता है, जबकि मानसरोवर का जल सदा ही निर्मल-स्वच्छ रहता है। अतः हंस मानसरोवर में ही क्रीड़ा करना चाहता है, साधारण सरोवरों में नहीं। यह अन्योक्ति है। जिसके द्वारा कवि यह कहना चाहता है कि ऊँची सोच के लोग तुच्छ वस्तुओं में आनन्दित नहीं होते। विशेष:-इस पद्य में ‘अनुष्टुप्’ छन्द है। ‘अन्योक्ति’ तथा ‘यमक’ अलंकार
विश्वस्मिन्नधुनान्यः कुलव्रतं पालयिष्यति कः ॥ (पण्डितराजजगन्नाथः)
प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ में संकलित है जिसके रचयिता पण्डितराज जगन्नाथ हैं। इस अन्योक्ति में हंस के माध्यम से यह बताया गया है कि यदि विद्वान् लोग ही अपने कर्तव्य का पालन नहीं करेंगे तो कौन करेगा ?
सरलार्थ:-हे हंस! यदि दूध का दूध और पानी का पानी करने में तुम ही आलसी हो जाओगे तो संसार में अब दूसरा कौन है, जो कुल-परम्परा का पालन करेगा ? अर्थात् कोई नहीं।
भावार्थ:-हंस के बारे में यह प्रसिद्ध है कि वह पानी मिले हुए दूध में से केवल दूध को ही पीता है और पानी छोड़ देता है। हंस को विद्वान् का प्रतीक माना गया है क्योंकि वह भी दूध का दूध और पानी का पानी करने में समर्थ होता है अर्थात् कर्तव्य-अकर्तव्य और सत्य-असत्य का निर्णय विद्वान् ही कर सकता है। यदि विद्वान् भी लोभ के वशीभूत होकर विवेकहीन आचरण करने लगेंगे तो संसार का मार्गदर्शन कौन करेगा ?
विशेषः-‘इस पद्य में ‘आर्या’ छन्द है तथा ‘अन्योक्ति’ अलंकार है।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च नीरक्षीरविवेके = दूध का दूध पानी का पानी करने में। हंसालस्यम् = हंस + आलस्यम्। तनुषे = विस्तृत कर रहे हो, विस्तारयसि, तिन् + आत्मनेपदे लट् मध्यमपुरुषः, एकवचनम्। विश्वस्मिन्नधुनान्यः = विश्वस्मिन् + अधुना + अन्यः ।
3.तावत् कोकिल विरसान् यापय दिवसान् वनान्तरे निवसन्।
यावन्मिलदलिमालः कोऽपि रसालः समुल्लसति ॥ (पण्डितराजजगन्नाथः)
अन्वयः-हे कोकिल वनान्तरे निवसन् तावत् विरसान् दिवसान् यापय यावत् कोऽपि मिलदलिमालः रसालः समुल्लसति।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
अन्वयः-(हे) हंस! चेत् त्वम् एव नीरक्षीरविवेके आलस्यं तनुषे (तर्हि) विश्वस्मिन् अधुना अन्यः कः कुलव्रतं पालयिष्यति।प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से लिया गया है इस पद्य के रचयिता पण्डितराज जगन्नाथ हैं। इस अन्योक्ति में कोयल के माध्यम से उचित अवसर की प्रतीक्षा करने के लिए कहा गया है।
सरलार्थ:-हे कोयल ! इस वन में निवास करते हुए तब तक रसहीन रूखे सूखे दिन व्यतीत करो। जब तक कोई आम का वृक्ष, जिस पर झुण्ड बने हुए भौरों का समूह मँडराता हुआ हो, (आम्रमंजरी से) सुशोभित होता है।
भावार्थ:-कोयल की मधुर कूक सुनने के लिए सभी के कान आतुर रहते हैं, परन्तु कोयल हर समय नहीं कूकती। वसन्त ऋतु आती है, आम के पौधे सुगन्धित आम्र-मंजरी से झूम उठते हैं। उनकी सुगन्ध से आकृष्ट होकर भौरों का समूह गुंजार करता है। कोयल कूक उठती है। यह कोयल के जीवन की स्वाभाविक घटना है, परन्तु कवि का उद्देश्य इस प्रकृति वर्णन से नहीं है, अपितु इस वर्णन के बहाने कवि कहना चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति में कोई न कोई स्वाभाविक गुण होता है। परन्तु उस गुण के प्रकट होने, फलने-फूलने के लिए उचित वातावरण की आवश्यकता होती है, जिसकी प्रतीक्षा मनुष्य को बड़े धैर्य के साथ करनी चाहिए। जैसे आम के पौधे पर बेर आने की प्रतीक्षा कोयल किया करती है और बसन्त ऋतु के आने पर जब आम का वृक्ष आम्र-मंजरी से महक उठता है तो कोयल भी अपने स्वाभाविक कूह-कूह के स्वर से सारे वातावरण को मदमस्त कर देती है।
विशेषः-प्रस्तुत पद्य में ‘आर्या’ छन्द है। अन्योक्ति’ तथा ‘अनुप्रास’ अलंकार हैं।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च विरसान् = रसरहित (शुष्क); रसरहितान्। यापय = व्यतीत करो; व्यतीतं कुरु। निवसन् = निवास करते हुए; वासं कुर्वन् नि = √वस् + शतृ। मिलदलिमालः (मिलत् + अलिमालः) = झुण्ड बनाते हुए भ्रमरों का समूह, जिस वृक्ष पर है, ऐसा वृक्ष (‘रसालः’ पद का विशेषण)। रसालः = आम का वृक्ष; आम्रपादपः। समुल्लसति = सुशोभित होता है, सुशोभते, (सम् + उत् + √लस् + लट्लकार, प्रथमपुरुष, एकवचन)।
शब्दार्थों सत्कविरिव द्वयं विद्वानपेक्षते॥ (माघः-शिशुपालवधम्)
न किञ्चिदपि कुर्वाणः सौख्यैर्दुःखान्यपोहति।
अन्वयः- यः हि यस्य प्रियः जनः, तत् तस्य किमपि द्रव्यम् (सः) किञ्चित् अपि न कुर्वाणः (उपस्थितिमात्रेण) सौख्यैः दुःखानि अपोहति।
प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से संग्रहीत है। जिसके रचयिता महाकवि माघ हैं। प्रस्तुत श्लोक में कवि ने भाग्य और पुरुषार्थ दोनों का समान रूप से आश्रय लेने की बात कही है।
सरलार्थ:-विद्वान् मनुष्य न तो भाग्य का ही सहारा लेता है और न पुरुषार्थ के भरोसे ही रहता है। वह तो दोनों का आश्रय लेता है, जिस प्रकार कोई श्रेष्ठ कवि शब्द और अर्थ दोनों का आश्रय लेकर सुन्दर कविता रचता है।
भावार्थ:-अकेले शब्द अथवा अकेले अर्थ को ध्यान में रखकर कभी भी सुन्दर कविता रची नहीं जा सकती। श्रेष्ठ कविता वही होती है जिसमें शब्द और अर्थ दोनों का सामञ्जस्य हो, कोमल अर्थ के लिए कोमल शब्दों का प्रयोग तथा कठोर अर्थ को प्रकट करने के लिए कठोर शब्दों का प्रयोग ही श्रेष्ठ कवि की पहचान है। इसी प्रकार भाग्य और पुरुषार्थ दोनों के सुन्दर सामञ्जस्य से ही जीवन सुन्दर बनता है। इसीलिए विद्वान् लोग अकेले भाग्य या अकेले पुरुषार्थ के भरोसे अपना जीवन नहीं चलाते। .
विशेषः-प्रस्तुत पद्य में ‘अनुष्टुप्’ छन्द है तथा ‘उपमा’ अलंकार है।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च दैष्टिकताम् = भाग्यत्व को; भाग्यत्वम्, निषीदति = आश्रय लेता है; अवलम्बते, पौरुषे = पुरुषार्थ/कर्म में; पुरुषार्थे। सत्कविरिव (सत्कविः + इव) = श्रेष्ठकवि की भाँति। अपेक्षते = अपेक्षा करता है, आश्रम लेता है; आश्रयते।
5.न किञ्चिदपि कुर्वाणः सौख्यैर्दुःखान्यपोहति।
तत्तस्य किमपि द्रव्यं यो हि यस्य प्रियो जनः॥ (भवभूतिः)
प्रसंगः-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से उद्धृत है, जिसके रचयिता महाकवि भवभूति हैं। इस पद्य में प्रियजन की उपस्थितिमात्र को दुःख दूर करने वाला बताया गया है।
सरलार्थ:-जो जिसका प्रियजन होता है, वह उसके लिए कोई (बहुमूल्य) वस्तु होता है। वह कुछ भी न करता . हुआ (अपनी उपस्थितिमात्र से) सुखों के द्वारा दुःखों को दूर कर देता है। भावार्थ:-प्रियजन बहुमूल्य वस्तु के समान होता है, जो अपनी उपस्थितिमात्र से ही दुःखों को दूर कर देता है।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च कुर्वाणः = करते हुए; कुर्वन् (√कृ + शानच्) । सौख्यैः = सुखों के द्वारा; सुखपूर्वकैः । अपोहति = दूर करता है; दूरीकरोति।
वृणते हि विमश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः॥ (भारविः-किरातार्जुनीयम्)
सरलार्थः-मनुष्यों को अचानक ही (बिना सोचे-विचारे) कोई कार्य नहीं करना चाहिए। क्योंकि विवेकहीनता घोर विपत्तियों का स्थान होती है। सम्पत्तियाँ गुणों की लोभी होती हैं; अतः सोच-विचार कर कार्य करने वाले मनुष्य को वे स्वयं ही चुन लेती है।
भावार्थ:-‘बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताए’ हिन्दी की इस कहावत का मूल भाव इस सूक्ति में है। मनुष्य को सोच-विचार कर ही प्रत्येक कार्य करना चाहिए। बिना सोचे-समझे कार्य करने से घोर विपत्तियों का सामना करना पड़ता है। मनुष्य सम्पत्ति पाने के लिए कार्य करता है, सम्पत्तियाँ गुणों के पीछे चलती हैं । गुणवान् मनुष्य विवेकपूर्वक कार्य करता है और सम्पत्तियाँ भी ऐसे विचारशील मनुष्य के पास स्वयं दौड़कर चली आती हैं। विशेष:-इस पद्य में ‘आर्या’ छन्द है तथा ‘अर्थान्तरन्यास’ अलंकार है।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
विदधीत = करो ; कुर्वीत, (वि उपसर्ग + √डुधाञ् (धा) विधिलिङ् प्रथम पुरुष एकवचन)। वृणते = वरण करती है ; वरणं कुर्वन्ति। विमृश्यकारिणम् = विचार कर कार्य करने वाले को ; विचिन्त्यकारिणम्।
विशेषतः सर्वविदां समाजेविभूषणं मौनमपण्डितानाम्॥(भर्तृहरिः नीतिशतकम्)
अन्वयः विधात्रा स्वायत्तम्, एकान्तगुणम्, अज्ञतायाः छादनं मौनं विनिर्मितम्। विशेषतः सर्वविदां समाजे (एतत् मौनम्) अपण्डितानां विभूषणम् (अस्ति)।
प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से संगृहीत है। इस पद्य के रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं। इस पद्य में मौन का महत्त्व बताया गया है।
सरलार्थ:-विधाता ने स्वतन्त्र, अद्वितीय गुण वाला, अज्ञान को ढकने वाला मौन नामक गुण बनाया है। विशेष रूप से विद्वानों की सभा में तो यह मौन मूल् का आभूषण बन जाता है।
भावार्थ:-‘एक चुप सो सुख’ हिन्दी की इस कहावत का मूल भाव इस पद्य में है। यह मौन अद्वितीय विशेषताओं वाला है। यह अज्ञान को ढक देता है। विद्वानों की सभा में यदि कोई मूर्ख मनुष्य बैठा हो और वह वहाँ बैठकर चुप रहे तब यह मौन उस मूर्ख का आभूषण बन जाता है और दूसरे लोग इस चुप रहने वाले मूर्ख को विद्वान् ही समझते हैं। विशेष:-इस पद्य में उपजाति छन्द है।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च स्वायत्तम् = स्वयं के अधीन ; निजाधीनम्। विधात्रा = ब्रह्मा के द्वारा ; ब्रह्मणा। छादनम् = आवरण ; आवरणम्। सर्वविदाम् = सर्वज्ञानाम् ; सर्वज्ञों के।
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धिमिदं हि महात्मनाम्॥ (भर्तृहरिः-नीतिशतकम्)
प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से संगृहीत है। इस पद्य के रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं। इस पद्य में महापुरुषों के स्वाभाविक गुणों की चर्चा की गई है। –
सरलार्थः-विपत्ति के समय धीरता, अधिक समृद्धि होने पर क्षमा (सहनशीलता) सभा में बोलने की चतुराई, संग्राम में पराक्रम, यश प्राप्त करने में इच्छा एवं वेदादिशास्त्रों में आसक्ति-ये सभी गुण महापुरुषों में स्वभाव से ही होते हैं।
भावार्थ:-महापुरुषों के ये स्वाभाविक गुण हैं कि वे विपत्ति में व्याकुल नहीं होने, उन्नति होने पर भी सब को क्षमा करते हैं, सभा में अपनी वचन-कुशलता से सबको मोहित कर लेते हैं, युद्ध में डर कर नहीं भागते, यश के लिए प्रयत्नशील रहते हैं तथा ज्ञान अर्जित करने में निरन्तर प्रवृत्त रहते हैं। विशेष:-इस पद्य में द्रुतविलम्बित छन्द है।।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च अभ्युदये = उन्नति में ; उन्नतौ (अभि + उदये, यण् सन्धि)। सदसि = सभा में ; सभायाम् (सदस् शब्द नपुंसकलिंग सप्तमी विभक्ति एकवचन)। वाक्पटुता = वाणी में कुशलता ; वाचि पटुता, युधि = युद्ध में ; युद्धे।
9.पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्यं निगृहति गुणान् प्रकटीकरोति।
अन्वयः-पापात् निवारयति, हिताय योजयते, गुह्यं निगृहति, गुणान् प्रकटीकरोति, आपद्गतं च न जहाति, काले ददाति। सन्तः इदं सन्मित्रलक्षणं प्रवदन्ति।
प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से संगृहीत है। इस पद्य के रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं। इस . पद्य में श्रेष्ठ मित्र के लक्षण बताए गए हैं।
सरलार्थः-जो पाप करने से मित्र को रोकता है, हितकर्म (अच्छे काम) में लगाता है, मित्र की गुप्त बात को छिपाता है, उसके गुणों को प्रकट कर देता है, आपत्ति में पड़े हुए को भी नहीं छोड़ता, समय पड़ने पर (धन आदि से) सहायता प्रदान करता है। सज्जन लोग इसे ही अच्छे मित्र का लक्षण बतलाते हैं।
भावार्थ:-सुमित्र वही है जो मित्र को हानिकारक कर्म से हटाकर कल्याण मार्ग में लगाए, उसके दोषों को छिपाकर गुणों को प्रकाशित करे, विपत्ति में भी उसका साथ न छोड़े तथा यथाशक्ति धनादि से उसकी सहायता करे।
विशेषः- इस पद्य में वसन्ततिलका छन्द है।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च निवारयति = रोकता है। गुह्यम् = गुप्त बात। योजयते = लगाता है। आपद्गतम् = आपत्ति में पड़ा हुआ। जहाति = छोड़ता है; त्यजति। काले = समय पड़ने पर। निगृहति = छिपाता, आच्छादयति। प्रवदन्ति = कहते हैं।
10.मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः
त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः।
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं,
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः॥ (भर्तृहरिः-नीतिशतकम्)
अन्वयः-मनसि वचसि काये पूण्यपीयूषपूर्णाः, उपकारश्रेणिभिः त्रिभुवनं प्रीणयन्तः परगुण-परमाणून् पर्वतीकृत्य निजहदि विकसन्तः कियन्तः सन्तः सन्ति ?
प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से संगृहीत है। इस पद्य के रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं। इस पद्य में बताया गया है कि दूसरों के छोटे से गुण को अपने हृदय में ग्रहण करके उसका बहुत अधिक विस्तार करने वाले लोग बहुत कम होते है।
सरलार्थ:-जिनके मन, वाणी और शरीर में पुण्य रूपी अमृत भरा हो, जो अपने उपकारों से तीनों लोकों को प्रसन्न करते हों और दूसरों के परमाणु-समान अति सूक्ष्म गुणों को सदा पर्वत के समान बहुत बढ़ा-चढ़ा कर अपने हृदय में उनका विकास करते हों, ऐसे सज्जन इस संसार में कितने हैं अर्थात् ऐसे लोग विरले ही होते हैं।
भावार्थ:-सत्पुरुष अपने तन, मन और वचन से सदा परोपकार में लगे रहते हैं। वे दूसरे मनुष्यों के छोटे से छोटे गुण को भी अपने हृदय में धारण कर उसे पर्वत के समान अति विस्तृत रूप देकर बड़े सन्तुष्ट रहते हैं। ऐसे पुरुषरत्न धरती पर विरले ही होते हैं। विशेषः-इस पद्य में ‘मालिनी’ छन्द है।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च वचसि = वाणी में ; वाचि (वचस्-सप्तमी विभक्ति एकवचन)। प्रीणयन्तः = प्रसन्न करते हुए ; प्रसन्नं कुर्वन्तः। परगुणपरमाणून् = दूसरों के अति सूक्ष्मगुणों को ; अन्येषाम् अतिसूक्ष्मान् गुणान्। पर्वतीकृत्य = बढ़ा-चढ़ा कर ; विशालतां नीत्वा। हृदि = हृदय में ; हृदये (हृत् शब्द सप्तमी विभक्ति एकवचन)। विकसन्तः = खिलते हुए ; विकासं कुर्वन्तः। सन्तः = सज्जन ; विकासं कुर्वन्तः (‘सत्’ शब्द प्रथमा विभक्ति बहुवचन)।
वाण्येका समलड्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते,
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्॥ (भर्तृहरिः नीतिशतकम्)
अन्वयः-पुरुषं केयूराणि न भूषयन्ति । न चन्द्रोज्ज्वला: हाराः (भूषयन्ति)। न स्नानम्, न विलेपनम्, न कुसुमम्, न अलंकृताः मूर्धजा: भूषयन्ति । एका वाणी या संस्कृता धार्यते (सा एव) पुरुषं समलकरोति। भूषणानि खलु सततं क्षीयन्ते, वाग्भूषणं भूषणम्।
सरलार्थः-मनुष्य को बाजू-बन्ध सुशोभित नहीं करते हैं। चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हार भी सुशोभित नहीं करते। न स्नान करने से, न चन्दन आदि का लेप करने से, न पुष्पमाला धारण करने से और न ही सिर के सजे-धजे बालों से मनुष्य शोभायमान होता है। एक वाणी ही, जो संस्कारपूर्वक (सभ्यतापूर्ण ढंग से) धारण की गई हो, मनुष्य को सुशोभित करती है। संसार के अन्य सभी आभूषण समय के प्रवाह से नष्ट हो जाते हैं, केवल वाणी का आभूषण ही सच्चा आभूषण है, जो सदा बना रहता है।
भावार्थः-शरीर के बाह्य आभूषण मनुष्य की थोड़ी देर के लिए ही शोभा बन पाते हैं। बाद में ये आभूषण नष्ट हो जाते हैं। परन्तु शिष्टाचार पूर्ण सुसंस्कृत वाणी सदैव मनुष्य की शोभा बढ़ाती रहती है, इसीलिए वाणी को ही सच्चा आभूषण कहा गया है। विशेषः-‘इस पद्य में ‘शार्दूलविक्रीडित’ छन्द है।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
केयूराणि = बाजूबन्ध, भुजबन्ध ; विशिष्टाभूषणानि। मूर्धजाः = सिर के बाल ; केशाः । क्षीयन्ते = नष्ट हो जाते हैं ; विनश्यन्ते। संस्कृता = शुद्ध, परिष्कृत, संस्कारयुक्त, शिष्टाचारपूर्ण।
12.यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा,
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः।
भावार्थ:-कवि भर्तृहरि के कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य को आत्मकल्याण के लिए युवा अवस्था में ही प्रयत्न करना चाहिए। बुढ़ापा आने पर तो शरीर ही साथ नहीं देता, उसकी सारी शक्ति क्षीण हो जाती है। फिर अध्यात्मसाधना नहीं हो सकती। जो लोग बुढ़ापा आने पर प्रभु भजन का प्रयास करते हैं, वे तो मानो ऐसे प्रयास में लगे हैं जैसे घर में आग लग जाने पर कोई मूर्ख मनुष्य पानी के लिए कुआँ खोदने का प्रयास करता है। विशेष:-इस पद्य में ‘शार्दूलविक्रीडित’ छन्द है।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च कलेवरगृहम् = शरीर ; शरीरम् एव गृहम् (कर्मधारय समास)। जरा = बुढ़ापा ; वृद्धत्वम्। प्रोद्दीप्ते = जलने पर ; प्रज्ज्वलिते। उद्यमः = मेहनत ; परिश्रम।( 1 ) संस्कृतभाषाया प्रश्नोत्तराणि लिखत ।
उत्तर – सर्वत्र नीरजराजितम् नीरम् अस्ति ।
( ख ) मरालस्य मानसं कं विना न रमते ?
उत्तर – मरालस्य मानसं मानसं ( मानसरोवर ) विना न रमते ।
( ग ) विद्वान् कम् अपेक्षते ?
उत्तर – विद्वान् दैष्टिकतां अपेक्षते ।
( घ ) सत्कवि: कौ द्वौ अपेक्षते ?
उत्तर – सत्कविः शब्दार्थो द्वौ अपेक्षते ।
(ङ) यः यस्य प्रियः सः तस्य कृते किं भवति ?
उत्तर – यः यस्य प्रियः सः तस्य कृते जना: भवति ।
( च ) सहसा किम् न विदधीत् ?
उत्तर – सहसा क्रियाम् न विदधीत् ।
( छ ) विधात्रा किं विनिर्मितम् ?
उत्तर – विधात्रा धादनमज्ञताया: विनिर्मितम् ।
( ज ) अपण्डितानां विभूषणं किम् ?
उत्तर – अपण्डितानां विभूषणं मौनम् ।
( झ) महात्मानां प्रकृतिसिद्धं किं भवति ?
उत्तर – विपत्तिधैर्यम् , अभअभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता, युद्धिविक्रम:, यशसि अभिरुचि, व्यर्सनम् श्रुतो इदं महात्मानाम् प्रकृतिसिद्धम् भवति।
( ञ) पायात् कः निवारयति ?
उत्तर – पायात् सन्मित्रलक्षणं निवारयति ।
( ट ) सन्तः कान पर्वतीकुविन्ति ?
उत्तर – सन्तः परगुणपरमाणून पवतीकुर्वन्ति ।
(ठ) कीदृशं भूषणं न क्षीयते ?
उत्तर – वाग्भूषणम् भूषणं न क्षीयते ।
( ड ) कूपरवननं कदा न उचितम् ?
उत्तर – कूपरवननं भवने प्रदीप्ते न उचितम् ।
(2) अधोलिखितपद्यांशानां सप्रसङ्गं हिन्दीभाषाया व्याख्या विधेया ।
( क ) वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धा: स्वयमेव सम्पदः ।
व्याख्या – प्रस्तुत पंक्ति हमारी संस्कृत पाठ्य पुस्तक शाश्वती भाग दो के षष्ठ पाठ सूक्ति सुधा – से श्लोक संख्या छ: महाकवि भारवि द्वारा रचित किरातार्जुनीयमहाकाव्यम् से लिया गया है। सूक्ति का अर्थ सुन्दर वचन और सुधा का अर्थ है अमृत यानि सूक्तिसुधा का अर्थ सुन्दर वचन रूपी अमृत ।
पद्य के अनुसार अर्थ यह यह स्पस्ट होता है कि निश्चय ही गुणों की लोभी सम्पत्ति पर विचार विमर्श करने वाले मनुष्यों को अपने आप चुन लेती है जो व्यक्ति सहजता से सोच समझकर विचार करके अपना काम करते है लक्ष्मी स्वयं ही उनका चुनाव कर लेती है।
( ख ) क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ।
व्याख्या – प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्य पुस्तक शाश्वती भाग दो के षष्ठ पाठ सुक्तिसुधा से श्लोक संख्या ग्यारह के रचयिता महकवि भर्तृहरि द्वारा लिया गया है । सूक्तिसुधा का अर्थ है अमृत रूपी वचन ।
पद्य के अनुसार अर्थ यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि किसी भी पुरष को आभूषण शोभा नहीं देता है । एक मात्र वाणी ही जो पुरुष को सुशोभित करता है । वाणी संस्कारों से धारण की जा सकती है। बाकी जो आभूषण सारी नस्ट होने वाले होते है । पुरुष के लिए एक मात्र वाणी रुपी आभूषण ही सदा बना रहता है।
( ग ) प्रोदीप्ते भवने च कूपरवननं प्रत्युद्यम: कीदृशः ?
व्याख्या – प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्य पुस्तक शाश्वती भाग दो के षष्ठ पाठ सूक्तिसुधा से श्लोक संख्या बारह के रचयिता महाकवि भर्त्तृहरि द्वारा लिया गया है। सूक्तिसुधा का अर्थ है सुन्दर वचन रूपी अमृत ।
पद्य के अनुसार अर्थ यह स्पष्ट होता है कि विद्वान को आत्म कल्याण के लिए महान प्रयत्न करना चाहिए । क्योंकि भवन में आग लगने पर कुंए खोदने का परिश्रम व्यर्थक होता है। इसलिए किसी भी व्यक्ति को समय रहते ही कार्य कर लेना आवश्यक होता है।
( 3 ) रिक्तस्थानपूर्तिः करणीया ।
क . सत्कविरिव विद्वान् शब्दार्थो द्वय अपेक्षते ।
ख . सन्तः सन्मित्रलक्षणम् प्रवदन्ति ।
( 4 ) निम्नलिखित श्लोकयो: अन्वयं लिखत ।
क . नीरक्षीरविवेके हंसालस्यं त्वमेव तनुषे चेत् ।
विश्वस्मिन्नधुनान्यः कुलव्रतं पालयिष्यति कः । ।
अन्वय: – नीरक्षीरविवेके त्वमेव चेत् हंसालस्य तनुषे विश्वस्मिन्नधुनान्यः कः कुलव्रतं पालयिष्यति ।
ख .विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः ।
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम्। ।
अन्वयः – विपति धैर्यम् अथ अभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः यशसि च अभिरुचि र्व्यसनम् श्रुतौ हि प्रकृतिसिद्धम् महात्मानाम् ।
( 5 ) निम्नलिखितशब्दानां अर्थं लिखित्वा वाक्य प्रयोगं कुरुत ।
नीरजम् – ( कमल ) सर्वत्रा नीरं नीरज – राजितम् ।
रसालः – (आम का पेड़ ) वनान्तरे रसालः समुल्लसति ।
पौरुषः – ( पुरुषार्थ के भरोसे ) पौरुषे निषीदति ।
विमृश्यकारिण: – ( विचार विमर्श करने वाले ) सः विमृश्यकारिणं अस्ति ।
जरा – ( बुढ़ापा )
(6) निम्नलिखितशब्दानां सार्थकं मेलनं क्रियताम् ।
क . मरालस्य——– IV . हंसस्य
ख . अवलम्बते—— i . आश्रयते
ग . अधुना———- V . साम्प्रतम्
घ . विधात्रा——– i i . व्राह्मण
ङ . पर्वतीकृत्य—– i i i . विशदीकृत्य
च . नीरजं———– V i i i कमलम्
छ . रसालः——— V i आम्रः
ज . सम्पदः——– Vi i विभूतयः
झ . यशसि——— i x कीर्त्तौ
( 7 ) अधों लिखितशब्दानां पठात् विलोमपदं चित्वा लिखत ।
क . मूर्खः———- विद्वान
ख . अप्रियः——- प्रियः
ग. पुण्यात्——– पापात्
घ . यौवनम्——- जराः
ङ . उपेक्षते——– अपेक्षते
(8) सन्धिविच्छेद: क्रियताम् ।
( क ) नालम्बते – न + अवलम्बते
( ख) विश्वस्मिन्नधुनान्यः – विश्वस्मिन् + अधुना + अन्यः
( ग ) कोऽपि – कः + अपि
( घ ) चाभिरुचिर्व्यसनं – च + अभिरुचि + व्यसनम्
( ङ) चन्द्रोज्ज्वला: – चन्द्र + उज्ज्वलाः
( 9 ) अ . – अधोलिखितशब्दानां समास विग्रहः कार्यः ।
क . अलिमाल: – अलिनां माला यस्मिन सः – बहुब्रीहि समास
ख . वाक्पटुता – वाचि पटुता – सप्तमी तत्पुरुष समास
ग . चन्द्रोज्ज्वला – चन्द्र इव उज्ज्वला: ये ते – बहुब्रीहि समास
घ . अप्रतिहता – न प्रतिहता – नञ् तत्पुरुष समास
ङ . वाग्भूषणम् – वाग् एव भूषणं – कर्मधारय समास
( आ ) अधोलिखित – विग्रहपदानां समस्तपदानि रचयत् ।
कुलस्य व्रतं – कुलव्रतम्
क . वनस्य अन्तरे – वनान्तरे
ख . गुणानां लुब्धा – गुणलुब्धा:
ग . प्रकृत्या सिद्धम् – प्रकृतिसिद्ध
घ . उपकारस्य श्रेणिभिः – उपकारश्रेणिभि:,
ङ . आत्मनः श्रेयसि – आत्मश्रेयसि
( 10 ) अधोलिखितशब्देषु प्रकृतिप्रत्ययानां विभागः करणीयः ।
यथा – राजितम् – राज +क्त
क . दैस्टिकतां – दैस्टिक + तल्
ख . कुर्वाणः _ कृ + शानच्
ग . पटुता – पटु + तल्
घ . सिद्धम् – सिध् + क्त
ङ . विमृश्य – वि + मृश + ल्यप्
( 11 ) अधोलिखितश्लोकेषु छन्दो निदिश्यताम् ।
यथा – अस्ति यद्यपि …………. I l अनुष्टुप छन्दः
क . तावत कोकिल ……. समुल्लसति – आर्या छन्दः ।
ख . स्वायत्तमेकान्त …… मौनमपण्डितानाम् – उपजाति छन्दः ।
ग . विपदि धैर्यमथा …… महात्मनाम् –
घ. पापान्निवारयति …..प्रवदन्ति सन्तः – वसन्ततिलका छन्दः ।
ङ . केयूराणि न ……. भूषणम् – शाईलविक्रीडितं छन्दः ।
( 12 ) अधोलिखितपङ्क्तिषु कोऽलङ्कार: लिख्यताम् ।
क . शब्दार्थो सत्कविरिव द्वयं विद्वानपेक्षते – उपमा
ख . वाग्भूषणं भूषणम् – रुपक
ग . निजहृदि विकसन्त: सन्ति: कियन्त: – अनुप्रास
घ . रमते न मरालस्य मानसं मानसं विना – यमक
ङ . यावन्मिलदलिमाल: कोऽपि रसालः समुल्लसति – अनुप्रास