जेसीईआरटी तथा एनसीईआरटी के कक्षा-12 के संस्कृत पाठ्यपुस्तक-शाश्वती भाग 2 के तृतीय: पाठ: सूक्तिसुधा का शब्दार्थ सहित हिन्दी अनुवाद एवं भावार्थ तथा उस पर आधारित प्रश्नोत्तर सीबीएसई सत्र-2022-2023 के लिए यहाँ दिए गए हैं।यहाँ दिए गए हिंदी अनुवाद तथा भावार्थ की मदद से विद्यार्थी पूरे पाठ को आसानी से समझकर अभ्यास के प्रश्नों को स्वयं कर सकते हैं। प्रस्तुत पाठ करुण रस के अनुपम चितेरे महाकवि भवभूति विरचित "उत्तररामचरितम्" नामक प्रसिद्ध नाटक के चतुर्थ अंक से संकलित किया गया है। राजा राम द्वारा निर्वासिता भगवती सीता | के जुड़वाँ पुत्रों लव एवं कुश का महर्षि वाल्मीकि के द्वारा र एवं शास्त्रों की शिक्षा दी गयी तथा स्वरचित रामायण के सस्वर गान का अभ्यास कराया गया। महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में अतिथि रूप में पधारे राजर्षि जनक, कौसल्या एवं अरुन्धती खेलते हुए बालकों के बीच एक बालक में राम एवं सीता की छाया देखते हैं। वे उन्हें बुलाकर गोद में बिठाकर वात्सल्य की वर्षा करते हैं। इतने में ही चन्द्रकेतु द्वारा रक्षित राजा राम का अश्वमेधीय अश्व आश्रम में प्रवेश करता है। नगरीय अश्व को देखकर आश्रम के बालकों में कौतूहल उत्पन्न होता है। वे उसे देखने के लिए लव को भी बुला लाते हैं। लव घोड़ का दखत है कि यह अश्वमेधीय घोडा है। रक्षकों की घोषणा सुनकर बालक लव घोड़े को आश्रम में ले जाकर बाँधने का आदेश देते हैं। इसका अत्यन्त मार्मिक चित्रण इस पाठ में हुआ है।
(नेपथ्ये कलकलः। सर्वे आकर्णयन्ति)=
(नेपथ्य में कोलाहल होता है।सब सुनते हैं)
जनकः : अये, शिष्टानध्याय इत्यस्खलितं खेलतां बटूनां कोलाहलः।
जनक- अरे, शिष्टजनों के आगमन से अवकाश होने के कारण बेरोक-टोक खेलते हुए बटुओं का यह कोलाहल है।
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
अये=अरे
शिष्टानध्याय=शिष्टजनों के आगमन से
इत्यस्खलितं =अवकाश होने के कारण
खेलतां=बेरोक-टोक खेलते हुए
बटूनां=बटुओं का
कोलाहलः=यह कोलाहल है।
कौसल्या : सुलभसौख्यमिदानीं बालत्वं भवति। अहो, एतेषां मध्ये क एष रामभद्रस्य मुग्धललितैरङ्गैर्दारकोऽस्माकं लोचने शीतलयति?
कौसल्या-बाल्यावस्था में सुख सुलभ होता है। ओह ! इनके (बालकों के) बीच में कौन बालक रामभद्र को शैशव-कालीन शोभा से सम्पन्न सुन्दर और सुकुमार अङ्गों से नेत्रों को ठण्डा कर रहा है ?
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
बालत्वं=बाल्यावस्था
इदानीं=में
सौख्यम्=सुख
सुलभ=सुलभ
भवति= होता है।
अहो=ओह !
एतेषां=इन(बालकों) के
मध्ये=बीच में
क एष=कौन यह
दारकः= बालक
रामभद्रस्य=रामभद्र के
मुग्धललितैः=शैशव-कालीन शोभा से सम्पन्न सुन्दर
अङ्गैः=(और) सुकुमार अङ्गों से
अस्माकं =हमारे
लोचने = नेत्रों को
शीतलयति=ठण्डा कर रहा है ?
अरुन्धती:-
कुवलयदलस्निग्धश्यामः शिखण्डकमण्डनो
वटुपरिषदं पुण्यश्रीकः श्रियैव सभाजयन् ।
पुनरपि शिशु तो वत्सः स मे रघुनन्दनो
झटिति कुरुते दृष्टः कोऽयं दृशोरमृताञ्जनम् ॥1॥
अरुन्धती-(प्रकाश में) नील-कमल-दल के समान चिकना और श्याम काकपक्षों(घुंघराले बालों) से सुशोभित अलौकिक शोभा से सम्पन्न शरीर को कान्ति से ही ब्रह्मचारियों की मण्डली को अलङ्कृत करने वाला यह कौन है ? जो कि देखने पर फिर से शिशु रूप धारी राम की भाँति मेरी आँखों में अमृत-मय अंंजन का लेप सा कर रहा है ?
अन्वय,शब्दार्थ और श्लोकार्थ-
कुवलयदल=नील-कमल-दल के समान
स्निग्धश्यामः= चिकने और श्याम
शिखण्डक=घुंघराले बालों से
मण्डनो= सुशोभित
पुण्यश्रीकः=अलौकिक शोभा से सम्पन्न शरीर की
श्रियैव =कान्ति से ही
वटुपरिषदं=ब्रह्मचारियों की मण्डली को
सभाजयन् =अलङ्कृत करने वाला
कोऽयं =यह कौन है? जो कि
पुनरपि =फिर से
शिशु तो =शिशु रूप धारी
स मे =वह मेरे
वत्सः =पुत्र
रघुनन्दनो=राम की भाँति
झटिति =शीघ्र ही
दृशोरमृताञ्जनम्=मेरी आँखों में अमृत-मय अंंजन का लेप सा
कुरुते दृष्टः =करते हुए दिखाई दे रहा है ?
जनकः(चिरं निर्वर्ण्य ) भोः किमप्येतत्।=
जनक-(बहुत देर तक देखकर) ओह ! यह क्या (अपूर्व सा अनुभव) है ?
महिम्नामेतस्मिन् विनयशिशिरो मौग्ध्यमसृणो
विदग्धैर्निर्ग्राह्यो न पुनरविदग्धैरतिशयः।
मनो मे संमोहस्थिरमपि हरत्येष बलवान्
अयोधातुं यद्वत्परिलघुरयस्कान्तशकलः ॥
इस बालक में विद्यमान विनय से शीतल तथा कोमल जो महत्ता का उत्कर्ष है, वह सूक्ष्ममति मनुष्यों द्वारा ही ग्राह्य है, (स्थूलमति) अविवेकियों के द्वारा नहीं । यह बलिष्ठ बालक जैसे 'चुम्बक' का छोटा-सा टुकड़ा लोहे को अपनी ओर खींच लेता है, वैसे ही मेरे सम्मोह (शोकाघात) से स्थिर हृदय को अपनी ओर आकृष्ट कर रहा है।
अन्वय,शब्दार्थ और श्लोकार्थ-
एतस्मिन्= इस बालक में विद्यमान
विनयशिशिरो = विनय से शीतल तथा
मौग्ध्यमसृणो =कोमल और चिकने
महिम्नाम्=जो महत्ता का
अतिशयः=उत्कर्ष है,
विदग्धैः=वह सूक्ष्ममति मनुष्यों द्वारा ही
र्निर्ग्राह्यो=ग्राह्य है,
अविदग्धैः=अविवेकियों के द्वारा
न पुनः=नहीं।
एष बलवान्=यह बलिष्ठ बालक
संमोहस्थिरमपि=शोकाघात से स्थिर
मनो मे=मेरे हृदय को
हरति=(वैसे ही) आकृष्ट कर रहा है।
यद्वत्= जैसे
त्रयस्कान्तशकलः= चुम्बक का
परिलघुः= छोटा-सा टुकड़ा
अयोधातुं= लोहे को
(हरति)=अपनी ओर खींच लेता है।
लवः:(प्रविश्य,स्वगतम्) क्रमौचित्यात् पूज्यानपि सतः कथमभिवादयिष्ये?,अविज्ञातवयः(विचिन्त्य) अयं पुनरविरुद्धप्रकार इति वृद्धेभ्यः श्रूयते। (सविनयमुपसृत्य) एष वो लवस्य शिरसा प्रणामपर्यायः।
लव-(प्रवेश कर स्वयं ही) अवस्था, क्रम और औचित्य न जानने के कारण इन पूजनीयों को कैसे प्रणाम करू ? (इनमें कोन वयोवृद्ध है ? और किसे प्रथम प्रणाम करना चाहिये? मैं यह नहीं जानता (तो इन्हें कैसे प्रमाण करू?) (सोचकर) "यह प्रणाम की विरोध हीन पद्धति है" ऐसा गुरुजनों से सुना जाता है। (विनयपूर्वक पास जाकर) यह आपको 'लव' को (क्रमानुसार) प्रणाम-परम्परा है।
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
(प्रविश्य, स्वगतम्)=(प्रवेश कर स्वयं ही)
वयः= अवस्था
क्रमौचित्यात् =क्रम और औचित्य
अविज्ञातम्=न जानने के
सतः =कारण
पूज्यानपि =इन पूजनीयों को
कथम्=कैसे
अभिवादयिष्ये?=प्रणाम करूँ ?
(विचिन्त्य) =(सोचकर)
अयं =यह
पुनरविरुद्धप्रकार=प्रणाम की विरोध हीन पद्धति है
इति वृद्धेभ्यः=ऐसा गुरुजनों से
श्रूयते=सुना जाता है।
(सविनयमुपसृत्य)= (विनयपूर्वक पास जाकर)
एष वो =यह आपको
लवस्य = 'लव' का (क्रमानुसार)
शिरसा =सिर झुकाकर
प्रणामपर्यायः= प्रणाम-परम्परा है।
अरुन्धतीजनकौ : कल्याणिन्! आयुष्मान् भूयाः।=
अरुन्धती और जनक-कल्याण सम्पन्न ! चिरजीव हो!
कौसल्या : जात! चिरं जीव।=
कोसल्या-वत्स ! चिरञ्जीव !
अरुन्धती : एहि वत्स! (लवमुत्सङ्गे गृहीत्वा आत्मगतम्) दिष्ट्या न केवल-मुत्सङ्गश्चिरान्मनोरथोऽपि मे पूरितः।
अरुन्धती-आओ बेटा ! (लव को गोदी में लेकर स्वयं ही) सौभाग्य से केवल मेरी गोदी ही नहीं अपितु मेरी बहुत दिनों की अभिलाषा भी पूर्ण हो गई।
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
एहि वत्स!=आओ बेटा !
(लवमुत्सङ्गे गृहीत्वा आत्मगतम्)=(लव को गोदी में लेकर स्वयं ही)
दिष्ट्या =सौभाग्य से
केवलम्=केवल
उत्सङ्गः न=(मेरी) गोदी ही नहीं
मे चिरात्=(अपितु)मेरी बहुत दिनों की
मनोरथोऽपि=अभिलाषा भी
पूरितः=पूर्ण हो गई।
कौसल्या : जात! इतोऽपि तावदेहि। (उत्सङ्गे गृहीत्वा) अहो, न केवलं
मांसलोज्ज्वलेन देहबन्धेन, कलहंसघोषघर्घरानुनादिना स्वरेण च रामभद्रमनुसरति। जात! पश्यामि ते मुखपुण्डरीकम्। (चिबुकमुन्नमय्य, निरूप्य, सवाष्पाकूतम्) राजर्षे! किं न पश्यसि? निपुणं निरूप्यमाणो वत्साया मे वध्वा मुखचन्द्रेणापि संवदत्येव।
कौसल्या-बेटा इधर (मेरी गोद में) भी आओ ! (गोदी में लेकर) ओह ! यह केवल अर्धविकसित नोल-कमल के समान बलिष्ठ तथा तेजस्वी शरीर के गठन से ही नहीं अपितु कमल को केसर के खाने के कारण मधुर कण्ठ वाले हंस के घरघराते स्वर का अनुकरण करने ज्ञाले स्वर से भी राममद्र' का अनुसरण कर रहा है।ओह विकसित कमल के भीतरी भाग के समान सुकुमार इसके शरीर का स्पर्श भी वैसा ही है। बेटा! (जरा) तुम्हारा मुख-कमल (तो) देखूँ!(ठोडी को ऊँचाकर आँसू भरी आंखों से अभिप्राय-पूर्वक देखकर) राजर्षे।क्या आप नहीं देखते? कि ध्यान से देखने पर इस बालक का मुख मेरो प्रिय वधू सीता के मुख-चन्द्र से मिल रहा है।
जात! =बेटा
इतोऽपि=इधर (मेरी गोद में) भी
तावदेहि=आओ !
(उत्सङ्गे गृहीत्वा)=(गोदी में लेकर)
अहो,केवलं= ओह ! यह केवल
मांसलोज्ज्वलेन=बलिष्ठ तथा तेजस्वी
देहबन्धेन,न =शरीर के गठन से ही नहीं
कलहंस=मधुर कण्ठ वाले हंस के
घोषघर्घर =घरघराते स्वर का
अनुनादिना =अनुकरण करने ज्ञाले
स्वरेण च =स्वर से भी
रामभद्रम्=राममद्र' का
अनुसरति=अनुसरण कर रहा है।
जात! = बेटा!
ते =(जरा) तुम्हारा
मुखपुण्डरीकम्=मुख-कमल (तो)
पश्यामि =देखूँ!
(चिबुकमुन्नमय्य, निरूप्य, सवाष्पाकूतम्)=
(ठोडी को ऊँचाकर आँसू भरी आंखों से अभिप्राय-पूर्वक देखकर)
राजर्षे! =राजर्षे!
किं न =क्या आप नहीं
पश्यसि?=देखते?
निपुणं =कि ध्यान से
निरूप्यमाणो =देखने पर
वत्साया = इस बालक का मुख
मे वध्वा =मेरी प्रिय वधू सीता के
मुखचन्द्रेणापि = मुख-चन्द्र से भी
संवदत्येव= मिल रहा है।
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
जनक : पश्यामि, सखि! पश्यामि। (निरूप्य)=
जनक-देख रहा हूँ सखि देख रहा हूँ।(देखकर)
वत्सायाश्च रघूद्वहस्य च शिशावस्मिन्नभिव्यज्यते,
संवृत्तिः प्रतिबिम्बतेव निखिला सैवाकृतिः सा द्युतिः।
सा वाणी विनयः स एव सहजः पुण्यानुभावोऽप्यसौ
हा हा देवि किमुत्पथैर्मम मनः पारिप्लवं धावति ॥
इस बालक में बेटी सीता एवं रघुकुल-श्रेष्ठ राम का (पावन) सम्बन्ध प्रतिबिम्बित हो रहा है और आकृति कान्ति, वाणी, स्वाभाविक विनय तथा पवित्र प्रभाव भी ठीक वैसा ही है । हा ! हा! देवि ! (इसको देख कर) मेरा मन चञ्चल होकर उन्मार्गों से क्यों दौड़ रहा है ? (सीता के पुत्र को कल्पना क्यों कर रहा है ?)
अन्वय,शब्दार्थ और श्लोकार्थ-
अस्मिन्=इस
शिशौ=बालक में
वत्सायाश्च=बेटी सीता एवं
रघूद्वहस्य च=रघुकुल-श्रेष्ठ राम के
इव =जैसा
संवृत्तिः=सम्बन्ध
प्रतिबिम्बता=प्रतिबिम्बित हो रहा है
सैव=ठीक वैसा ही
निखिला=स्वाभाविक
आकृतिः=आकृति
सा द्युतिः=वही कान्ति
सा वाणी =वही वाणी
स एव =वही
सहजः =सहज
विनयः= विनय
पुण्यानुभावः=पवित्र प्रभाव
अपि=भी
असौ =इसमें
अभिव्यज्यते=अभिव्यंजित हो रहा है
हा हा देवि=हा ! हा! देवि !
मम=मेरा
मनः=मन
पारिप्लवं =चञ्चल होकर
किमुत्पथैः=उन्मार्गों से क्यों
धावति=दौड़ रहा है ?
कौसल्या : जात! अस्ति ते माता? स्मरसि वा तातम्?=
कौसल्या-वत्स ! तुम्हारी माता है ? क्या तुम अपने पिता को याद करते हो?
लवः:नहि।=
लव-नहीं।
कौसल्या:ततः कस्य त्वम्?=
कौसल्या-तब तुम किसके हो ?
लवः:भगवतः सुगृहीतनामधेयस्य वाल्मीकेः।=
लव: स्वनामधन्य भगवान् बाल्मीकि के।
कौसल्या:अयि जात! कथयितव्यं कथय।=
कौल्सया–प्यारे बेटे ! कहने योग्य बात कह ।
लवः : एतावदेव जानामि।=
लवः मैं तो इतना ही जानता हूँ।
(प्रविश्य सम्भ्रान्ताः)=
(प्रवेश कर घबराये हुए)
बटवः: कुमार! कुमार! अश्वोऽश्व इति कोऽपि भूतविशेषो जन
पदेष्वनुश्रूयते, सोऽयमधुनाऽस्माभिः स्वयं प्रत्यक्षीकृतः।
बटुगण-कुमार ! कुमार ! जनपदों में जो 'घोड़ा-घोड़ा' नामक कोई प्राणी विशेष सुना जाता है, अब हमने उसे स्वयं प्रत्यक्ष कर लिया है ।
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
कुमार! कुमार!=कुमार ! कुमार !
जनपदेषु=जनपदों में जो
अयम्=यह
अश्वोऽश्व इति='घोड़ा-घोड़ा' नामक
कोऽपि=कोई
भूतविशेषो=प्राणी विशेष
अनुश्रूयते=सुना जाता है
अधुना=अब
अस्माभिः=हमने
सः =उसे
स्वयं =स्वयं
प्रत्यक्षीकृतः=प्रत्यक्ष कर लिया है ।
लवः: 'अश्वोऽश्व' इति नाम पशुसमाम्नाये सांग्रामिके च पठ्यते, तद्
ब्रूत-कीदृशः?=
लव-'घोड़ा-घोड़ा' यह पशु-शास्त्र तथा संग्राम-शास्त्र में पढ़ा जाता है । तो बतलाओ-वह कैसा है ?
बटवः : अये, श्रूयताम्-
बटुगण-अजी सुनिये !
पश्चात्पुच्छं वहति विपुलं तच्च धूनोत्यजस्त्रम्
दीर्घग्रीवः स भवति, खुरास्तस्य चत्वार एव ।
शष्पाण्यत्ति.प्रकिरति शकृत्पिण्डकानाम्रमात्रान्
किं व्याख्यानैर्ऋजति स पुनर्दूरमेह्येहि यामः ॥
उसकी पिछली ओर बहुत लम्बी पूँछ लटकती है और वह उसे निरन्तर हिलाता रहता है । उसकी गर्दन लम्बी और खुर भी चार ही होते हैं। वह घास खाता है और आम्र-फलों जैसा मल-त्याग (लीद) करता है । अब अधिक वर्णन करने की आवश्यकता नहीं-वह घोड़ा दूर निकला जा रहा है। आओ ! आओ! चलें !
अन्वय,शब्दार्थ और श्लोकार्थ-
तस्य =उसकी
पश्चात्=उसकी पिछली ओर
विपुलं= बहुत लम्बी
पुच्छं=पूँछ
वहति=लटकती है
स तच्च=और वह उसे
अजस्रम्=निरन्तर
धूनोति=हिलाता रहता है।
दीर्घग्रीवः=(उसकी) गर्दन लम्बी
भवति=होती है।
खुराः=और खुर भी
चत्वार एव=चार ही होते हैं।
शष्पाण्यत्ति=(वह) घास खाता है
आम्रमात्रान्=और आम्र-फलों जैसा
शकृत्पिण्डकान्=मल-त्याग (लीद)
प्रकिरति =करता है ।
व्याख्यानैः=अधिक वर्णन करने की
किं =क्या आवश्यकता ?
स =वह घोड़ा
पुनर्दूरम्=पुनः दूर
व्रजति=निकला जा रहा है।
एह्येहि=आओ ! आओ!
यामः =चलें !
(इत्यजिने हस्तयोश्चाकर्षन्ति)=
ऐसा कहकर उसके हाथ और मगचर्म पकड़कर खींचते हैं।
लवः : (सकौतुकोपरोधविनयम्।) आर्याः! पश्यत। एभिर्नीतोऽस्मि।=
लव-(कौतूहल,बटुकों के आग्रह और विनय के साथ) आर्यगण !देखिये।इसके द्वारा ले जाया जा रहा हूँ।
(इतित्वरितं परिक्रामति।)=
(ऐसा कहकर शीघ्रता से घूमता है)
अरुन्धतीजनकौ: महत्कौतुकं वत्सस्य।=
अरुन्धती और जनक-बालक को (घोड़ा देखने का) बड़ा कौतूहल है।
कौसल्या : अरण्यगर्भरूपालापै!यं तोषिता वयं च। भगवति! जानामि तं पश्यन्ती वञ्चितेव। तस्मादितोऽन्यतो भूत्वा प्रेक्षामहे तावत् पलायमानं दीर्घायुषम्।
कौसल्या-बनवासी बालकों के रूप और बातचीत से आप और हम लोग बड़े सन्तुष्ट हुए हैं । भगवति ! मुझे तो ऐसा लगता है कि मानो मैं उसे देखती हुई ठगी-सी रह गई हूँ । इसलिये दूसरी ओर इस दीर्घायु को भागते हुए देखें।
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
अरण्यगर्भ=बनवासी बालकों के
रूपालापै=रूप और बातचीत से
वयं च=आप और हम लोग
यं तोषिता=बड़े सन्तुष्ट हुए हैं ।
भगवति!=भगवति !
जानामि=मुझे तो ऐसा लगता है कि मानो मैं
तं= उसे
पश्यन्ती=देखती हुई
वञ्चितेव=ठगी-सी रह गई हूँ ।
तस्मात्=इसलिये
तावत् =तब
इतोऽन्यतो=दूसरी ओर
भूत्वा=(एकान्त) होकर
दीर्घायुषम्=इस दीर्घायु को
पलायमानं=भागते हुए
प्रेक्षामहे =देखें।
अरुन्धती : अतिजवेन दूरमतिक्रान्तः स चपलः कथं दृश्यते?=
अरुन्धती-अत्यन्त वेग से दूर निकलने वाला वह चंचल (बालक) कैसे देखा जा सकता है ?
(प्रविश्य)=(प्रवेशकर)
बटवः : पश्यतु कुमारस्तावदाश्चर्यम्।=
बटवः-कुमार इस आश्चर्य को देखें।
लवः: दृष्टमवगतं च। नूनमाश्वमेधिकोऽयमश्वः।=
लव-देख लिया और समझ भी लिया ! निश्चय ही यह 'अश्वमेध' यज्ञ का घोड़ा है।
बटवः : कथं ज्ञायते?=
बटुगण-कैसे जानते हो ?
लवः : ननु मूर्खा:! पठितमेव हि युष्माभिरपि तत्काण्डम्। किं न पश्यथ?प्रत्येकं शतसंख्याः कवचिनो दण्डिनो निषङ्गिणश्च रक्षितारः। यदि च विप्रत्ययस्तत्पृच्छत।
लव-अरे मूर्खों ! तुम लोगों ने भी वह 'काण्ड' (अश्मेध-प्रतिपादक वेद का अध्याय) पढ़ा ही है। फिर क्या तुम सैकड़ों की संख्या में कवच-दण्ड तथा तूणीरधारियों को नहीं देखते ? इसी प्रकार (सेना का) दूसरा भाग भी (सुसज्जित) दिखाई दे रहा है (अत: यह निश्चय ही 'मेध्याश्व' है ।) और यदि तुम्हें विश्वास नहीं होता तो (इन अनुयायी रक्षकों से पूछ लो ।)
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
लवः : ननु मूर्खा:!=अरे मूर्खों !
युष्माभिरपि =तुम लोगों ने भी
तत्काण्डम्=वह 'काण्ड' (अश्मेध-प्रतिपादक वेद का अध्याय)
पठितमेव हि=पढ़ा ही है।
किं=फिर क्या तुम
शतसंख्याः =सैकड़ों की संख्या में
प्रत्येकं =प्रत्येक
कवचिनो =कवच-
दण्डिनो=दण्ड तथा
निषङ्गिणश्च =तूणीरधारियों को
रक्षितारः=रक्षा करते हुए
न पश्यथ?=नहीं देखते ?
यदि च =और यदि
विप्रत्ययः=(तुम्हें) संदेह होता है
तत् =तो (इन अनुयायी रक्षकों से)
पृच्छत=पूछ लो ।
बटवः : भो भोः! किंप्रयोजनोऽयमश्वः परिवृतः पर्यटति?=
बटुगण-अरे ! रक्षकों से घिरा हुआ यह घोड़ा क्यों घूम रहा है ?
लवः : (सस्पृहमात्मगतम्) अश्वमेध' इति नाम विश्वविजयिनां क्षत्रियाणामूर्जस्वलः सर्वक्षत्रपरिभावी महान् उत्कर्षनिकषः।
लव-(अभिलाषापूर्वक, स्वयं ही ) 'अश्वमेध' यह विश्व-विजयी क्षत्रियों की समस्त (शत्रु) राजाओं को पराजित करने वाली अत्यन्त शक्तिशालिनी बड़ी भारी कसौटी है।
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
(सस्पृहमात्मगतम्)=(अभिलाषापूर्वक, स्वयं ही )
'अश्वमेध'='अश्वमेध'
इति नाम=यह
विश्वविजयिनां=विश्व-विजयी
क्षत्रियाणाम्=क्षत्रियों की
सर्वक्षत्रपरिभावी=समस्त (शत्रु) राजाओं को पराजित करने वाली
उर्जस्वलः=अत्यन्त शक्तिशालिनी
महान् =बड़ी
उत्कर्षनिकषः=भारी कसौटी है।
(नेपथ्ये)=(नेपथ्य में)
योऽयमश्वः पताकेयमथवा वीरघोषणा ।
सप्तलोकैकवीरस्य दशकण्ठकुलद्विषः ॥
यह जो घोड़ा (दिखाई दे रहा है) वह सातों लोकों के एकमात्र वीर, रावण कुल के शत्रु (भगवान् राम) की विजय पताका अथवा वीर घोषणा है।
अन्वय,शब्दार्थ और श्लोकार्थ-
योऽयमश्वः=यह जो घोड़ा(दिखाई दे रहा है)
सप्तलोकैकवीरस्य=वह सातों लोकों के एकमात्र वीर,
दशकण्ठकुलद्विषः=रावण कुल के शत्रु (भगवान् राम)
पताकेयमथवा=की विजय पताका अथवा
वीरघोषणा=वीर घोषणा है।
लवः : (सगर्वम्)। अहो! संदीपनान्यक्षराणि।=
लव-(सगर्व) ओह! ये अक्षर बड़े कोधोत्पादक हैं ।
बटवः : किमुच्यते? प्राज्ञः खलु कुमारः।=
बटुगण-क्या कहते हो? (कि यह 'अश्वमेध-यज्ञ' का घोड़ा है ? तब तो 'कुमार' बड़े विज्ञ है ।(क्योंकि बिना पूछे हो समझ लिया था कि यह 'मेध्याश्व' है।)
लवः : भो भोः! तत्किमक्षत्रिया पृथिवी? यदेवमुद्घोष्यते?= (नेपथ्ये)=
लव-अरे सैनिकों ! तो क्या पृथ्वी क्षत्रिय-शून्य है ! जो इस प्रकार घोषणा कर रहे हो।
(नेपथ्ये)=(नेपथ्य में)
रे, रे, महाराजं प्रति कः क्षत्रियः?=
अरे ! रे! (महाराज के सामने) कौन क्षत्रिय हैं ? (ऐसा कौन-सा क्षत्रिय है जो कि भगवान राम की तुलना में आ सकता हो?)
लवः : धिग् जाल्मान्।=
लव-तुम नीचों को धिक्कार हैं।
यदि नो सन्ति सन्त्येव केयमद्य विभीषिका ।
किमुक्तैरेभिरधुना तां पताकां हरामि वः ॥
यदि क्षत्रिय नहीं हैं,(ऐसा कहते हो तो मैं कहता हूँ कि) वे हैं ही। यह व्यर्थ का डर क्यों दिखा रहे हो इन बातों को कहने से क्या लाभ? मैं उस पताका का हरण कर रहा हूँ। (यदि तुममें शक्ति हो तो मुझे रोको ।)
अन्वय,शब्दार्थ और श्लोकार्थ-
यदि नो सन्ति =यदि क्षत्रिय नहीं हैं,
(ऐसा कहते हो तो मैं कहता हूँ कि)
सन्त्येव=वे हैं ही।
इयमद्य=आज यह
विभीषिका=(व्यर्थ का) डर
का=क्या है?
एभिरधुना= इन बातों को इस समय
किमुक्तैः=कहने से क्या लाभ?
तां पताकां=उस पताका का
हरामि वः =मैं हरण कर रहा हूँ।
हे बटवः! परिवृत्य लोष्ठैरभिजन्त उपनयतैनमश्वम्। एष रोहितानां मध्येचरो भवतु।
अरे। बटुकों! इस घोडे को घेर कर ढेलों से मारते हुए (आश्रम में) ले आओ। यह भी मृगों के बीच विचरण करे ।(मगों के साथ ही यह भी घास खाया करे)
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
हे बटवः!=अरे। बटुकों!
एनमश्वम्=इस घोडे को
परिवृत्य=घेर कर
लोष्ठैरभिजन्त =ढेलों से मारते हुए
उपनयत=(आश्रम में) ले आओ।
एष रोहितानां=यह भी मृगों के
मध्येचरो=बीच विचरण
भवतु= करे।
(प्रविश्य सक्रोधः)=(प्रवेशकर क्रोध से)
पुरुषः : धिक् चपल! किमुक्तवानसि? तीक्ष्णतरा ह्यायुधश्रेणयः शिशोरपि दृप्तां वाचं न सहन्ते।
पुरुष-चुप ! चपल! क्या कह रहा है ? 'तीखे शस्त्र वाले बच्चे भी गर्वीली वाणी नहीं सहते ! '(शस्त्रधारी बालक को भी गर्व भरी वाणी नहीं सहन करते ।)
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
धिक् चपल!=चुप ! चपल!
किमुक्तवानसि?=क्या कह रहा है ?
तीक्ष्णतरा='तीखे
ह्यायुधश्रेणयः=शस्त्र वाले
शिशोरपि =बच्चे भी
दृप्तां वाचं=गर्वीली वाणी
न सहन्ते=नहीं सहते। '
राजपुत्रश्चन्द्रकेतुर्दुर्दान्तः, सोऽप्यपूर्वारण्यदर्शनाक्षिप्तहृदयो न यावदायाति , तावत् त्वरितमनेन तरुगहनेनापसर्पत।
राजकुमार 'चन्द्रकेतु' बडे दुर्दमनीय है । अपूर्व (परम रमणीय) वन की शोभा देखने में उत्सुक जब तक वे नहीं आते हैं तब तक तुम इन सघन वृक्षों में छिपकर भाग जाओ।
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
राजपुत्रः=राजकुमार
चन्द्रकेतु= 'चन्द्रकेतु'
र्दुर्दान्तः =बडे दुर्दमनीय है ।
सोऽपि=वह भी
अपूर्वारण्य=अपूर्व (परम रमणीय) वन की
दर्शनाक्षिप्तहृदयो=देखने में उत्सुक
न यावदायाति=जब तक वे नहीं आते हैं
तावत्=तब तक
त्वरितमनेन=शीघ्र ही इस
तरुगहने=सघन वृक्षों में
नापसर्पत=छिपकर भाग जाओ।
बटवः : कुमार! कृतं कृतमश्वेन। तर्जयन्ति विस्फारितशरासनाः कुमारमायुधीयश्रेणयः। दूरे चाश्रमपदम्। इतस्तदेहि। हरिणप्लुतैः पलायामहे।
बटुगण-कुमार ! घोड़े को रहने दो ! धनुष ताने हुए शस्त्रधारियों के समूह तुम्हें धमका रहे हैं; और आश्रम यहाँ से दूर है । अतः आओ! हरिणों की मांति कूद-कूद कर भाग चले ।
अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
कुमार!=कुमार !
अश्वेन=घोड़े को
कृतं =रहने दो !
कृतम्=रहने दो !
शरासनाः=धनुष
विस्फारित=ताने हुए
कुमारम्=कुमार
आयुधीयश्रेणयः=शस्त्रधारियों के समूह
तर्जयन्ति=तुम्हें धमका रहे हैं;
चाश्रमपदम्=और आश्रम
दूरे=यहाँ से दूर है।
तदेहि= अतः आओ!
हरिणप्लुतैः=हरिणों की मांति कूद-कूद कर
इतः=यहाँ से
पलायामहे=भाग चलें।
लवः : किं नाम विस्फुरन्ति शस्त्राणि?=
लव-क्या शस्त्र चमक रहे हैं ?
(इति धनुरारोपयति)=
(धनुष सन्धान करता हुआ।)
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जयतु संस्कृतम्।