वर्ण्यते अभिव्यञ्जयते वा लघुतमो ध्वनि येन सः वर्णः-वर्ण वह मूल ध्वनि है, जिसे पुनः खंडित नहीं किया जा
सके। वर्ण ध्वनि की सबसे छोटी इकाई है।
न क्षरः क्षरणं यस्मात् तद् अक्षरम्-वर्ण के लिखित रूप को अक्षर कहते हैं अर्थात् ध्वनिका वह लघुतम रूप
अक्षर है, जिसका खंड नहीं होता है।यथा-अ,इ,उ,ऋ,लृ,ह,य,व,र इत्यादि।
संस्कृत व्याकरण में वर्णों की चर्चा माहेश्वर सूत्र में की गई है-
1.अइउण 2.ऋलृक् 3.एओङ् 4.ऐऔच् 5.हयवरट् 6.लण् 7.ञमङणनम् 8.झभञ् 9.घढधष् 10.जबगडदश्
11.खफछठथचटतव् 12.कपय् 13.शषसर् 14.हल्।
माहेश्वर सूत्र के सभी 14 सूत्रों के अंत में स्थित वर्ण इत् संज्ञक कहलाते हैं, जिनकी गणना नहीं की जाती है।
इस प्रकार माहेश्वर सूत्र के आधार पर संस्कृत वर्णमाला का क्रम है-
अ इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ ह य व र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प
श ष स ह।
इस प्रकार, माहेश्वर सूत्र में प्रयुक्त वर्णों की कुल संख्या 43 है,जिसमें ह को दो बार रखा गया है।एक ह को
हटाने पर ये संख्या42 होती है। ये ही मूल वर्ण है । इनके परस्पर मिश्रण से दीर्घ और संयुक्त वर्णों का निर्माण हुआ।
माहेश्वर सूत्र के आधार पर वर्णों को दो भागों में बांटा गया है-1.अच् प्रत्याहार या अच् वर्ण 2.हल् प्रत्याहार
या हल् वर्ण अच् वर्ण को स्वर वर्ण तथा हल् वर्ण को व्यंजन वर्ण कहा जाता है। इस प्रकार वर्ण के दो प्रकार
हैं-1.स्वर वर्ण 2.व्यंजन वर्ण
जिस वर्ण का उच्चारण स्वतः ही होता है ,उसे स्वर वर्ण कहते हैं तथा जिस वर्ण का उच्चारण किसी दूसरे वर्ण
की सहायता से होता है ,उसे व्यंजन वर्ण कहते हैं-स्वयं राजन्ते स्वराः अन्वग् भवति व्यञ्जनम् ।
स्वर वर्ण एक ऐसे स्वस्थ व्यक्ति की तरह है ,जो स्वतः ही चलता है तथा व्यंजन वर्ण एक ऐसे विकलांग व्यक्ति
की तरह है, जो बिना किसी सहायता के नहीं चल सकता। इस प्रकार स्वर वर्ण की तुलना एक स्वस्थ व्यक्ति से
की जा सकती है तथा व्यंजन वर्ण की तुलना किसी दूसरे की सहायता से चलने वाले विकलांग व्यक्ति के
साथ की जा सकती है।यथा-'अ'का उच्चारण स्वत: ही हो जाता है ,परंतु 'क्' का उच्चारण स्वतः नहीं हो सकता।
इसके लिए किसी दूसरे वर्ण की सहायता लेनी पड़ती है।यथा- कमल में 'क्' का उच्चारण स्वर वर्ण'अ' की
सहायता से हुआ है-'क्+अ' तथा क्लेश में 'क्' का उच्चारण व्यंजन वर्ण'ल' की सहायता से हुआ है-क्+ले।व्यंजन
वर्ण के पहले भी दूसरा वर्ण लगाकर उसका उच्चारण कर सकते हैं। जैसे-'अक्' यहां 'अ' को छोड़कर
जो बाद वाला उच्चारण है, वही व्यंजन वर्ण 'क्' का स्वतंत्र उच्चारण है। यहां 'क्' का उच्चारण दूसरे वर्ण 'अ'
की सहायता से हो रहा है ,जो पहले लगा है। इसी प्रकार अन्य स्वर और व्यंजन वर्णों का उच्चारण होता है।
स्वर वर्ण और उसके प्रकार
जिस वर्ण का उच्चारण स्वतः ही होता है, उसे स्वर वर्ण कहते हैं-स्वर्यन्ते स्वतः उच्चार्यन्ते वा ध्वनि विशेषाः इति
स्वराः।
माहेश्वर सूत्र के आधार पर अच् प्रत्याहार को स्वर कहते हैं-अचःस्वराः। अच् प्रत्याहार में वर्ण हैं-
अ,इ,उ,ऋ,लृ,ए,ओ,ऐ,औ।
ये सभी स्वर कहे जाते हैं इनकी संख्या 9 है। इस प्रकार माहेश्वर सूत्र के आधार पर स्वरों की संख्या 9 है।
इसमें दो प्रकार के स्वर है-1.मूल स्वरऔर 2.संयुक्त स्वर।
इसमें अ,इ,उ,ऋऔर लृ मूल स्वर है तथा ए ओ ऐ औ संयुक्त या मिश्र स्वर है, क्योंकि इनका निर्माण मूल स्वरों
के मिलने से हुआ है-अ+इ=ए,अ+ए=ऐ,अ+उ=ओ,अ+ओ=औ।
मूल स्वरों के दीर्घ उच्चारण के कारण दीर्घस्वरोंं आ,ई,ऊ,ऋृ का निर्माण हुआ। इन स्वरों को पहले बताए
गए स्वरों के साथ शामिल करने पर इनकी संख्या 13 हो जाती है-अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ऋृ,लृ,ए,ऐ,ओ,औ।
इस प्रकार रचना की दृष्टि से स्वरों के तीन भेद हैं-
1.मूल स्वर- मूलेSवस्थिताःस्वराः मूल स्वराः-अपने मूल रूप में अवस्थित स्वर मूल स्वर कहलाते हैं।ये पांच
है-अ,इ,उ,ऋऔर लृ।
2.दीर्घ स्वर-सम्मिश्रिताः स्वराः इति दीर्घ स्वराः-दो समान स्वरों के मेल से बने स्वरों को दीर्घ स्वर कहते
हैं। ये चार हैं-आ,ई,ऊ,ऋृ।
3.संयुक्त स्वर- उभया सवर्णाभ्यां संयुक्ताः इति संयुक्तस्वराः- दो असमान स्वरों के मेल से बने स्वरों को
संयुक्त स्वर कहते हैं । ये चार हैं-ए,ओ,ऐ,औ।
उच्चारण में काल मान की दृष्टि से स्वर के तीन भेद हैं।महर्षि पाणिनि ने लिखा है-
एकमात्रो भवेत् ह्रस्वो द्विमात्रो दीर्घ उच्यते।
त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो व्यंजनं चार्द्धमात्रकम्।।
अर्थात् जिसका उच्चारण एक मात्रा में होता है ,उसे ह्रस्व स्वर कहते हैं। जिसका उच्चारण दो मात्रा में
होता है,उसे दीर्घ स्वर कहते हैं ।जिसका उच्चारण तीन मात्रा में होता है, उसे प्लुत जानना चाहिए। और व्यंजन का
उच्चारणआधे मात्रा में होता है।
इस प्रकार, इस आधार पर स्वर वर्ण के तीन प्रकार हैं -
1.ह्रस्व स्वर- एक मात्रिक स्वराः-अ,इ,उ,ऋऔर लृ। इनकी कुल संख्या 5 है। इन्हें .मूल स्वर या लघु स्वर भी
कहा जाता है।
2.दीर्घ स्वर-द्विमात्रिक स्वराः-आ,ई,ऊ,ऋृ, ए,ओ,ऐ,औ।इनकी कुल संख्या आठ है ।इन्हें गुरु स्वर भी कहा
जाता है।
3.प्लुत स्वर-त्रिमात्रिक स्वराः -वस्तुतः प्लुत स्वर स्वतंत्र नहीं है।इसका प्रयोग मंत्रों, गीतों, वेदों तथा संबोधन में
होता है। इनका उच्चारण दीर्घ स्वर से अधिक समय तक होता है। अर्थात 3 मात्रा में होता है।इसलिए इनके आगे
तीन संख्या लिखी जाती है। जैसे- ओ3, आ3, ऐ3 इत्यादि।
जाति अथवा वर्ण की दृष्टि से स्वर के दो भेद हैं-
1.सवर्ण या सजातीय स्वर- जिन दो स्वरों के उच्चारण और प्रयत्न समान होते हैं, उसे सवर्ण या सजातीय स्वर
कहते हैं।जैसे-अ-आ,इ-ई,उ-ऊ,ऋ-ऋृ,ए-ऐ,ओ-औ।
2.असवर्ण या विजातीय स्वर- जिन दो स्वरों का उच्चारण और प्रयत्न भिन्न भिन्न होता है,उसे विजातीय
स्वर कहते हैं।जैसे-अ-इ,इ-ए,उ-आ,ऋ-ऐ,ए-लृ,ओ-ऐ इत्यादि।
व्यंजन वर्ण और उसके प्रकार
जिस वर्ण का उच्चारण अन्य वर्णों के सहयोग से होता है,उसे व्यञ्जन वर्ण कहते हैं -व्यञ्ज्यते वर्णान्तर
संयोगेन द्योत्यते ध्वनि विशेषो येन तद् व्यञ्जनम्। यथा- क,च,ट,त,प इत्यादि।
परंतु इन सभी वर्णों में स्वर वर्ण का संयोग हुआ है। जिसके चलते इनका उच्चारण संभव हो रहा है। इन वर्णों
से स्वरवर्णों को हटाने पर इनका शुद्ध रूप प्राप्त होता है। इस रूप में हलन्त लगाकर लिखते हैं- क्, च्, ट्, त्,
प्। इस स्थिति में इन वर्णों का उच्चारण नहीं हो पाता है। व्यंजन वर्ण के चार प्रकार हैं - 1. स्पर्श व्यंजन
वर्ण 2.अंतस्थ व्यंजन वर्ण3.उष्म व्यंजन वर्ण 4.संयुक्त व्यंजन वर्ण
1.स्पर्श व्यंजन वर्ण- जिस व्यंजन का उच्चारण मुंह के दो अंगों कंठ तालु आदि के स्पर्श से होता है, उसे
स्पर्श व्यंजन वर्ण कहते हैं। कादयोमावसानाः स्पर्शाः- क से लेकर म तक के वर्ण को स्पर्श व्यंजन वर्ण कहा
जाता है। इनकी कुल संख्या 25 है,जो पांच भागों में विभक्त है-1.कवर्ग- क,ख,ग,घ,ङ।2.चवर्ग- च,छ,ज,झ,ञ।
3.टवर्ग- ट,ठ,ड,ढ,ण। 4.तवर्ग- त,थ,द,ध,न। 5.पवर्ग- प,फ,ब,भ,म।
2.अंतस्थ व्यंजन वर्ण- जिस व्यंजन के उच्चारण में वायु मुख अंदर जाती है, उसे अंतस्थ व्यंजन वर्ण कहते हैं।
स्वर और व्यंजन वर्ण के मध्य स्थित होने के कारण इन्हें अंतस्थ व्यंजन या अर्द्धस्वर वर्ण कहा जाता है। इनकी कुल
संख्या 4 है -य,र,ल,व--यरलवा⸹न्तस्थाः।
3.उष्म व्यंजन वर्ण- जिस व्यंजन के उच्चारण में गर्म वायु बाहर निकलती है ,उसे उष्म व्यंजन वर्ण कहते हैं ।ये
कुल चार हैं-श,ष,स,ह- शषसहोष्माणः।
4.संयुक्त व्यंजन-वर्ण-दो व्यंजन वर्णों के मिलने से बने व्यंजन को संयुक्त व्यंजन वर्ण कहते हैं। संस्कृत
वर्णमाला में प्रयुक्त संयुक्त व्यंजन वर्ण की संख्या कुल तीन हैं- क्ष,त्र,ज्ञ।
इन व्यंजन वर्णों का निर्माण दो व्यंजनों के मिलने से हुआ है-क्ष-क्+ष,त्र-त्+र,ज्ञ-ज्+ञ।
इनके अलावे भी संयुक्त व्यंजन वर्ण है।परंतु उन्हें वर्णमाला में शामिल नहीं किया गया है। जैसे-श्र-श्+र,प्र-
प्+र,द्य-द्+य इत्यादि।
अयोगवाह वर्ण और उसके प्रकार
जो किसी वर्ण के साथ योग नहीं होने पर भी स्वर के बाद लगकर अस्तित्व में आते हैं,उन्हें अयोगवाह वर्ण कहते
का निर्वाह करते हैं।इसलिए इनको अयोगवाह कहा जाता है-अयोगेन एव वहति कार्यम् इति अयोगवाहः।
इनकी संख्या 5 है-1. अनुस्वार 2.अनुनासिक या चंद्रबिंदु 3.विसर्ग 4.जिह्वामूलीय 5.उपध्मानीय
1.अनुस्वार वर्ण- यह बिंदु स्वरूप में किसी अक्षर के ऊपर लिखा जाता है।स्पर्श व्यंजन वर्णों के पांचों वर्गों
के अंतिम अक्षर- पंचमाक्षर (ङ,ञ,ण.न,म) के लुप्त होने पर अनुस्वार वर्ण का प्रयोग होता है। मो⸹नुस्वारः-
सूत्र से किसी पंचमाक्षर के बाद कोई व्यंजन वर्ण हो तो पंचमाक्षर के स्थान पर अनुस्वार हो जाता है।जैसे-
'पुस्तकम् पठति'- में पुस्तकम् के अंतिम अक्षर 'म्' पंचमाक्षर है और इसके बाद व्यंजन वर्ण आया है। जिसके
कारण पंचमाक्षर का लोप हो जाता है तथा उसके स्थान पर अनुस्वार हो जाता है।इस प्रकार
'पुस्तकं पठति'- मे क अक्षर के ऊपर अनुस्वार हो जाता है। यदि पंचमाक्षर के बाद व्यंजन न होकर स्वर
वर्ण रहता है तो पंचमाक्षर के बदले अनुस्वार नहीं होता है,बल्कि पंचमाक्षर अपने मूल रूप में ही रहता है। जैसे-
संस्कृतम् अवगच्छति-में संस्कृतम् के अंतिम अक्षर म् के बदले में अनुस्वार नहीं होता है ।इस प्रकार के अन्य
बहुत सारे उदाहरण हैं।
2.अनुनासिक या चंद्रबिंदु- मुखनासिकावचनो⸹नासिकम् अर्थात् मुख सहित नासिका से उच्चरित होने वाली
ध्वनि अनुनासिक है।यह चंद्रबिंदु स्वरूप में किसी अक्षर के ऊपर लिखी जाती है । इसका भी उच्चारण
अनुस्वार की तरह नासिका से होता है, परंतु इसमें अनुस्वार से कम वायु नाक से बाहर निकलती है तथा अधिक
वायु मुख से निकलती है।इसके उच्चारण में नासिका की ध्वनि खुले मुंह की वायु के साथ अनुगूंज के रूप में
निकलती है।इसी को स्पष्ट करने के लिए बिंदु को अर्धचंद्र के मध्य रखा जाता है। जैसे- सँस्कर्ता,महाँल्लाभ इत्यादि।
3.विसर्ग-यह किसी अक्षर के बाद दो बिंदुओं के रूप में लिखा जाता है।इसका उच्चारण हल्का 'ह' के समान होता
है।जैसे-बालकः,दुःख,रविः इत्यादि।
संधि होने पर परिस्थिति वश इसके स्थान पर 'स्, र्,श्,ष्'आदि का प्रयोग होता है।
4.जिह्वामूलीय- इसका प्रयोग क अथवा ख से आरंभ होने वाले पदों के पहले विसर्ग के स्थान पर विकल्प
से होता है -कखाभ्यांप्रागर्धविसर्गसदृशोजिह्वामूलीयः। जैसे-कः करोति?-क ≍ करोति।गणेशः खादति।-
गणेश ≍ खादति। इत्यादि।
5.उपध्मानीय-पफाभ्यांप्रागर्धविसर्गसदृशःउपध्मानीयः-इसका प्रयोग प अथवा फ से आरंभ होने वाले पदों के
पहले विसर्ग के स्थान पर विकल्प से होता है।जैसे-मोहनःपचति।-मोहन ≍ पचति।वृक्षः फलति।वृक्ष ≍ फलति।
इत्यादि।
वर्णोंच्चारण के स्थान-
संस्कृत वर्णमाला में वर्णों का उच्चारण मुंह के जिन अंगों के सहारे होता है उसे वागिंद्रिय कहते हैं। किसी वर्ण
के उच्चारण में एक से अधिक वागिंद्रियों का योगदान होता है परंतु उसमें सबसे अधिक सहायक जो वागिंद्रिय
होती है ,उसे वर्ण का उच्चारण स्थान कहा जाता है यहां सूत्र के आधार पर वर्णों के उच्चारण स्थानों को बताया गया
है।
1अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः- अ,आ,कु(कवर्ग),ह,विसर्ग(:)
2.इचुयशानां तालुः-इ,ई,चु(चवर्ग),य,श
3.ऋटुरषाणां मूर्धा- ऋ,ऋृ,टु(टवर्ग),र,ष
4.लृतुलसानां दन्ताः-लृ,तु(तवर्ग),ल,स
5.उपूपध्मानीयानामोष्ठौ-उ,ऊ,पु(पवर्ग),उपध्मानीय≍प,≍फ
6.ञमङणनानां नासिका च-ञ,म,ङ,ण
7.नासिकानुस्वारस्य-अनुस्वार(•)
8.एदैतोः कण्ठतालुः-ए,ऐ
9.ओदौतोः कण्ठोष्ठम्-ओ,औ
10.वकारस्य दन्तोष्ठम्-व
11.जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम्-≍क, ≍ख
वर्णोच्चारण के प्रयत्न
वर्णों के उच्चारण में वागिन्द्रियों अर्थात् मुंह के अंगों को परिश्रम अथवा प्रयत्न करना पड़ता है, जिसे वर्णोंच्चारण के
प्रयत्न नाम से जाना जाता है-वर्णोच्चारणार्थं प्रयत्नं प्रयत्नः।
वर्ण उच्चारण के यह प्रयत्न या यत्न दो प्रकार के होते हैं-
यत्नो द्विधा आभ्यंतरो बाह्यश्च।
1.आभ्यंतर प्रयत्न- वर्ण के बाहर निकलने से पहले मुंह के भीतर होने वाले प्रयत्न को आभ्यंतर प्रयत्न कहा जाता है।
आभ्यंतर प्रयत्न के पांच प्रकार है-स्पृष्टःईषत्स्पृष्टःईषद्विवृत्तःविवृत्तः संवृत्तश्च।
1.स्पृष्ट- स्पर्श व्यंजन वर्ण के उच्चारण में जो प्रयत्न होता है,उसे स्पृष्ट प्रयत्न कहते हैं अर्थात् जिन वर्णों के उच्चारण
में वागिन्द्रियों में पूर्णरुप से स्पर्श होता है,उसे स्पृष्ट प्रयत्न कहते हैं-स्पृष्टं प्रयत्नं स्पर्शानाम्।जैसे-क से लेकर म तक
सभी 25 वर्ण।
2.ईषत्स्पृष्ट- जिन वर्णों के उच्चारण में वागिन्द्रियों में थोड़ा स्पर्श होता है,उसे ईषत्स्पृष्ट प्रयत्न कहते हैं-
ईषत्स्पृष्टमन्तःस्थानाम्।जैसे-य,र,ल,व।
3.ईषद्विवृत्त- जिन वर्णों के उच्चारण में मुख थोड़ा खुला रहता है ,उसे ईषद्विवृत प्रयत्न कहते हैं.ईषद्विवृत्तमूष्मणाम् ।
जैसे-श,ष, स,ह।
4.विवृत्त- जिन वर्णों के उच्चारण में मुंह पूरा खुला रहता है उसे विवृत्त प्रयत्न कहते हैं-विवृत्तं स्वाराणाम्।जैसे-सभी
स्वर विवृत्त प्रयत्न हैं।
5.संवृत्त- जिन वर्णों के उच्चारण में मुख संकुचित रूप से खुला रहता है, उसे संवृत्त प्रयत्न कहते
हैं- ह्रस्वस्यावर्णस्यप्रयोगे संवृत्तम्।जैसे-अ।
2. बाह्य प्रयत्न- वर्ण के मुख से बाहर निकलते समय उच्चारण के अंत में जो प्रयत्न होता है उसे बाह्य प्रयत्न कहते हैं।
इसके 11 प्रकार है-विवारः संवारः श्वासो नादोડघोषो घोषोડल्पप्राणो महाप्राण उदात्तोડनुदात्तः स्वरितश्चेति।
1.विवार3.श्वास और 6.अघोष- जिन वर्णों के उच्चारण में मुख विवर पूरा खुला रहता है,उसे विवार प्रयत्न कहते हैं।
इन वर्णों के उच्चारण में केवल श्वास का ही योग होता है,इस कारण इन्हें श्वास प्रयत्न कहते हैं।इसके अलावे इन वर्णों
के उच्चारण में ध्वनि में गूंज नहीं उत्पन्न होती केवल श्वास ही निकलती है और मुंह खुला रहता है,इस कारण इन्हें
अघोष वर्ण या निःशब्द वर्ण कहते हैं-खरो विवाराःश्वासा अघोषाश्च।जैसे- खर् प्रत्याहार के वर्ण अर्थात् वर्गों के प्रथम,
द्वितीय वर्ण-क,ख,च,छ,ट,ठ,त,थ तथा श और ष- ये सभी विवार श्वास तथा अघोष है।
2.संवार 4.नाद और5.घोष- जिन वर्णों के उच्चारण में कंठ आदि संकुचित या मूँदे रहते हैं, उन्हें संवार प्रयत्न कहते
हैं।इन वर्णों के उच्चारण में ध्वनि का योग होता है इस कारण इन्हें नाद प्रयत्न कहते हैं तथा इसके अलावे इन वर्णों
के उच्चारण में स्वर तंत्रिकाएं कंपन करती है इस कारण इन्हें घोष वर्ण कहते हैं- हशः संवारा नादा घोषाश्च।जैसे-
हश् प्रत्याहार के वर्ण अर्थात् वर्गों के तृतीय,चतुर्थ और पंचम वर्ण ग,घ,ङ,ज,झ,ञ,ड,ढ,ण,द,ध,न, ब,भ,म तथा
य,र,ल,व और ह संवार, नाद और घोष हैं।
7.अल्पप्राण- जिन वर्णों के उच्चारण में थोड़ी प्राणवायु बाहर निकलती है,उसे अल्प्राण कहते हैं
-वर्गाणांप्रथमतृतीयपञ्चमाःयरल वाश्चाल्पप्राणाः अर्थात् वर्गों के प्रथम, तृतीय और पंचम वर्ण-
क,ग,ङ,च,ज,ञ,ट,ड,ण,त,द,न,प,ब,म तथा य,र,ल और व अल्पप्राण है।
8.महाप्राण- जिन वर्णों के उच्चारण में अधिक प्राणवायु बाहर निकलती है ,उसे महाप्राण कहते हैं- वर्गाणां-
-द्वितीयचतुर्थौ शलश्चमहाप्राणाः अर्थात् वर्गों के द्वितीय और चतुर्थ वर्ण-ख,घ,छ,झ,ठ,ढ,थ,ध,फ,भ,तथा श,ष,स और ह
महाप्राण है।
9.उदात्त- तालु आदि स्थानों के ऊंचे भाग से उच्चरित होने वाले स्वर उदात्त कहलाते हैं-उच्चैरुदात्तः।
10.अनुदात्त- तालु आदि स्थानों के नीचे भाग से उच्चरित होने वाले स्वर अनुदात्त कहलाते हैं-नीचैरनुदात्तः।
11.स्वरित- जिस स्वर में उदात्त और अनुदात्त दोनों का समाहार होता है,उसे स्वरित कहते हैं-समाहारःस्वरितः।
उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वरों का प्रयोग वैदिक मंत्रों के उच्चारण में किया जाता है ।अलग-अलग वेदों में इनके
संकेत चिन्ह अलग अलग हो जाते हैं। इसलिए इनमें भ्रांति उत्पन्न होती है। सामान्यतः अनुदात्त स्वर के लिए नीचे
पड़ी रेखा(―) का प्रयोग किया जाता है।स्वरित स्वर के लिए ऊपर पड़ी रेखा(ا) का प्रयोग किया जाता है तथा
उदात्त स्वर के लिए नीचे तिर्यक(~) रेखा का प्रयोग किया जाता है।
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जयतु संस्कृतम्।