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बुधवार, 6 अक्टूबर 2021

कार्यं वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम्

 

कार्यं वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम्

जेसीईआरटी तथा एनसीईआरटी के कक्षा-12 के संस्कृत पाठ्यपुस्तक-शाश्वती भाग 2 के नवम: पाठ: कार्यं वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम् का शब्दार्थ सहित हिन्दी अनुवाद एवं भावार्थ तथा उस पर आधारित प्रश्नोत्तर सीबीएसई सत्र-2022-2023 के लिए यहाँ दिए गए हैं।यहाँ दिए गए हिंदी अनुवाद तथा भावार्थ की मदद से विद्यार्थी पूरे पाठ को आसानी से समझकर अभ्यास के प्रश्नों को स्वयं कर सकते हैं।
      प्रस्तुत पाठ अम्बिकादत्तव्यास द्वारा रचित 'शिवराजविजय' नामक ऐतिहासिक उपन्यास के प्रथम विराम के चतुर्थ निःश्वास से संकलित है। इसके रचयिता अम्बिकादत्तव्यास बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। इन्होंने संस्कृत व हिन्दी में शताधिक ग्रन्थों की रचना की। इनकी कृतियों में अभिव्यक्त अद्भुत कल्पनाशक्ति एवं पात्रों के चरित्र में प्रदर्शित उच्च आदर्शों ने विद्वज्जनों को अपनी ओर आकृष्ट किया।
       प्रस्तुत पाठ में यह दर्शाया गया है कि जो वीर, विश्वासपात्र, कर्मठ व दृढसंकल्प वाले होते हैं, उन्हें मानवीय एवं प्राकृतिक किसी भी प्रकार की बाधाएँ अपने संकल्पित लक्ष्य को प्राप्त करने से नहीं रोक सकतीं, संकल्पित कार्य को पूरा करने में चाहे उनके प्राण भी क्यों न चले जाएँ। शिवाजी का विश्वासपात्र एवं कर्मठ दूत (गुप्तचर) अपने निर्दिष्ट कार्यों को पूरा करने के लिए सिंहदुर्ग से पत्र लेकर तोरणदुर्ग जाता है। रास्ते में अनेक प्रकार की भीषण प्राकृतिक बाधाओं के बाद भी वह तनिक भी विचलित नहीं होता है तथा अपने संकल्पित लक्ष्य की ओर बढ़ता ही जाता है। वह कहता है- 'कार्यं वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम्' अर्थात्- 'कार्य सिद्ध करूँगा या देह त्याग कर दूँगा'। यही भाव प्रस्तुत गद्यांश में वर्णित है।
मासोऽयमाषाढः, अस्ति च सायं समयः, अस्तं जिगमिषुर्भगवान् भास्करः सिन्दूर-द्रव-स्नातानामिवं वरुण-दिगवलम्बिनामरुण-वारिवाहानामभ्यन्तरं प्रविष्टः। कलविड्काश्चाटकैर-रुतैः परिपूर्णेषु नीडेषु प्रतिनिवर्तन्ते। वनानि प्रतिक्षणमधिकाधिका श्यामतां कलयन्ति। अथाकस्मात् परितो मेघमाला पर्वतश्रेणीव प्रादुरभूत्, क्षणं सूक्ष्मविस्तारा, परतः प्रकटित-शिखरि-शिखर-विडम्बना, अथ दर्शित-दीर्घ-शुण्डमण्डित-दिगन्त दन्तावल-भयानकाकारा ततः पारस्परिक-संश्लेष-विहित-महान्धकारा च समस्तं गगनतलं पर्यच्छदीत्।                                                                                                          हिन्दी-अनुवादः -आषाढ़ का महीना है। सायं का समय है। अस्त होने की इच्छा वाला भगवान् भास्कर (सूर्य देव) सिन्दूर के घोल में स्नान-सा किए हुए, वरुण-दिशा (पश्चिम-दिशा) का आश्रय लिए हुए जलवाहक बादलों में प्रविष्ट हो रहा है। गौरैया पक्षी अपने शिशुओं की चहचहाचट से परिपूर्ण घोंसलों में वापस लौट रहे हैं। वन प्रतिक्षण अधिक और अधिक कालेपन को प्राप्त हो रहे हैं। तभी अकस्मात् चारों ओर मेघ माला पर्वत शृंखला की तरह प्रकट हो गई। क्षण भर में ही उन बादलों का सूक्ष्म विस्तार हो गया। मेघमाला ने किसी दूसरे ही पर्वत शिखर का सा रूप धारण कर लिया और वह मेघमाला लम्बी-लम्बी सैंडों से सुशोभित दिग्गजों की सुन्दर दन्तावली के समान भयानक आकार वाली हो गई। फिर बादलों के परस्पर मिल जाने से उत्पन्न घोर अन्धकार ने सम्पूर्ण आकाशमण्डल को पूरी तरह से ढक लिया।                                                   अस्मिन् समये एकः षोडशवर्ष-देशीयो गौरो युवा हयेन पर्वतश्रेणीरुपर्युपरि गच्छति स्म। एष सुघटितदृढशरीरः श्याम-श्यामैर्गुच्छ-गुच्छैः कुञ्चित-कुञ्चितैः कच-कलापैः कमनीय-कपोलपालि: दूरागमनायासवशेन सूक्ष्म मौक्तिक-पटलेनेव स्वेदबिन्दु-व्रजेन समाच्छादित-ललाट-कपोल-नासाग्रोत्तरोष्ठः प्रसन्न-वदनाम्भोज-प्रदर्शित दृढसिद्धान्त-महोत्साहः, राजतसूत्र-शिल्पकृत-बहुल-चाकचक्य-वक्र-हरितोष्णीष-शोभितः, हरितेनैव च कञ्चुकेन व्यूढगूढचरता-कार्यः, कोऽपि शिववीरस्य विश्वासपात्रं सिंहदुर्गात् तस्यैव पत्रमादाय तोरणदुर्गं प्रयाति।                                                      हिन्दी-अनुवादः इसी समय लगभग सोलह वर्ष की आयु वाला एक गोरा युवक घोड़े से पर्वत शृंखला के ऊपर-ऊपर जा रहा था। इसका अच्छा गठा हुआ शरीर था। काले-काले, गुच्छेदार, घुघराले केश समूह से उसकी गालें सुशोभित हो रही थी। दूर से आने के परिश्रम से छोटे-छोटे मोतियों के समूह की भाँति पसीने की बूंदों से उसका ललाट, कपोल, नासिक का अग्रभाग तथा ऊपरी होंठ व्याप्त था। प्रसन्न मुख कमल से जिसके दृढ़ सिद्धान्त का उत्साह प्रकट हो रहा था। वह चाँदी के तार की कढ़ाई के कारण अत्यधिक चमकने वाली एक टेढ़ी बँधी हुई हरी पगड़ी से सुशोभित था। हरे रंग के कुर्ते से ही जिसने गुप्तचर का कार्य स्वीकार हुआ था। इस प्रकार का कोई शिवाजी का विश्वासपात्र (सैनिक) सिंहदुर्ग से उसी (शिवाजी) का पत्र लेकर तोरणदुर्ग की ओर प्रस्थान कर गया।                                                                                             तावदकस्मादुत्थितो महान् झञ्झावातः, एकः सायंसमयप्रयुक्तः स्वभाव-वृत्तोऽन्धकारः, स च द्विगुणितो मेघमालाभिः। झञ्झावातोद्भूतैः रेणुभिः शीर्णपत्रैः कुसुमपरागैः शुष्कपुष्पैश्च पुनरेष द्वैगुण्यं प्राप्तः। इह पर्वत श्रेणीत: पर्वतश्रेणी:, वनाद् वनानि, शिखराच्छिखराणि प्रपातात् प्रपातान्, अधित्यकातोऽधित्यकाः, उपत्यकात उपत्यकाः, न कोऽपि सरलो मार्गः, नानु दिनी भूमिः, पन्थाः अपि च नावलोक्यते।                                                                                                                  हिन्दी-अनुवादः -तभी बड़ा भारी अचानक तूफान उठा। एक तो सांय के समय में होने वाला स्वाभाविक अन्धकार, वह भी बादलों के समूह के कारण दोगुणा हो गया। तूफान से उठी हुई धूलियों, पुराने पत्रों, पुष्पपरागों तथा सूखे पत्तों से (यह अन्धकार) फिर से दुगना हो गया। इधर एक पर्वत शृंखला के बाद दूसरी पर्वत शृंखला पर, एक वन के बाद दूसरे वन में, एक शिखर के बाद दूसरे शिखर पर, एक झरने बाद दूसरे झरने पर, एक अधित्यका (पर्वत के ऊपर की ऊँची भूमि) के बाद दूसरी अधित्यका पर, एक उपत्यका (पर्वत के पास वाली निचली भूमि) के बाद दूसरी उपत्यका पर (जहाँ) कोई सरल मार्ग नहीं, कोई समतल भूमि नहीं और रास्ता भी दिखाई नहीं पड़ रहा है।                                                                                       क्षण-क्षणे हयस्य खुराश्चिक्कण-पाषाण-खण्डेषु प्रस्खलन्ति। पदे पदे दोधूयमानाः वृक्षशाखाः सम्मुखमानन्ति, परं दृढसड्कल्पोऽयं सादी (अश्वारोही) न स्वकार्याद् विरमति। परितः स-हडहडाशब्दं दोधूयमानानां परस्सहस्त्र-वृक्षाणां, वाताघात-संजात-पाषाण-पातानां प्रपातानाम्, महान्धतमसेन ग्रस्यमानानामिव सत्त्वानां क्रन्दनस्य च भयानकेन स्वनेन कवलीकृतमिव गगनतलम्। परं "देहं वा पातयेयं कार्यं वा साधयेयम्" इति कृतप्रतिज्ञोऽसौ शिववीरचरो निजकार्यान्न विरमति।                 हिन्दी-अनुवादः -क्षण-क्षण भर में घोड़े के खुर चिकने पत्थर-खण्डों पर फिसल रहे हैं। पग-पग पर झूलती हुई वृक्ष-शाखाएँ सामने से आघात (प्रहार) करती हैं। परन्तु यह दृढ़ संकल्प वाला घुड़सवार अपने कार्य से रुक नहीं रहा है। चारों ओर हड़ हड़ शन के साथ बार-बार झूलते हुए हजारों वृक्षों तूफान की चोट से गिरने वाले पत्थरों से युक्त झरनों तथा घोर अन्धकार से ग्रसे जाते हुए से वन्यप्राणियों की चीख के भयानक शब्द से सम्पूर्ण आकाशमण्डल ही मानो ग्रस लिया गया था। परन्तु 'कार्य सिद्ध करूँगा यां शरीर को नष्ट कर दूंगा'-ऐसी प्रतिज्ञावाला वह शिवाजी सैनिक अपने कार्य से रुक नहीं रहा है। 

प्रश्न 1. 

संस्कृतेन उत्तरं दीयताम् - 
(क) सायं समये भगवान् भास्कर: कुत्र जिगमिषुः भवति ? 
(ख) अस्ताचलगमनकाले भास्करस्य वर्णः कीदृशः भवति ? 
(ग) नीडेषु के प्रतिनिवर्तन्ते ? 
(घ) शिववीरस्य विश्वासपात्रं किं स्थानं प्रयाति स्म ? 
(ङ) प्रतिक्षणमधिकाधिका श्यामतां कानि कलयन्ति ? 
(च) शिववीरविश्वासपात्रस्य उष्णीषम् कीदृशमासीत् ? 
(छ) मेघमाला कथं शोभते ? 
उत्तरम् : 
(क) सायं समये भगवान् भास्करः अस्तं जिगमिषुः भवति। 
(ख) अस्ताचलगमनकाले भास्करस्य वर्णः अरुणः भवति।
(ग) नीडेषु कलविड्काः प्रतिनिवर्तन्ते। 
(घ) शिववीरस्य विश्वासपात्रं तोरणदुर्गं प्रयाति स्म।
(ङ) प्रतिक्षणमधिकाधिका श्यामतां वनानि कलयन्ति। 
(च) शिववीरविश्वासपात्रस्य उष्णीषं राजतसूत्रितम्, बहुल-चाकचक्यम्, वक्रम्, हरितवर्णं च आसीत्। 
(छ) मेघमाला दीर्घशुण्डमण्डितानां दिग्गजानां दन्तावलाः इव भयानकाकारा शोभते।

प्रश्न 2. 
समीचीनोत्तरसङ्ख्यां कोष्ठके लिखत - 
अ. शिवराजविजयस्य रचयिता कः अस्ति ? 
(क) बाणभट्टः 
(ख) श्रीहर्षः 
(ग) अम्बिकादत्तव्यासः 
(घ) माघः 
उत्तरम् : 
(ग) अम्बिकादत्तव्यासः 
आ. कतिवर्षदेशीयो युवा हयेन पर्वतश्रेणीरुपर्युपरि गच्छति स्म। 
(क) चतुर्दशवर्षदेशीयः 
(ख) द्वादशवर्षदेशीयः 
(ग) पञ्चदशवर्षदेशीयः 
(घ) षोडशवर्षदेशीयः 
उत्तरम् : 
(घ) षोडशवर्षदेशीयः।
इ. शिववीरस्य विश्वासपात्रं किम् आदाय तोरणदुर्गं प्रयाति ? 
(क) संवादम् आदाय 
उत्तर :
(ख) पत्रम् आदाय 
(ग) पुष्पगुच्छम् आदाय 
(घ) अश्वम् आदाय
उत्तरम् :
(ख) पत्रम् आदाय 

प्रश्न 3. 
रिक्तस्थानानि पूरयत। 
(क) अथाकस्मात् परितो मेघमाला ................ प्रादुरभूत्। 
(ख) क्षणे क्षणे ................खुराश्चिक्कणपाषाणखण्डेषु प्रस्खलन्ति। 
(ग) पदे पदे ................ वृक्षशाखाः सम्मुखमाघ्नन्ति। 
(घ) कृतप्रतिज्ञोऽसौ ................ निजकार्यान्न विरमति। 
उत्तरम् :
(क) अथाकस्मात् परितो मेघमाला पर्वतश्रेणी: इव प्रादुरभूत्। 
(ख) क्षणे क्षणे हयस्य खुराश्चिक्कणपाषाणखण्डेषु प्रस्खलन्ति। 
(ग) पदे पदे दोधूयमानाः वृक्षशाखाः सम्मुखमाघ्नन्ति। 
(घ) कृतप्रतिज्ञोऽसौ शिववीरचरः निजकार्यान्न विरमति। 

प्रश्न 4. 
अधोलिखितानां पदानाम् अर्थान् विलिख्य वाक्येषु प्रयुञ्जत 
भास्करः मेघमाला, वनानि, मार्गः वीरः, गगनतलम्, झञ्झावातः मासः, सायम्। 
उत्तरम् :
(वाक्यप्रयोगः)
(क) भास्करः (सूर्यः) - पूर्वदिशायां भास्करः उदयति।
(ख) मेघमाला (मेघसमूहः) - मेघमाला आकाशम् आच्छादयति। 
(ग) वनानि (अरण्यानि) - नगरं परितः वनानि सन्ति। 
(घ) मार्गः (पन्थाः) - महान्धकारे मार्गः न अवलोक्यते। 
(ङ) वीरः (वीर्यवान्) - युद्धे वीरः एव जयति। 
(च) गगनतलम् (आकाशतलम्) - रात्रौ अन्धकार: गगनतलम् आच्छादयति। 
(छ) झञ्झावातः (वात्याचक्रम्, 'तूफान' इति हिन्दीभाषायाम्) - सहसा झञ्झावातः प्रादुरभवत्। 
(ज) मासः ('महीना' इति हिन्दी भाषायाम्) - मासोऽयम् आषाढः। 
(झ) सायम् (सन्ध्यासमय:) - सायं समये भगवान् भास्करः अस्तं गच्छति। 

प्रश्न 5.
अधोलिखितानां पदानां सन्धिच्छेदं कृत्वा सन्धिनिर्देशं कुरुत 
तस्यैव, शिखराच्छिखराणि, कोऽपि, प्रादुरभूत्, अथाकस्मात्, कार्यान्न। 
(क) तस्यैव 
= न + एव 
(ख) शिखराच्छिखराणि = शिखरात् + शिखराणि 
(ग) कोऽपि = कः + अपि 
(घ) प्रादुरभूत् = प्रादुः + अभूत् 
(ङ) अथाकस्मात् = अथ + अकस्मात् 
(च) कार्यान्न = कार्यात् + न। 

प्रश्न 6. 
अधोलिखितानां पदानां प्रकृतिप्रत्ययविभागं प्रदर्शयत - 
प्रयुक्तः, उत्थितः, उत्प्लुत्य, रुतैः, उपत्यकातः, उत्थितः, ग्रस्यमानः। 
उत्तरम् : 
(क) प्रयुक्तः = प्र + √युज् + क्त (पुंल्लिङ्गम् प्रथमा-एकवचनम्) 
(ख) उत्थितः = उत् + √स्था + क्त (पुंल्लिङ्गम्, प्रथमा-एकवचनम्) 
(ग) उत्प्लुत्य = उत् + √प्लु + ल्यप् (अव्यय) 
(घ) रुतैः = रु + क्त। (नपुंसकलिङ्गम्, तृतीया-एकवचनम्) 
(ङ) उपत्यकातः = उपत्यका + तसिल > तस् (अव्ययपदम्) 
(च) 'ग्रस्यमानः = √ग्रस् (कर्मवाच्ये) + शानच् (पुंल्लिङ्गम्, प्रथमा-एकवचनम्) 

प्रश्न 7. 
अलङ्कारनिर्देशं कुरुत - 
(1) वदनाम्भोजेन 
(2) दिगन्तदन्तावल: 
(3) सिन्दूरद्रवस्नातानामिव वरुणदिगवलम्बिनाम्। 
उत्तरम् : 
(1) वदनाम्भोजेन - रुपकः अलङ्कारः 
(2) दिगन्तदन्तावल: - अनुप्रासः अलङ्कारः 
(3) सिन्दूरद्रवस्नातामिव वरुणदिगवलम्बिनाम् - उत्प्रेक्षा अलङ्कारः 

प्रश्न 8.
विग्रहवाक्यं विलिख्य समासनामानि निर्दिशत -
मेघमाला, महान्धकारः, पवर्तश्रेणी:, महोत्साहः, विश्वासपात्रम्, हरितोष्णीषशोभितः। 
उत्तरम् : 
(क) मेघमाला = मेघानां माला (षष्ठी-तत्पुरुषः) 
(ख) महान्धकारः = महान् अन्धकारः (कर्मधारयः)
(ग) पर्वतश्रेणी: = पर्वतानां श्रेणी: (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(घ) महोत्साहः = महान् उत्साहः (कर्मधारयः)
(ङ) विश्वासपात्रम् = विश्वासस्य पात्रम् (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(च) हरितोष्णीषशोभितः = हरितेन उष्णीषेण शोभितः (तृतीया-तत्पुरुषः)

प्रश्न 9. 
पाठ्यांशस्य सारं हिन्दीभाषया आङ्ग्लभाषया वा लिखत - 
उत्तरम् :
पाठ का सार पहले दिया जा चुका है, वहीं देखें। 

प्रश्न 10. 
पाठ्यांशे प्रयुक्तानि अव्ययानि चित्वा लिखत - 
उत्तरम् :
च (और) 
सायम् (सायंकाल) 
इव (की तरह, मानो) 
अथ (इसके बाद, फिर) 
अकस्मात् (अचानक) 
परितः (चारों ओर) 
परतः (दूसरी ओर)
ततः (उसके बाद) 
उपर्युपरि (ऊपर-ऊपर) 
एव (ही) 
अपि (भी) 
तावत् (तभी)
अकस्मात् (अचानक) 
पुनः (फिर) 
इह (यहाँ, इस विषय में) 
न (नहीं) 
परम् (परन्तु) 
वा (अथवा, या) 
इति (यह, इसप्रकार) 
प्रतिक्षणम् (पल-पल) 
आदाय (लेकर) 
पर्वतश्रेणीतः (पर्वतश्रेणी से) 
अधित्यकातः (अधित्यका से)
उपत्यकातः (उपत्यका से) 

बहुविकल्पीया: प्रश्नाः 

I. पुस्तकानुसारं समुचितम् उत्तरं चित्वा लिखत

(i) सायं समये भगवान् भास्करः कुत्र जिगमिषुः भवति ? 
(A) गङ्गायाम् 
(B) समुद्रम्
(C) अस्तम् 
(D) उदयम्। 
उत्तरम् :
(B) समुद्रम्

(ii) अस्ताचलगमनकाले भास्करस्य वर्णः कीदृशः भवति ? 
(A) अरुणः 
(B) हरितः 
(C) श्वेतः 
(D) पीतः। 
उत्तरम् :
(A) अरुणः 

(iii) नीडेषु के प्रतिनिवर्तन्ते ? 
(A) गर्दभाः 
(B) अश्वाः 
(C) गजाः 
(D) कलविकाः। 
उत्तरम् :
(D) कलविकाः। 

(iv) शिववीरस्य विश्वासपात्रं किं स्थानं प्रयाति स्म ? 

(A) वनानि 
(B) चित्राणि 
(C) भवनानि 
(D) भुवनानि। 
उत्तरम् :
(A) वनानि 

II. रेखाङ्कितपदम् आधृत्य प्रश्ननिर्माणाय समुचितं पदं चित्वा लिखत - 

(i) अकस्मात् परितो मेघमाला पर्वतश्रेणी: इव प्रादुरभूत्। 
(A) कया। 
(B) केन 
(C) का 
(D) कम्। 
उत्तरम् :
(C) का 

(ii) क्षणे क्षणे हयस्य खुराश्चिक्कणपाषाणखण्डेषु प्रस्खलन्ति। 
(A) कस्य 
(B) कया 
(C) कस्मात् 
(D) कस्मिन्। 
उत्तरम् :
(A) कस्य 

(iii) पदे पदे दोधूयमानाः वृक्षशाखाः सम्मुखमाघ्नन्ति। 
(A) काः 
(B) कीदृश्यः
(C) कति 
(D) के। 
उत्तरम् :
(B) कीदृश्यः

(iv) कृतप्रतिज्ञोऽसौ शिववीरचरः निजकार्यान्न विरमति। 
(A) कस्मात् 
(B) कस्याः 
(C) कस्मिन् 
(D) कः। 
उत्तरम् :
(D) कः।


    




मंगलवार, 5 अक्टूबर 2021

भू-विभागाः

 भू-विभागाः

        जेसीईआरटी तथा एनसीईआरटी के कक्षा-12 के संस्कृत पाठ्यपुस्तक-शाश्वती भाग 2 के  अष्टम: पाठ: भू-विभागाः  का शब्दार्थ सहित हिन्दी अनुवाद एवं भावार्थ तथा उस पर आधारित प्रश्नोत्तर सीबीएसई सत्र-2022-2023 के लिए यहाँ दिए गए हैं।यहाँ दिए गए हिंदी अनुवाद तथा भावार्थ की मदद से विद्यार्थी पूरे पाठ को आसानी से समझकर अभ्यास के प्रश्नों को स्वयं कर सकते हैं।                                                      प्रस्तुत पाठ मुगलसम्राट शाहजहाँ के विद्वान् पुत्र दाराशिकोह द्वारा विरचित ग्रन्थ 'समुद्रसङ्गमः' से संकलित किया गया है। दाराशिकोह संस्कृत तथा अरबी भाषा के तत्कालीन विद्वानों में अग्रगण्य थे। 'समुद्रसङ्गमः' ग्रन्थ में 'पृथिवी निरूपण' के अन्तर्गत उन्होंने पर्वतों, द्वीपों, समुद्रों आदि का विशिष्ट शैली में वर्णन किया है। उसी वर्णन के अंश यहाँ “भू-विभागाः' शीर्षक के अन्तर्गत प्रस्तुत किये गये हैं। दाराशिकोह मुगलसम्राट शाहजहाँ के सबसे बड़े पुत्र थे। उनका जीवनकाल 1615 ई० से 1659 ई. तक है। शाहजहाँ उनको राजपद देना चाहते थे पर उत्तराधिकार के संघर्ष में उनके भाई औरंगजेब ने निर्ममता से उनकी हत्या कर दी। दाराशिकोह ने अपने समय के श्रेष्ठ संस्कृत पण्डितों, ज्ञानियों और सूफी सन्तों की सत्संगति में वेदान्त और इस्लाम के दर्शन का गहन अध्ययन किया और उन्होंने फारसी और संस्कृत में इन दोनों दर्शनों की समान विचारधारा को लेकर विपुल साहित्य लिखा। फारसी में उनके ग्रन्थ हैं- सारीनतुल् औलिया, सकीनतुल् औलिया, हसनातुल् आरफीन (सूफी सन्तों की जीवनियाँ), तरीकतुल् हकीकत, रिसाल-ए-हकनुमा, आलमे नासूत, आलमे मलकूत (सूफी दर्शन के प्रतिपादक ग्रन्थ), सिर्र-ए-अकबर (उपनिषदों का अनुवाद) उनके फारसी ग्रन्थ हैं। श्रीमद्भगवद्गीता और योगवासिष्ठ के भी फारसी भाषा में उन्होंने अनुवाद किये। 'मज्म-उल्-बहरैन्' फारसी में उनकी अमर कृति है, जिसमें उन्होंने इस्लाम और वेदान्त की अवधारणाओं में मूलभूत समानताएँ बतलायी हैं। इसी ग्रन्थ को दाराशिकोह ने 'समुद्रसङ्गमः' नाम से संस्कृत में लिखा।

अथ पृथिवीनिरूपणम्-पृथिव्याः सप्तभेदाः। ते च भेदाः सप्तपुटान्युच्यन्ते। तानि च पुटानि-अतल-वितल-सुतल-तलातल-रसातल-पातालाख्यानि। अस्मन्मतेऽपि सप्तभेदाः। यथाऽस्मद्वेदे श्रूयते परमेश्वरो यथा सप्तगगनानि तद्वत् पृथिव्याः सप्तविभागान् कृतवान्।

अब पृथिवी का निरूपण किया जाता है-पृथिवी के सात भेद हैं और उन्हें 'सप्तपुट' कहा जाता है। उन पुटों के नाम हैं-(1) अतल, (2) वितल, (3) सुतल, (4) प्रतल, (5) तलातल, (6) रसातल, (7) पाताल। हमारे मत में भी सात भेद हैं। जैसे कि हमारे वेद (कुरान शरीफ) में सुना जाता है; जैसे परमेश्वर ने सात प्रकार के आकाश बनाए हैं उसी प्रकार पृथिवी के सात भेद किए गए हैं। .. 

अथ पृथिव्याः विभागनिरूपणं यत्र लोकास्तिष्ठन्ति। तस्याः दार्शनिकैः सप्तधा विभागः कृतस्तान् विभागान् सप्त अअक्लिम इति वदन्ति। पौराणिकास्तु सप्त द्वीपानि वदन्ति। एतान् खण्डान् पलाण्डुत्वग्वदुपर्यधो भावेन न ज्ञायन्ते, “किन्तु' निःश्रेणी सोपानवज्जानन्ति।

  अब पृथिवी के विभागों का निरूपण किया जाता है, जहाँ लोग रहते हैं। उस पृथिवी के दार्शनिकों ने सात विभाग किए हैं, उन विभागों को सात अअक्लिम = अकूलीन = खण्ड कहते हैं। पौराणिक उन्हें सात द्वीप कहते हैं। इन खण्डों को प्याज के छिलके की तरह ऊपर-नीचे के भाव से नहीं समझना चाहिए, परन्तु सीढ़ी में लगने वाले काष्ठ-दण्ड की भाँति समझ सकते हैं। 

सप्त पर्वतान् सप्त कुलाचलान् वदन्ति, तेषां पर्वतानां नामान्येतानि प्रथमः सुमेरुमध्ये, द्वितीयो हिमवान्, तृतीयो हेमकूटः, चतुर्थो निषधः एते सुमेरोरुत्तरतः। माल्यवान् पूर्वस्यां, गन्धमादनः पश्चिमायां कैलासश्च मर्यादापर्वतेभ्योऽतिरिक्तः। यथाऽस्मद्वेदे श्रूयते- “अस्माभिः पर्वताः शंकवः कृताः।

सात पर्वतों को सात कुलाचलन कहते हैं। उन पर्वतों के नाम ये हैं- पहला सुमेरु पर्वत (जो) मध्य में है। दूसरा हिमालय, तीसरा हेमकूट, चौथा निषध-ये सुमेरु पर्वत की उत्तर दिशा में हैं। (पाँचवाँ) मूल्यवान् पूर्व दिशा में (छठा) गन्धमादन पश्चिम दिशा में और (सातवाँ) कैलास पर्वत मर्यादा पर्वतों से अलग है। जैसा हमारे वेद (कुरान शरीफ) में सुना जाता है-"हमने पर्वतों को शकु (कीलें) बना दिया।"

  एतेषां सप्तद्वीपानां प्रत्येकमावेष्टनरूपाः सप्तसमुद्राः। लवणो जम्बुद्वीपस्यावरकः। इक्षुरसः प्लक्षद्वीपस्य दधिसमुद्रः क्रौञ्चद्वीपस्य, क्षीरसमुद्रः शाकद्वीपस्य, स्वादुजलसमुद्रः पुष्करद्वीपस्यावरकः इति। समुद्राः सप्त अस्मद्वेदेऽपि प्रकटाः भवन्ति।

इन सात द्वीपों में प्रत्येक द्वीप के आवरण रूप सात समुद्र हैं। लवण (समुद्र) जम्बुद्वीप का आवरण है। इक्षुरस (सुरा) प्लक्षद्वीप का, दधिसमुद्र क्रौञ्चद्वीप का, क्षीर सागर शाकद्वीप का (और) स्वादु जल समुद्र पुष्कर द्वीप का आवरक है। हमारे वेद (कुरान शरीफ़) में भी सात समुद्र प्रकट होते हैं। 

वृक्षाः लेखनी भवेयुः समुद्रोऽपि मसी भवेत्, परं भगवद्वाक्यानि समाप्तानि न भवन्ति। प्रतिद्वीपं प्रतिपर्वतं प्रतिसमुद्र नानाजातयोऽनन्ता जन्तवस्तिष्ठन्ति। या पृथिवी ये पर्वताः ये समुद्रा सर्वाभ्यः पृथिवीभ्यः सर्वेभ्यः पर्वतेभ्यः सर्वेभ्यः समुद्रेभ्यः उपरि तिष्ठन्ति तान् ‘स्वर्ग' इति वदन्ति। या पृथिवी ये पर्वताः ये समुद्राः सर्वाभ्यः पृथिवीभ्यः सर्वेभ्यः पर्वतेभ्यः सर्वेभ्यः समुद्रेभ्योऽधो भागे तिष्ठन्ति स 'नरक' इति वदन्ति। निश्चितं किल सिधैः स्वर्गनरकादिकं सर्वं ब्रह्माण्डान्न किञ्चिबहिरस्तीति। ते सप्तगगनाश्रिताः सप्त ग्रहाः स्वर्गं परितो मेखलावत् परिभ्रमन्तीति वदन्ति; न स्वर्गस्योपरि। अथ स्वर्गस्य यदि 911 मन आकाशं जानन्ति अस्मदीयास्तमर्श इति वदन्ति। स्वर्गभूमिं कुर्शीति वदन्ति।"

सभी वृक्ष लेखनी बन जाएँ, समुद्र स्याही बन जाए, परन्तु भगवद्-वचन समाप्त नहीं होते (अर्थात् भगवान् की महिमा लिखने के लिए ये सब अपर्याप्त ही होते हैं)। प्रत्येक द्वीप में प्रत्येक पर्वत पर, प्रत्येक समुद्र में विविध जाति वाले अनन्त प्राणी रहते हैं। जो पृथिवी, जो पर्वत, जो समुद्र सभी पृथिवियों से, सभी पर्वतों से, सभी समुद्रों से ऊपर विद्यमान हैं उन्हें 'स्वर्ग' कहते हैं। जो पृथिवी, जो पर्वत, जो समुद्र सभी पृथिवियों से, सभी पर्वतों से तथा समुद्रों से निचले भाग में स्थित हैं उन्हें 'नरक' कहते हैं। सिद्ध पुरुषों ने निश्चित मत बनाया है कि स्वर्ग-नरक आदि (सब यहाँ पर ही हैं) ब्रहमाण्ड से कछ भी बाहर नहीं है। सात आकाशों के आश्रित रहने वाले (जो) सात ग्रह हैं, वे स्वर्ग के चारों ओर मेखला की भाँति भ्रमण करते हैं, स्वर्ग के ऊपर नहीं। अब यदि स्वर्ग का मन आकाश को समझते हैं (तो) हमारे लोग उसे 'अर्श' कहते हैं। स्वर्गभूमि को 'कुर्शी' कहते हैं। 

प्रश्न 1. 
संस्कृतेन उत्तरं दीयताम् 
(क) पृथिव्याः कति भेदाः ? 
(ख) पृथिव्याः सप्तपुटानां नामानि कानि सन्ति ?
(ग) पर्वताः कति सन्ति ? 
(घ) समुद्राः कति सन्ति ? 
(ङ) दधिसमुद्रः कस्य द्वीपस्यावरकः ? 
(च) 'अर्श' इति पदं कस्मै प्रयुक्तम् ? 
(छ) 'कुर्शी' इति पदं कस्मिन्नर्थे प्रयुक्तम् ? 
(ज) 'अस्मद्वेद' इति शब्द: दाराशिकोहेन कस्य ग्रन्थस्य कृते प्रयुक्तः ? 
उत्तरम् :
(क) पृथिव्याः सप्त भेदाः ? 
(ख) पृथिव्याः सप्तपुटानां नामानि सन्ति 1. अतल: 2. वितलः, 3. सुतलः, 4. प्रतलः, 5. तलातलः, 6. रसातल, 7. पातालः। 
(ग) पर्वताः सप्त सन्ति ?
(घ) समुद्राः सप्त सन्ति ? 
(ङ) दधिसमुद्रः क्रौञ्च-द्वीपस्यावरकः ? 
(च) 'अर्श' इति पदम् आकाशाय प्रयुक्तम् ? 
(छ) 'कुर्शी' इति पदं परमेश्वस्य सिंहासने अर्थे प्रयुक्तम् ? 
(ज) 'अस्मद्वेद' इति शब्द: दाराशिकोहेन 'कुरानशरीफ़' ग्रन्थस्य कृते प्रयुक्तः ? 

प्रश्न 2. 
हिन्दीभाषया आशयं लिखत - 
एतान् खण्डान् पलाण्डुत्वग्वदुपर्यधोभावेन न ज्ञायन्ते, किन्तु निःश्रेणी-सोपानवजानन्ति। सप्तपर्वतान् सप्तकुलाचलान् वदन्ति, तेषां पर्वतानां नामान्येतानि-प्रथमः सुमेरुमध्ये, द्वितीयो हिमवान्, तृतीयो हेमकूटः, चतुर्थो निषधः एते सुमेरोरुत्तरतः। 

प्रसंग: - प्रस्तुत गद्यांश 'शाश्वती-द्वितीयो भागः' के 'भू-विभागाः' नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ दाराशिकोह रा रचित 'समुद्रसङ्गमः' नामक ग्रन्थ से लिया गया है। प्रस्तुत गद्यांश में भूलोक के सात विभागों तथा सप्त पर्वतों की चर्चा की है। 

व्याख्या - पृथिवी जिस पर सब लोगों का निवास है, दार्शनिकों ने उसके सात खण्ड माने हैं, इन्हें सप्तद्वीप भी कहा जाता है। ये खण्ड प्याज के छिलकों की तरह एक के नीचे एक-एक के नीचे एक नहीं होते, अपितु जैसे सीढ़ी में अलग-अलग समान दूरी पर लकड़ी/बाँस में डण्डे लगे होते हैं उसी प्रकार इन सप्तद्वीपों की स्थिति भी समझनी चाहिए। सप्तपर्वतों को 'सप्तकुलाचल' नाम से भी जाना जाता है। इन सात पर्वतों के नाम और उनकी स्थिति इस प्रकार है। पृथिवी के मध्य में सुमेरु नामक पहला पर्वत है। दूसरा हिमालय, तीसरा हेमकूट और चौथा निषध नामक पर्वत है ये तीनों सुमेरु पर्वत की उत्तर दिशा में स्थित हैं। इन सबके अतिरिक्त माल्यवान्, गन्धमादन तथा कैलास पर्वत हैं। इन्हें जोड़कर ही सात समुद्रों की संख्या पूर्ण होती है। प्रस्तुत गद्यांश में इन तीनों का उल्लेख नहीं है।

प्रश्न 3. 
अधोलिखितानां पदानां स्वसंस्कृतवाक्येषु प्रयोगं कुरुत 
पुटानि, कृतवान्स, आवेष्टनरूपा, सर्वेभ्यः ब्रह्माण्डात्, परिभ्रमन्ति। 
उत्तरम् : 
(वाक्यप्रयोगः) 
(क) पुटानि-पृथिव्याः सप्त विभागाः ‘सप्तपुटानि' अपि कथ्यन्ते। 
(ख) कृतवान्–दाराशिकोहः श्रीमद्भगवद्गीतायाः अनुवादं फारसीभाषायां कृतवान्। 
(ग) आवेष्टनरूपा:-सप्तद्वीपाः सप्तसमुद्राणाम् आवेष्टनरूपाः सन्ति। 
(घ) सर्वेभ्य:-सर्वेभ्यः शिक्षकेभ्यः नमः। 
(ङ) ब्रहमाण्डात-स्वर्गनरकादिकं ब्रहमाण्डात बहिः नास्ति। 
(च) परिभ्रमन्ति-सप्त ग्रहाः गगने परिभ्रमन्ति। 

प्रश्न 4. 
अधोलिखितानां पदानां सन्धिच्छेदं कुरुत - 
पुटान्युच्यन्ते, अस्मन्मते, पलाण्डुत्वग्वदुपर्यधोभावेन, सोपानवजानन्ति, सुमेरोरुत्तरतः, समुद्रोऽपि, किञ्चिद्वहिरस्तीति, अस्मदीयास्तमर्श। 
उत्तरम् : 
(क) पुटान्युच्यन्ते = पुटानि + उच्यन्ते। 
(ख) अस्मन्यते = अस्मत् + मते। 
(ग) पलाण्डुत्वग्वदुपर्यधोभावेन = पलाण्डुत्वग्वत् + उपरि + अधः + भावेन। 
(घ) सोपानवज्जानन्ति = सोपानवत् + जानन्ति। 
(ङ) सुमेरोरुत्तरतः = सुमेरोः + उत् + तरतः। 
(च) समुद्रोऽपि = समुद्रः + अपि।
(छ) किञ्चिदहिरस्तीति = किञ्चित् + बहिः + अस्ति + इति। 

5. अधोलिखितानां पदानां पर्यायवाचिपदानि लिखत -  
पृथिवी, पर्वतः, समुद्रः, गगनम्, स्वर्ग: 
उत्तरम् : 
(पर्यायवाचिपदानि) 
(क) पृथिवी = भूमिः, भू, पृथ्वी, धरणी, धरा। 
(ख) पर्वतः = गिरिः, अचलः, भूधरः, धरणीधरः। 
(ग) समुद्रः = सागरः, जलधिः, वारिधिः, रत्नाकरः। 
(घ) गगनम् = आकाशः, खः, क्षितिजः, नभः। 
(ङ) स्वर्गः = दिवम्, 'अर्श' इति फारसीभाषायाम्। 

6. रिक्तस्थानानाम् पूर्तिः विधेया - 
(क) पौराणिकास्तु ............... द्वीपानि वदन्ति। 
(ख) सप्त ............... सप्त कुलाचलान् वदन्ति। 
(ग) ............. जम्बुद्वीपस्यावरकः। 
(घ) स्वर्गभूमिं ............... वदन्ति। 
उत्तरम् :
(क) पौराणिकास्तु सप्त द्वीपानि वदन्ति। 
(ख) सप्त पर्वतान् सप्त कुलाचलान् वदन्ति। 
(ग) लवण: जम्बुद्वीपस्यावरकः। 
(घ) स्वर्गभूमिम्: कुर्शी इति वदन्ति। 

बहुविकल्पीया प्रश्नाः

I. पुस्तकानुसारं समुचितम् उत्तरं चित्वा लिखत - 

(i) पृथिव्याः कति भेदा: ? 
(A) अष्ट 
(B) सप्त 
(C) षड् 
(D) नव। 
उत्तरम् :
(B) सप्त

(ii) पर्वता: कति सन्ति ? 
(A) नव 
(B) सहस्रम् 
(C) अष्ट 
(D) सप्त।
उत्तरम् :
(A) सप्त

(iii) समुद्राः कति सन्ति ? 
(A) सप्त 
(B) अष्ट 
(C) नव 
(D) चत्वारः। 
उत्तरम् :
(D) चत्वारः। 

(iv) दधिसमुद्रः कस्य द्वीपस्यावरक: ? 
(A) सुमेरुद्वीपस्य 
(B) मालद्वीपस्य 
(C) सिंहद्वीपस्य 
(D) क्रौञ्चद्वीपस्य। 
उत्तरम् :
(A) सुमेरुद्वीपस्य 

(v) 'अर्श' इति पदं कस्मै प्रयुक्तम् ? 

(A) आकाशाय 
(B) द्वीपाय 
(C) समुद्राय 
(D) पर्वताय। 
उत्तरम् :
(A) आकाशाय 

II. रेखाङ्कितपदम् आधृत्य-प्रश्ननिर्माणाय समुचितं पदं चित्वा लिखत - 

(i) परमेश्वरः पृथिव्याः सप्तविभागान् कृतवान्। 
(A) किम् 
(B) कः 
(C) कस्याः 
(D) काः। 
उत्तरम् :
(C) कस्याः

(ii) पौराणिकाः सप्त द्वीपानि वदन्ति। 
(A) काम् 
(B) के 
(C) कः 
(D) कति। 
उत्तरम् :
(B) के 

(iii) सप्तद्वीपानाम् आवेष्टनरूपाः सप्त समुद्राः। 
(A) कः 
(B) कस्मात् 
(C) कति 
(D) केषाम्।
उत्तरम् :
(D) केषाम्।

(iv) सप्त ग्रहाः स्वर्गं परितः मेखलावत् परिभ्रमन्ति। 
(A) कथम् 
(B) कति 
(C) केन 
(D) कया। 
उत्तरम् :
(A) कथम्