जेसीईआरटी तथा एनसीईआरटी के कक्षा-12 के संस्कृत पाठ्यपुस्तक-शाश्वती भाग 2 के सप्तमः पाठ: विक्रमस्यौदार्यम् का शब्दार्थ सहित हिन्दी अनुवाद एवं भावार्थ तथा उस पर आधारित प्रश्नोत्तर सीबीएसई सत्र-2023-2024 के लिए यहाँ दिए गए हैं।यहाँ दिए गए हिंदी अनुवाद तथा भावार्थ की मदद से विद्यार्थी पूरे पाठ को आसानी से समझकर अभ्यास के प्रश्नों को स्वयं कर सकते हैं।
"सिंहासनद्वात्रिंशिका" बत्तीस मनोरञ्जक कथाओं का संग्रह है। इसके केवल गद्यमय, केवल पद्यमय, गद्य-पद्यमय, ये तीन पाठ पाये जाते हैं। संग्रह में स्थित प्रत्येक कथा धारा नगरी के राजा भोज को सुनायी गयी है। अतः इस ग्रन्थ का समय राजा भोज ( 1018-1063) के अनन्तर ही माना जाता है।
एक टीले की खुदाई करने पर राजा भोज को एक सिंहासन मिला। वह सिंहासन राजा विक्रमादित्य का था। शुभ मुहूर्त में राजा भोज उस सिंहासन पर बैठना चाहता है तो सिंहासन में बनो 32 पुत्तलिकाओं में से प्रत्येक पुत्तलिका राजा विक्रमादित्य के गुणों तथा पराक्रम की एक-एक कथा सुनाकर राजा को सिंहासन पर बैठने से पुनःपुनः रोकती है। प्रत्येक पुत्तलिका ने राजा से यही प्रश्न किया कि 'क्या तुममें विक्रम जैसा गुण है? यदि है तो इस सिंहासन पर बैठ सकते हो अन्यथा नहीं।'
प्रस्तुत पाठ उपर्युक्त ‘सिंहासनद्वात्रिंशिका' से ही उद्धृत है। इसमें बताया गया है कि किस प्रकार राजा विक्रम को यह संसार असार प्रतीत होता है। अपने औदार्यवश वे सम्पूर्ण राजकोष को दान करना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने 'सर्वस्वदक्षिणयज्ञ' का अनुष्ठान किया। उस यज्ञ में सब कुछ परित्याग कर दिया । यहाँ तक कि समुद्र की ओर से प्रदान किये गये अद्वितीय चार रत्न भी ब्राह्मण को प्रदान कर दिये। इस प्रकार से विक्रम ने अत्यधिक उदारता का परिचय दिया।
पुनरपि राजा सिंहासने समुपवेष्टुं गच्छति । ततोऽन्या पुत्तलिका समवदत् “भो राजन्, एतत्सिंहासने तेनैव अध्यासितव्यं यस्य विक्रमतुल्यम् औदार्यमस्ति ।” भोजेनोक्तम् भो पुत्तलिके, कथय तस्यौदार्यम्।” सा वदति, “राजन् यस्त्वर्थिनां पूरयति, तस्येप्सितं देवः सम्पादयति ।" यच्चोक्तम्-
हिन्दी अनुवादः –राजा फिर भी सिंहासन पर बैठने के लिए जाता है। तभी दूसरी पुत्तलिका कहती है-“हे राजन् ! इस सिंहासन पर उसे ही बैठना चाहिए, जिसकी उदारता राजा विक्रम के समान है।” भोज ने कहा- “हे पुत्तलिके ! उसकी उदारता के विषय में बताओ।” वह बोली-“राजन् ! जो याचकों की (याचना) पूर्ण करता है, देव (विक्रम) उसकी इच्छा पूर्ण करते हैं।” और जैसा कि कहा भी गया है।
उत्साहसम्पन्नमदीर्घसूत्रं क्रियाविधिज्ञं व्यसनेष्वसक्तम् ।
शूरं कृतज्ञं दृढनिश्चयं च लक्ष्मीः स्वयं वाञ्छति वासहेतोः॥
हिन्दी अनुवादः –जो मनुष्य उत्साहयुक्त, निरर्थक लम्बी योजनाएँ न बनाने वाला, क्रियाविधि का ज्ञाता, व्यसनों से दूर, शूरवीर, कृतज्ञ तथा दृढनिश्चयी होता है-ऐसे मनुष्य के पास लक्ष्मी स्वयं निवास करना चाहती है।
एवं सकलगुणनिवासः स विक्रमो राजा एकदा स्वमनस्यचिन्तयत्- 'अहो असारोऽयं संसार:, कदा कस्य किं भविष्यतीति न ज्ञायते । यच्चोपार्जितानां वित्तं तदपि दानभोगैर्विना सफलं न भवति ।
हिन्दी अनुवादः –इस प्रकार सभी गुणों से सम्पन्न उस राजा विक्रम ने एक बार अपने मन में विचार किया-“अहो, यह संसार सारहीन है, कब किसका क्या होगा-यह पता ही नहीं चलता। और जो धनवानों का धन है, वह भी दान-भोग के बिना सफल नहीं होता।
तथा चोक्तम्-
उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम् ।
तटाकोदरसंस्थानां परीवाह इवाम्भसाम् ॥
हिन्दी अनुवादः –और कहा भी है-”इकट्ठे किए गए धन की रक्षा उस धन का त्याग ही है। जिस प्रकार तालाब की गहराई में स्थित जल की रक्षा उसका निकास ही होता है।
अपि च
दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयो न कर्त्तव्यः ।
पश्येह मधुकरीणां सञ्चितमर्थं हरन्त्यन्ये ॥
हिन्दी अनुवादः – और भी- धन का दान करना चाहिए, धन का भोग करना चाहिए, परन्तु धन का सञ्चय कदापि नहीं करना चाहिए। देखो, इस संसार में मधुमक्खियों द्वारा सञ्चित किए गए धन (मधु/शहद) को दूसरे लोग ही हर लेते हैं।
इत्येवं विचार्य सर्वस्वदक्षिणं यज्ञं कर्त्तुमुपक्रान्तवान् । ततः शिल्पिभिरतीव मनोहरो मण्डपः कारितः। सर्वापि यज्ञसामग्री समहृता । देवमुनिगन्धर्वयक्षसिद्धादयश्च समाहूताः । तस्मिन्नवसरे समुद्राह्वानार्थं कश्चिद्ब्राह्मणः समुद्रतीरे प्रेषितः । सोऽपि समुद्रतीरं गत्वा गन्धपुष्पादिषोडशोपचारं विधायाब्रवीत् “भोः समुद्र ! विक्रमार्को राजा यज्ञं करोति । तेन प्रेषितोऽहं त्वामाह्वातुं समागतः ।" इति जलमध्ये पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा क्षणं स्थितः । कोऽपि तस्य प्रत्युत्तरं न ददौ । तत उज्जयिनीं यावत्प्रत्यागच्छति तावद्देदीप्यमानशरीरः समुद्रो ब्राह्मणरूपी सन् तमागत्यावदत् “भो ब्राह्मण, विक्रमेणास्मानाह्वातुं प्रेषितस्त्वं, तर्हि तेन यास्माकं सम्भावना कृता सा प्राप्तैव । एतदेव सुहृदो लक्षणं यत्समये दानमानादि क्रियते ।
हिन्दी अनुवादः –यही विचार कर सर्वस्वदक्षिणा यज्ञ करना आरम्भ कर दिया। तब शिल्पियों से बहुत ही मनोहर मण्डप तैयार करवाया। सभी यज्ञसामग्री इकट्ठी की गई। देव, मुनि, गन्धर्व, यक्ष, सिद्ध आदि आमन्त्रित किए गए। उसी अवसर पर समुद्र को बुलाने के लिए किसी ब्राह्मण को समुद्र के तट पर भेजा गया। वह भी समुद्र तट पर जाकर गन्ध, पुष्प आदि षोडशोपचार (पूजा) करके कहने लगा- “हे समुद्र ! राजा विक्रमादित्य यज्ञ कर रहे हैं। उनके द्वारा भेजा गया मैं आपको बुलाने के लिए आया हूँ।” इस प्रकार जल के बीच पुष्पाञ्जलि समर्पित कर क्षण भर के लिए ठहर गया। उसके निवेदन का उत्तर किसी ने भी नहीं दिया। फिर जैसे ही वह उज्जयिनी की ओर लौट रहा था तभी देदीप्यमान शरीर वाला समुद्र ब्राह्मण का रूप धारण कर उसके पास आकर कहने लगा- “हे ब्राह्मण! राजा विक्रमादित्य ने हमें आमन्त्रित करने के लिए तुम्हें भेजा है। तो उन्होंने जो हमारा आदर-मान किया, वह प्राप्त हो गया। यही मित्र की पहचान होती है कि समय पर दान-मान आदि किया जाए।”
" उक्तं च-
ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति ।
भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम् ॥
हिन्दी-अनुवादः- और कहा भी हैदेना, लेना, गोपनीय बात करना, गोपनीय बात पूछना, भोजन करना और भोजन करवाना–यह छः प्रकार का प्रीति का लक्षण होता है। ..
दूरस्थितानां मैत्री नश्यति समीपस्थानां वर्धते इति न वाच्यम्।
हिन्दी-अनुवादः- दूर रहने वालों की मित्रता नष्ट हो जाती है और समीप रहने वालों की मित्रता बढ़ती है-यह बात कहने योग्य नहीं है अर्थात् उचित नहीं है।
गिरौ कलापी गगने पयोदो लक्षान्तरेऽर्कश्च जले च पद्मम्।
इन्दुर्द्विलक्षे कुमुदस्य बन्धुर्यो यस्य मित्रं न हि तस्य दूरम् ॥
हिन्दी-अनुवादः- पर्वत पर मयूर और आकाश में बादल, लाखों योजन दूर सूर्य और (सरोवर के) जल में कमल-एक दूसरे के मित्र हैं। बहुत दूरी होने पर भी चन्द्रमा कमलिनी का मित्र है। जो जिसका मित्र होता है, वह उससे दूर नहीं होता।
तस्मै राज्ञे व्ययार्थं रत्नचतुष्टयं दास्यामि। एतेषां महात्म्यम् एकं रत्नं यद्वस्तु स्मर्यते तद्ददाति। द्वितीयरत्नेन भोजनादिकममृततुल्यमुत्पद्यते। तृतीयरत्नाच्चतुरङ्गबलं भवति । चतुर्थाद्रनाद्दिव्याभरणानि जायन्ते । तदेतानि रत्नानि गृहीत्वा राज्ञो हस्ते प्रयच्छेति । ततो ब्राह्मणस्तानि रत्नानि गृहीत्वा उज्जयिनीं यावदागतस्तावद्यज्ञसमाप्तिर्जाता। राजावभृथस्नानं कृत्वा सर्वानर्थिजनान् परिपूर्णमनोरथानकरोत्। ब्राह्मणो राजानं दृष्ट्वा रत्नान्यर्पयित्वा प्रत्येकं तेषां गुणकथनमकथयत् ।
हिन्दी-अनुवादः-(मैं समुद्र) उस राजा को खर्च करने के लिए चार रत्न समर्पित करूँगा। इन रत्नों का महात्म्य यह है-एक रत्न जो वस्तु याद की जाए वही प्रदान करता है। दूसरा अमृत के समान भोजन आदि पैदा करता है। तीसरे रत्न से चतुरंगिणी सेना पैदा हो जाती है। चौथे रत्न से दिव्य वस्त्र-आभूषण पैदा होते हैं। तो ये रत्न लेकर राजा के हाथ में दे देना। तत्पश्चात् ब्राह्मण उन रत्नों को लेकर जैसे ही उज्जयिनी आया तभी यज्ञ की समाप्ति हो गई। राजा ने अवभृथ स्नान करके सभी याचकों को पूर्ण मनोरथ वाला कर दिया। ब्राह्मण ने राजा का दर्शन कर रत्नों को समर्पित करके उनमें से प्रत्येक का गुणवर्णन किया।
ततो राजावदत्, “भो ब्राह्मण! भवान् यज्ञदक्षिणाकालं व्यतिक्रम्य समागतः । मया सर्वोऽपि ब्राह्मणसमूहो दक्षिणया तोषितः । तर्हि त्वमेतेषां रत्नानां मध्ये यत्तुभ्यं रोचते तद्गृहाणेति । ब्राह्मणेनोक्तम्, 'गृहं गत्वा गृहिणीं, पुत्रं, स्नुषां च पृष्ट्वा सर्वेभ्यो यद्रोचते तद्ग्रहीष्यामीति ।' राज्ञोक्तं 'तथा कुरु।' ब्राह्मणोऽपि स्वगृहमागत्य सर्वं वृत्तान्तं तेषामग्रेऽकथयत् । पुत्रेणोक्तं 'यद्रलं चतुरङ्गबलं ददाति तद्ग्रहीष्यामः । यतः सुखेन राज्यं कर्त्तुमर्हिष्यामः ।' पित्रोक्तं 'बुद्धिमताराज्यं न प्रार्थनीयम् ।' पुनः पिता वदति 'यस्माद्धनं लभते तद् गृहाण। धनेन सर्वमपि लभ्यते।' भार्ययोक्तं 'यद्रत्नं षड्रसान् सूते तद्गृह्यताम्। सर्वेषां प्राणिनामन्नेनैव प्राणधारणं भवति।' स्नुषयोक्तं 'यद्रत्नं रत्नाभरणादिकं सूते तद् ग्राह्यम्।'
हिन्दी-अनुवादः- तब राजा ने कहा- “हे ब्राह्मण! आप यज्ञ-दक्षिणा का समय निकल जाने पर आए हैं। मैंने समस्त ब्राह्मण समूह को दक्षिणा द्वारा सन्तुष्ट कर दिया। तो इन रत्नों में से जो तुम्हें अच्छा लगता है, वह ले लो। घर जाकर पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू से पूछकर सभी को जो अच्छा लगता है, वही ले लूँगा। राजा ने कहा-“ऐसा ही करो।” ब्राह्मण ने भी अपने घर आकर सब समाचार उनके सामने कहा। पुत्र ने कहा-“जो रत्न चतुरंगिणी सेना देता है, वही रत्न लेंगे। जिससे सुखपूर्वक राज्य करने में समर्थ होंगे।” पिता ने कहा-“बुद्धिमान् मनुष्य को राज्य की इच्छा नहीं करनी चाहिए।” फिर पिता ने कहा-“जिस रत्न से धन मिलता है, वही रत्न लो। धन से सब कुछ मिल जाता है।” पत्नी ने कहा-“जो रत्न छः रसों (वाले भोजन) को पैदा करता है, वही रत्न ले लो। सभी प्राणियों का प्राणधारण (जीवन) अन्न से ही चलता है।” पुत्रवधू ने कहा-“जो रत्न वस्त्र-गहने आदि पैदा करता है, वही रत्न लेना चाहिए।”
एवं चतुर्णां परस्परं विवादो लग्नः । ततो ब्राह्मणो राजसमीपमागत्य चतुर्णां विवादवृत्तान्तमकथयत्। राजापि तच्छ्रुत्वा तस्मै ब्राह्मणाय चत्वार्यपि रत्नानि ददौ। इति कथा कथयित्वा पुत्तलिका राजानमवदत्, 'भो राजन्, त्वय्येवंविध- सहजमौदार्यं विद्यते चेदस्मिन् सिंहासने समुपविश।' तच्छ्रुत्वा राजा तूष्णीमासीत् ।
हिन्दी-अनुवादः इस प्रकार चारों में झगड़ा हो गया। तब ब्राह्मण ने राजा के पास आकर चारों का विवाद-समाचार कह दिया। राजा ने भी उसे सुनकर उस ब्राह्मण को चारों ही रत्न प्रदान कर दिए। यह कथा कहकर पुत्तलिका ने राजा (भोज) को कहा-“हे राजन् आप में इस प्रकार की स्वाभाविक उदारता है तो इस सिंहासन पर बैठ जाओ।” यह सुनकर राजा (भोज) चुप हो गया।
1. संस्कृतभाषया उत्तरत
(क) विक्रमस्यौदार्यम् पाठः कस्मात् ग्रन्थात् सङ्कलितः ?
(ख) उपार्जितानां वित्तानां रक्षणं कथं भवति ?
(ग) धनविषये कीदृशः व्यवहारः कर्तव्यः ?
(घ) जलमध्ये पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा क्षणं कः स्थितः ?
(ङ) समुद्रः राज्ञे किमर्थं रत्नचतुष्टयं दत्तवान् ?
(च) द्वितीयरत्नेन किम् उत्पद्यते ?
(छ) प्रीतिलक्षणम् कतिविधं भवति ?
उत्तरम्
(क) ‘विक्रमस्यौदार्यम्’ पाठः ‘सिंहासनद्वात्रिंशिका’ ग्रन्थात् सङ्कलितः।
(ख) उपार्जितानां वित्तानां रक्षणं त्यागेन भवति।
(ग) धनविषये दानभोगैः व्यवहारः कर्तव्यः।
(घ) जलमध्ये पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा क्षणं ब्राह्मणः स्थितः ।
(ङ) समुद्रः राज्ञे व्ययार्थं रत्नचतुष्टयं दत्तवान्।
(च) द्वितीयरत्नेन अमृततुल्यं भोजनादिकम् उत्पद्यते।
(छ) प्रीतिलक्षणं षड्विधं भवति।
2. रिक्तस्थानानि पूरयत
(क) उपार्जितानां वित्तानां …………….. हि रक्षणम्।
(ख) दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये …………….. न कर्तव्यः ।
(ग) ततः शिल्पिभिरतीव …………….. मण्डपः कारितः ।
(घ) भो समुद्र ! …………….. यज्ञं करोति।
(ङ) तस्मै राज्ञे व्ययार्थं …………….. दास्यामि।
(च) यद्रत्नं चतुरङ्गबलं …………….. तद् ग्रहीष्यामः ।
(छ) सर्वेषां प्राणिनामनेनैव …………….. भवति।
उत्तरम्
(क) उपार्जितानां वित्तानां त्यागः हि रक्षणम्।
(ख) दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयः न कर्तव्यः ।
(ग) तत: शिल्पिभिरतीव मनोहरः मण्डपः कारितः।
(घ) भो समुद्र ! विक्रमार्कः राजा यज्ञं करोति।
(ङ) तस्मै राज्ञे व्ययार्थं रत्नचतुष्टयं दास्यामि।
(च) यद्रत्नं चतुरङ्गबलं ददाति तद् ग्रहीष्यामः ।
(छ) सर्वेषां प्राणिनामनेनैव प्राणधारणं भवति।
3. अधोलिखितानां पदानां वाक्येषु प्रयोगं कुरुत
वित्तानाम्, शिल्पिभिः, गिरौ, एतेषाम्, दातव्यम्, रोचते।
उत्तरम्:
(वाक्यप्रयोगः)
(क) वित्तानाम्-वित्तानां दानभोमैः रक्षणं कर्तव्यम्।
(ख) शिल्पिभिः-शिल्पिभिः मनोहर: मण्डपः कृतः।
(ग) गिरौ-गिरौ मयूरः नृत्यति।।
(घ) एतेषाम्-एतेषां याचना अवश्यं पूरणीया।
(ङ) दातव्यम्-यत् यस्मै रोचते तत् तस्मै दातव्यम्।
(च) रोचते-मह्यं पठनं रोचते।
4. प्रकृतिप्रत्ययविभागः क्रियताम्
उपक्रान्तवान्, विधाय, गत्वा, गृहीत्वा, स्थितः, व्यतिक्रम्य, दातव्यम्।
उत्तरम्
उपसर्ग + प्रकृति + प्रत्यय
(क) उपक्रान्तवान् – उप + √क्रम् + क्तवतु (पुं०, प्रथमा एकवचनम्)
(ख) विधाय । -वि + √धा + ल्यप् (अव्ययपदम्)
(ग) गत्वा – √गम् + क्त्वा (अव्ययपदम्)
(घ) गृहीत्वा – √ग्रह् + क्त्वा (अव्ययपदम्)
(ङ) स्थितः – √स्था + क्त (पुं०, प्रथमा एकवचनम्)
(च) व्यतिक्रम्य – वि + अति + √क्रिम् + ल्यप् (अव्ययपदम्)
5. सन्धिच्छेदं कुरुत
तेनैव, यच्चोक्तम्, तस्येप्सितम्, चैव, यच्च, तदपि, सर्वापि, सोऽपि, प्राप्तैव, चेदस्मिन्, तच्छ्रुत्वा, त्वय्येवम्
उत्तरम्
(क) तेनैव = तेन + एव
(ख) यच्चोक्तम् = यत् + च + उक्तम्
(ग) तस्येप्सितम् = तस्य + ईप्सितम्
(घ) चैव = च + एव
(ङ) यच्च = यत् + च
(च) तदपि = तत् + अपि
(छ) सर्वापि = सर्वा + अपि
(ज) सोऽपि = सः + अपि
(झ) प्राप्तैव = प्राप्ता + एव
(ब) चेदस्मिन् = चेद् + अस्मिन्
(ट) तच्छ्रुत्वा = तत् + श्रुत्वा
(ठ) त्वय्येवम् = त्वयि + एवम्
6. सप्रसङ्गं हिन्दीभाषया व्याख्या कार्या
(क) उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम्।
तटाकोदरसंस्थानां परीवाह इवाम्भसाम्॥
उत्तरम्
प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य विक्रमस्यौदार्यम् नामक पाठ से लिया गया है। यह कथा किसी अज्ञात लेखक द्वारा रचित ‘सिंहासनद्वात्रिंशिका’ कथा संग्रह से संकलित है। प्रस्तुत पद्य में धन के दान को ही धन का सच्चा संरक्षण कहा गया है।
व्याख्या-मनुष्य जो भी धन अपने परिश्रम से इकट्ठा करता है। उसका संरक्षण खजाना भरकर नहीं हो सकता। अपितु असहायों की सहायता के लिए उस धन को दान कर देना ही उसकी सच्ची रक्षा है। तालाब में जल भरा होता है यदि वह जल तालाब में ही पड़ा रहे और किसी के काम न आएँ तो वह जल व्यर्थ है अपितु तालाब में ही पड़ेपड़े वह जल दुर्गन्धयुक्त हो जाता है, इसीलिए तालाब के जल को बाहर निकाल दिया जाता है, नया जल आ जाता है और उसका पानी उपयोगी बना रहता है। इसी प्रकार धन का दान करना ही धन का सच्चा उपयोग है।
(ख) ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति।
भडक्ते भोजयते चैव षविधं प्रीतिलक्षणम्॥
उत्तरम्:
प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य ‘विक्रमौदस्यौदार्यम्’ नामक पाठ से लिया गया है। यह कथा किसी अज्ञात लेखक द्वारा रचित ‘सिंहासनद्वात्रिंशिका’ कथासंग्रह से संकलित है। प्रस्तुत पद्य में समुद्र ने ब्राह्मण को मित्रता का लक्षण बताया है।
व्याख्या-सच्ची मित्रता की पहचान के छह सूत्र हैं
1. मित्र मित्र को धन आदि प्रदान करता है।
2. मित्र मित्र से धन आदि स्वीकार करता है।
3. अपनी गोपनीय (छिपाने योग्य) बात मित्र को बताता है।
4. मित्र की गोपनीय बात उससे पूछता है।
5. मित्र के साथ बैठकर भोजन करता है।
6. मित्र को भोजन खिलाता है।
जिन दो मित्रों के बीच उक्त छ: प्रकार के आचरण बिना किसी औपचारिकता के सम्पन्न होते हैं उन्हीं में सच्ची मित्रता समझनी चाहिए।
7. अधोलिखितानां समस्तपदानां विग्रहं कुरुत
विक्रमतुल्यम्, क्रियाविधिज्ञम्, सकलगुणनिवासः, यज्ञसामग्री, समुद्रतीरम्, जलमध्ये, पुष्पाञ्जलिम्, देदीप्यमानशरीरः, यज्ञार्थम्, यज्ञसमाप्तिः, गुणकथनम्, ब्राह्मणसमूहः, प्राणधारणम्, राजसमीपम्।
(क) विक्रमतुल्यम्-विक्रमेण तुल्यम् (तृतीया-तत्पुरुषः)
(ख) क्रियाविधिज्ञम्-क्रियायाः विधिं जानाति इति क्रियाविधिज्ञः तम् (उपपद-तत्पुरुषः)
(ग) सकलगुणनिवासः-सकलानां गुणानां निवासः (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(घ) यज्ञसामग्री-यज्ञाय सामग्री (चतुर्थी-तत्पुरुषः)
(ङ) समुद्रतीरम्-समुद्रस्य तीरम् (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(च) जलमध्ये-जलस्य मध्ये (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(छ) पुष्पाञ्जलिम्-पुष्पाणाम् अञ्जलिम् (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(ज) देदीप्यमानशरीर:-देदीप्यमानः शरीर: (कर्मधारयः)
(झ) यज्ञार्थम्-यज्ञस्य अर्थम् (चतुर्थी-तत्पुरुषः)
(ञ) यज्ञसमाप्तिः-यज्ञस्य समाप्तिः (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(ट) गुणकथनम्-गुणस्य कथनम् (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(ठ) ब्राह्मणसमूहः-ब्राह्मणानां समूहः (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(ड) प्राणधारणम्-प्राणानां धारणम् (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(ढ) राजसमीपम्-राज्ञः समीपम् (षष्ठी-तत्पुरुषः)
I. पुस्तकानुसारं समुचितम् उत्तरं चित्वा लिखत
(i) विक्रमस्यौदार्यम् पाठः कस्मात् ग्रन्थात् सङ्कलितः ?
(A) विक्रमाकचरितात्
(B) विक्रमाङ्कदेवचरितात्
(C) सिंहासनद्वादशत्रिंशिकाग्रन्थात्
(D) आर्यासप्तशतीग्रन्थात्।
उत्तराणि
(C) सिंहासनद्वादशत्रिंशिकाग्रन्थात्
(ii) उपार्जितानां वित्तानां रक्षणं कथं भवति ?
(A) त्यागेन
(B) भोगेन
(C) सञ्चयेन
(D) लोभेन।
उत्तराणि
(A) त्यागेन
(iii) धनविषये कीदृशः व्यवहारः कर्तव्यः ?
(A) दानेन
(B) भोगेन
(C) रक्षणेन
(D) दानभोगैः।
उत्तराणि
(D) दानभौगैः
(iv) जलमध्ये पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा क्षणं कः स्थितः ?
(A) विक्रमः
(B) ब्राह्मणः
(C) पुत्तलिका
(D) राजा।
उत्तराणि
(B) ब्राह्मणः
(v) समुद्रः राज्ञे किमर्थं रत्नचतुष्टयं दत्तवान् ?
(A) व्ययार्थम्
(B) सञ्चयार्थम्
(C) दानार्थम्
(D) लोभनिवारणार्थम्।
उत्तराणि
(A) व्ययार्थम्
(vi) द्वितीयरत्नेन किम् उत्पद्यते ?
(A) वस्त्रादिकम्
(B) भूषणादिकम्
(C) भोजनादिकम्
(D) रत्नादिकम्।
उत्तराणि
(C) भोजनादिकम्
(vii) प्रीतिलक्षणम् कतिवधं भवति ?
(A) अष्टविधम्
(B) षड्विधम्
(C) पञ्चविधम्
(D) चतुर्विधम्।
उत्तराणि
(B) षड्विधम्।
II. रेखाङ्कितपदम् आधृत्य प्रश्ननिर्माणाय समुचितं पदं चित्वा लिखत
(i) राजा सिंहासने समुपवेष्टुं गच्छति।
(A) कया
(B) कः
(C) केन
(D) कस्मिन्।
उत्तराणि:
(B) कः
(ii) उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव रक्षणम्।
(A) केषाम्
(B) कस्मिन्
(C) कः
(D) कस्मात्।
उत्तराणि:
(A) केषाम्
(iii) शिल्पिभिः अतीव मनोहरः मण्डपः कारितः ।
(A) कः
(B) केभ्यः
(C) कम्
(D) कैः।
उत्तराणि:
(D) कैः
(iv) राजा ब्राह्मणाय चत्वारि रत्नानि ददौ।
(A) कथम्
(B) किं
(C) कति
(D) कानि।
उत्तराणि:
(B) कति।
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जयतु संस्कृतम्।