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सोमवार, 29 जून 2020

शुकनासोपदेशः

 जेसीईआरटी तथा एनसीईआरटी के कक्षा-12 के संस्कृत पाठ्यपुस्तक-शाश्वती भाग 2 के  पञ्चम: पाठ: शुकनासोपदेशः  का शब्दार्थ सहित हिन्दी अनुवाद एवं भावार्थ तथा उस पर आधारित प्रश्नोत्तर सीबीएसई सत्र 2022-2023 के लिए यहाँ दिए गए हैं।यहाँ दिए गए हिंदी अनुवाद तथा भावार्थ की मदद से विद्यार्थी पूरे पाठ को आसानी से समझकर अभ्यास के प्रश्नों को स्वयं कर सकते हैं।

        महाकवि बाणभट्ट संस्कृत के सर्वाधिक प्रतिभाशाली गद्यकार हैं। इनकी दो रचनाएँ सुप्रसिद्ध हैं- हर्षचरित और कादम्बरी।कादम्बरी संस्कृत साहित्य का सर्वोत्कृष्ट गद्य काव्य है। यह 'कथा' श्रेणी का काव्य है। चन्द्रापीड-कादम्बरी तथा पुण्डरीक महाश्वेता के प्रणय का चित्रण करने वाली कथा 'कादम्बरी' के दो भाग हैं। इसका कथानक जटिल होते हुए भी मनोरम है। इसमें कथा का प्रारम्भ राजा शूद्रक के वर्णन से होता है। शूद्रक के यहाँ चाण्डालकन्या वैशम्पायन नामक शुक को लेकर पहुँचती है। शुक सभा में आत्म-वृत्तान्त सुनाता है। इस ग्रन्थ में तीन-तीन जन्मों की घटनाएँ गुम्फित हैं।
         प्रस्तुत पाठ इसी 'कादम्बरी' के शुकनासोपदेशः नामक गद्यांश से लिया गया है। इस अंश का नायक राजकुमार चन्द्रापीड है,जो सत्व, शौर्य और आर्जव भावों से युक्त है। शुकनास एक अनुभवी मन्त्री हैं.जो राजकुमार चन्द्रापीड को राज्याभिषेक के पूर्व वात्सल्यभाव से उपदेश देते हैं। इसे युवावस्था में प्रवेश कर रहे समस्त युवकों को प्रदत्त 'दीक्षान्त भाषण' कहा जा सकता है।
              
   धन और युवावस्था का आलोचना करनेवाला तथा  विश्व साहित्य का पहला उपन्यासकार और उनका उपन्यास
                                                           शुकनासोपदेश का सारांश
      धन मानव जीवन की महत्वपूर्ण आवश्यकता है तथा युवावस्था उसका स्वर्णिम काल है। धन के बिना मनुष्य का जीवन नरक के समान हो जाता है।परन्तु धन की अधिकता हानिकर भी सिद्ध होती है। भारतीय संस्कृति में धन का सम्बन्ध देवी लक्ष्मी जी से है।देवी लक्ष्मी जी को धन की देवी मानकर उनका पूजा-पाठ किया जाता है।शास्त्रों में उनकी स्तुति और प्रशंसा हुई है।प्रायः प्राचीन से लेकर अर्वाचीन काव्यों में लक्ष्मी जी की  स्तुति और प्रशंसा  हुई है।परन्तु संस्कृत साहित्य के कुछ ऐसे भी काव्य हैं,जिसमें लक्ष्मी जी की आलोचना भी की गयी है।उन्हीं मे एक गद्य काव्य ऐसा भी है,जिसे विश्व साहित्य का पहला उपन्यास माना जाता है।उस गद्य काव्य में लक्ष्मी जी की आलोचना की गयी है।
    उस गद्य काव्य में बताया गया है कि लक्ष्मी इन्द्रजाल जैसे सम्मोहन से विश्व को विमुग्ध करती है तथा भौतिक उन्नति के रूप में नीच स्वभाव का प्रवर्त्तन करती है।लक्ष्मी रुपी धन की गर्मी रहने पर भी यह शीत ऋतु के समान जडता अर्थात् आलस्य उत्पन्न करती है।जिस प्रकार शीतऋतु में मनुष्य अत्यधिक शीत के कारण कोई काम करने केलिए नहीं उठता है,उसीप्रकार अत्यधिक धन हो जाने पर भी मनुष्य कोई काम करने के लिए नहीं उठता है।इसप्रकार यह लक्ष्मी सम्प्रभुता को उपस्थित करती हुई भी जीवन में तुच्छता ला देती है।मनुष्य धन सम्पन्न होकर भी स्वयं अपना कार्य नहीं कर पाता,दूसरों पर निर्भर हो जाता है।यह लक्ष्मी सैन्य बल की वृद्धि करती हुई भी शक्तिहीन बना देती है।मनुष्य सैन्य बल पर भरोसा करके स्वयं की शक्ति का विकास नहीं कर पाता है।देवताओं और राक्षसों के द्वारा किेये गये समुन्द्र मंथन में अमृत के साथ उत्पन्न होकर भी यह विष जैसी कटुता उत्पन्न करती है।पुरुषोत्तम विष्णु जी की प्रिया होती हुई भी दीपक की लौ के समान कालिख उत्पन्न करती है।यह लक्ष्मी तृष्णा को जगाती है।इन्द्रियों को विषयों में लगाती है।निद्रा जैसी मोहिनी दशा, कालिमा जैसी अँधियारी तथा मधुशाला जैसी मतीली दशा को उत्पन्न करती है।यह लक्ष्मी दोष रुपी विषैले सर्पों के रहने की खोह है।शिष्टाचार को दूर हटाने वाली बेंत की छडी है।सद्गुण रुपी राजहंसों को हटाने के लिए बिना समय की वर्षा है।सज्जनता का फाँसी घर है।धर्म रुपी चन्द्रमण्डल के लिए राहु की जीभ है।
     लक्ष्मीजी के दोषों का वर्णन करते हुए इसमें युवावस्था के दोषों को भी नहीं छोडा गया है।युवावस्था की भी भरपूर आलोचना की गयी है।यौवन के प्रारम्भ में शास्त्ररुपी जल से धुली हुई निर्मल बुद्धि भी कलुषित हो जाती है।यौवन के उन्मादक परिणाम से शास्त्रज्ञान भी रक्षा नहीं कर पाते।तरुण व्यक्तियों के उज्ज्वल आँखों में प्रेम व्यापार की लालिमा सदैव छायी रहती है।रजोगुण का प्रभाव यौवन काल में इतनी प्रचण्डता प्राप्त कर लेता है कि वह युवक की बुद्धि को बवंडर में पडे तिनके की तरह विभ्रम में डाल दिया करता है।विषय-सुख भोगने की लालसा ्त्यन्त विषम हुआ करती है।युवावस्था में विषयों का वह सुख ही मधुर और हितकर प्रतीत होता है,जो अन्त में दुखों की सृष्टि करने वाला है।इससे मनुष्य कुमार्गगामी होकर विनाश को प्राप्त हो जाता है। लक्ष्मी और युवावस्था का आलोचना करने  के बाद इसमें यह भी बताया गया है कि ऐसे लोगों पर शिक्षा का प्रभाव नहीं के बराबर पडता है।इसप्रकार इस गद्य काव्य में बतायी गयी बातें आज के लिए  अत्यन्त प्रासंगिक है।
     यह गद्य काव्य  संस्कृत वाङ्मयमय का बहुत ही प्रसिद्ध  गद्य काव्य है।जिसका नाम है-कादम्बरी।जिसकी रचना आज से करीब 1300वर्ष पहले सातवीं शताब्दी में हुई थी।उस समय कन्नौज के राजा हर्षवर्द्धन का राज्य था।उन्हीं के दरबारी कवि थे-बाणभट्ट।इन्होने दो प्रमुख ग्रन्थों की रचना की-हर्षचरित्र और कादम्बरी।कादम्बरी को ही विश्व साहित्य का पहला उपन्यास माना जाता है,जिसे संस्कृत मे आख्यायिका कहा जाता है।कादम्बरी की कहानी काल्पनिक है।शुकनासोपदेश इसी कादम्बरी का एक अंश है।इसमें महाकवि ने राजा तारापीड के मन्त्री शुकनास के माध्यम से युवराज के पद पर अभिषिक्त होने वाले चन्द्रापीड को लक्ष्मी और युवावस्था की आलोचना करते हुए उपदेश दिलवाया है।
द्वादश वर्ग संस्कृत विषय के पाठ्य पुस्तक शाश्वती के पंचम् पाठ शुकनासोपदेश के मूल पाठ के पहले अनुच्छेद का सम्पादित अंश-
           एवं समतिक्रामत्सुदिवसेषु राजा चन्द्रापीडस्य यौवराज्याभिषेकं चिकीर्षुः प्रतिहारानुपकरण -सम्भारसंग्रहार्थमादिदेश।समुपस्थितयौवराज्याभिषेकं च तं कदाचित् दर्शनार्थमागतमारुढविनयमपि विनीततरमिच्छन् कर्तुं शुकनासः सविस्तरमुवाच-
अर्थात् इसप्रकार कुछ दिन बीत जाने पर राजा चन्द्रापीड का युवराज के पद पर अभिषेक करने के इच्छुक द्वारपालों को सभी सामग्री संग्रह करने के लिए आदेश दिया। और जिसका युवराज के पद पर अभिषेक होने वाला था, कभी दर्शन के लिए आया हुआ और विनयशील होने पर भी उसको और विनीत करने की इच्छा करते हुए विस्तार पूर्वक उपदेश दिया।
गद्यांश का अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
 एवं समतिक्रामत्सुदिवसेषु-इसप्रकार कुछ दिन बीत जाने पर
 राजा चन्द्रापीडस्य    -राजा चन्द्रापीड का
 यौवराज्याभिषेकं -युवराज के पद पर अभिषेक  चिकीर्षुः     -करने के इच्छुक
प्रतिहारानुपकरण -सम्भार -द्वारपालों को सभी सामग्री
 संग्रहार्थमादिदेश -संग्रह करने के लिए आदेश दिया।
 समुपस्थितयौवराज्याभिषेकं च तं  -और जिसका युवराज के पद पर अभिषेक होने वाला था,
 कदाचित्     -कभी
 दर्शनार्थमागतमारुढविनयमपि -दर्शन के लिए आया हुआ और विनयशील होने पर भी उसको
 विनीततरमिच्छन् कर्तुं    -और विनीत करने की
                                 इच्छा करते हुए
शुकनासः सविस्तरमुवाच--विस्तार पूर्वक उपदेश दिया।


     
तात चन्द्रापीड। विदितवेदितव्यस्याधीतसर्वशाश्त्रस्य ते नाल्पमप्युपदेष्टव्यमस्ति। केवलं च निसर्गत एवातिगहनं तमो यौवनप्रभवम्।अपरिणामोपशमो दारूणो लक्ष्मीमदः।अप्रबोधा घोरा च राज्यसुखसन्निपातनिद्रा भवति,इत्यतःविस्तरेणाभिधीयसे।
      अर्थात् वत्स चन्द्रापीड।जानने योग्य बातों को जानने वाले तथा समस्त शाश्त्रों का अध्ययन किये हुए तुझे कुछ भी उपदेश देना नहीं है। और केवल स्वभाव से ही अत्यन्त गहन अन्धकार यौवन से उत्पन्न होता है। अन्तिम अवस्था में भी शान्त न होने वाला  धन का अहंकार भयंकर होता है।राज्यसुख के समूह रुप निद्रा नहीं खुलती है और घोर होती है,इसलिए विस्तारपूर्वक तुझसे कहा जा रहा है।

                  गद्यांश का अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ- 

                
             विदितवेदितव्यस्य – जानने योग्य बातों को
                              जानने वाले
             अधीतसर्वशाश्त्रस्य-    तथा समस्त शाश्त्रों 
                              का अध्ययन किये हुए
      ते नाल्पमप्युपदेष्टव्यमस्ति-  तुझे कुछ भी उपदेश
                              देना नहीं है।
                     केवलं च-   और केवल
                  निसर्गत एव-  स्वभाव से ही
                अतिगहनं तमो-   अत्यन्त गहन अन्धकार
                  यौवनप्रभवम्-  यौवन से उत्पन्न होता है।
               अपरिणामोपशमो-   अन्तिम अवस्था में भी
                              शान्त न होने वाला
               लक्ष्मीमदःदारूणो-   धन का अहंकार
                               भयंकर होता है।
          राज्यसुखसन्निपातनिद्रा- राज्यसुख के समूह
                              रुप निद्रा
          अप्रबोधा घोरा च भवति,- नहीं खुलती है 
                              और घोर होती है,
          इत्यतःविस्तरेणाभिधीयसे- इसलिए विस्तारपूर्वक 
                               तुझसे कहा जा रहा है।

गर्भेश्वरत्वमभिनवयौवनत्वम्,अप्रतिमरुपत्वममानुषशक्तित्वञ्चेति महतीयं खल्वनर्थपरम्परा। यौवनारम्भे च प्रायःशास्त्रजलप्रक्षालन- निर्मला कालुष्यमुपयाति बुद्धिः।नाशयति च पुरुषमत्यासङ्गो विषयेषु। 
          अर्थोत् गर्भ से ही प्राप्त ऐश्वर्य नूतन यौवन निरुपम् सौन्दर्य अलौकिक शक्ति निश्चय ही महान् अनर्थों की परम्परा है।और यौवन के आरंभ में प्रायः शास्त्ररुपी जल से स्नान द्वारा निर्मल हुई बुद्धि भी मलिनता को प्राप्त होती है और विषयों में पुरुषों की अत्यासक्ति उसे नष्ट कर देती है।

गद्यांश का अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ- 

                                 गर्भेश्वरत्वम्-गर्भ से ही प्राप्त ऐश्वर्य
              अभिनवयौवनत्वम्,-नूतन यौवन
                  अप्रतिमरुपत्वम्-निरुपम् सौन्दर्य
         अमानुषशक्तित्वम् चेति-अलौकिक शक्ति
                       खलु महतीयं-निश्चय ही महान् 
               अनर्थपरम्परा-अनर्थों की
                                           परम्परा है।
                      यौवनारम्भे च-और यौवन के
                                           आरंभ में 
            प्रायःशास्त्रजलप्रक्षालन-प्रायः शास्त्ररुपी
                                             जल से स्नान द्वारा
                       निर्मलापि बुद्धिः-निर्मल हुई बुद्धि भी
                      कालुष्यमुपयाति-मलिनता को
                                             प्राप्त होती है।
                             विषयेषु च-और विषयों में 
                       पुरुषमत्यासङ्गो-पुरुषों की 
                                           अत्यासक्ति उसे 
                              नाशयति-नष्ट कर देती है


भवादृशा एव भवन्ति भाजनान्युपदेशानाम्।अपगतमले हि मनसि विशन्ति सुखेनोपदेशगुणाः।हरति अतिमलिनमपि दोषजातं गुरुपदेशःगुरुपदेशश्च नाम अखिलमलप्रक्षालनक्षमम् अजलं स्नानम्।विॆशेषेण तु राज्ञाम।विरला हि तेषामुपदेष्टारः।राजवचनमनुगच्छति जनो भयात्।उपदिश्यमानमपि ते न श्रृण्वन्ति।अवधीरयन्तःखेदयन्ति हितोपदेशदायिनो गुरुन्।
        अर्थात् आप जैसे  लोग ही उपदेशों के पात्र होते हैं।क्योंकि निर्मल मन में ही उपदेशों के गुण सुखपूर्वक प्रवेश करते हैं।गुरु का उपदेश अत्यन्त मलिन दोष को भी हर लेता है और गुरु का उपदेश समस्त दोषों को दूर करने में समर्थ बिना जल का स्नान है।विशेषकर तो राजा के लिए,क्योंकि उनको उपदेश देने वाले विरला ही होते हैं।लोग भय से राजा की आज्ञा का पालन करते हैं।उपदेश दिये जाने पर भी वेलोग नहीं सुनते हैं।तथा हितकर उपदेश देने वाले गुरुओं का अनादर करते हुए कष्ट पहुँचाते हैं।
गद्यांश का अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ- 
           भवादृशा एव-आप जैसे
                                 लोग ही
            उपदेशानाम्-उपदेशों के
                भाजनानि-पात्र
                    भवन्ति-होते हैं।
                          हि-क्योंकि
              अपगतमले-निर्मल
                हि मनसि-मन में ही
            उपदेशगुणाः-उपदेशों
                                के गुण
                     सुखेन-सुखपूर्वक
                  विशन्ति-प्रवेश
                               करते हैं।
                गुरुपदेशः-गुरु का
                               उपदेश
           अतिमलिनम्-अत्यन्त मलिन
       दोषजातम् अपि-दोष को भी
                      हरति-हर लेता है।
       गुरुपदेशश्च नाम-और गुरु
                                का उपदेश
              अखिलमल-समस्त
                                दोषों को
          प्रक्षालनक्षमम्-दूर करने में
                                समर्थ
                     अजलं-बिना जल का
                     स्नानम्-स्नान है।
               विॆशेषेण तु-विशेषकर तो
                     राज्ञाम्-राजा के
                                लिए,
           तेषामुपदेष्टारः-(क्योंकि) उनको
                                उपदेश देने
                                 वाले
                 विरला हि-विरला ही
                                 होते हैं।
               जनो भयात्-लोग भय से
               राजवचनम्-राजा की
                                 आज्ञा का
               अनुगच्छति-पालन
                                 करते हैं।
      उपदिश्यमानमपि-उपदेश दिये
                                 जाने पर भी
             ते न श्रृण्वन्ति-वेलोग नहीं
                                 सुनते है्ं।
      हितोपदेशदायिनो-(तथा)हितकर
                                 उपदेश देने
                                 वाले
                        गुरुन्-गुरुओं का
              अवधीरयन्तः-अनादर
                                  करते हुए
                   खेदयन्ति-कष्ट पहुँचाते हैं।

आलोकयतु तावत् कल्याणाभिनिवेशी लक्ष्मीमेव प्रथमम्।न ह्येवं विधमपरिचितमिह जगति किञ्चिदस्ति यथेयमनार्या। लब्धापि खलु दुःखेन परिपाल्यते।परिपालितापि प्रपलायते।न परिचयंं रक्षति।नाभिजनमीक्षते।न रुपमालोकयते।न कुलक्रममनुवर्तते।न शीलं पश्यति।न वैदग्ध्यं गणयति।न श्रुतमाकर्णयति।न धर्ममनुरुध्यते।न त्यागमाद्रियते।न विशेषज्ञतां विचारयति।नाचारं पालयति।नसत्यमवबुध्यते।पश्यत एव नश्यति।सरस्वती परिगृहीतं नालिङ्गति जनम्।गुणवन्तं न स्पृशति।सुजनं न पश्यति।शूरं कण्टकमिव परिहरति।दातारं दुस्वप्नमिव न स्मरति।विनीतं नोपसर्पति।तृष्णां संवर्धयति।लघिमानमापादयति।एवं विधयापि चानया कथमपि दैववशेन परिगृहीताः विक्लवाः भवन्ति राजानः,सर्वाविनयाधिष्ठानतां च गच्छति।
        अर्थात् तब कल्याण में आग्रह रखनेवाली लक्ष्मी को ही पहले देखो।क्योंकि इस जगत में ऐसी कोई अपरिचित वस्तु नहीं है,जैसी यह असभ्या।प्राप्त होने पर भी निश्चित रुप से दुःख से पाली जाती है।अच्छी तरह से रक्षा किेये जाने पर भी भाग जाती है।परिचय की परवाह नहीं करती है।न उच्च कुल को देखती है।न सौन्दर्य देखती है।न  कुलक्रम का अनुसरण करती है। न नम्रता देखती है।न विद्वता की गणना करती है। न वेदों को सुनती है।न धर्म का अनुरोध मानती है। न त्याग का आदर करती है।न विशेषज्ञता का विचार करती है।न आचार का पालन करती है। न सत्य को समझती है।देखते ही नष्ट हो जाती है। सरस्वती द्वारा स्वीकृत व्यक्तियों का आलिङ्गन नहीं करती है।गुणवानों को स्पर्श नहीं करती है।अच्छे व्यक्तियों को नहीं देखती है।वीर व्यक्तियों को काँटे के समान त्याग देती है। दानी व्यक्तियों को दुस्वप्न के समान स्मरण नहीं करती है। विनम्र व्यक्तियों के पास नहीं जाती है।तृष्णा को बढाती है।हल्कापन उत्पन्न करती है और इसप्रकार इस दुराचारिणी के द्वारा किसी तरह भी भाग्यवश स्वीकृत किए गए राजा लोग व्याकुल हो जाते हैं।और सभी क्रूरताओं का आधार बन जाते हैं।
गद्यांश का अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ- 
          तावत्-तब
      कल्याणे-कल्याण में
 अभिनिवेशी-आग्रह रखनेवाली
    लक्ष्मीमेव-लक्ष्मी को ही
       प्रथमम्-पहले
 आलोकयतु-देखो।
              हि-क्योंकि
   इह जगति- इस जगत में
 एवं किञ्चित्-ऐसी कोई
अपरिचितम्-अपरिचित
         विधम्-वस्तु
      न अस्ति- नहीं है,
 यथेयमनार्या-जैसी यह
                    असभ्या।
      लब्धापि-प्राप्त होने पर भी
           खलु-निश्चित रुप से
        दुःखेन-दुःख से
  परिपाल्यते-पाली जाती है।
परिपालिता-अच्छी तरह से रक्षा
                  किेये जाने पर भी
          अपि-भी
   प्रपलायते-भाग जाती है।
      परिचयंं-परिचय की
     न रक्षति-परवाह नहीं
                  करती है।
  नाभिजनम्-न उच्च कुल को
          ईक्षते-देखती है।
      न रुपम्-न सौन्दर्य
 आलोकयते-देखती है।
न कुलक्रमम्-न कुलक्रम का
      अनुवर्तते-अनुसरण करती है।
         न शीलं-न नम्रता
         पश्यति-देखती है।
      न वैदग्ध्यं-न विद्वता की
        गणयति-गणना करती है।
        न श्रुतम्-न वेदों को
   आकर्णयति-सुनती है।
        न धर्मम्-न धर्म का
     अनुरुध्यते-्अनुरोध मानती है।
      न त्यागम्-न त्याग का
       आद्रियते-आदर करती है।
 न विशेषज्ञतां-न विशेषज्ञता का
    विचारयति-विचार करती है।
          नाचारं-न आचार का
       पालयति-पालन करती है।
        नसत्यम्-न सत्य को
     अवबुध्यते-समझती है।
    पश्यत एव-देखते ही
         नश्यति-नष्ट हो जाती है।
      सरस्वत्या-सरस्वती द्वारा
      परिगृहीतं-स्वीकृत
           जनम्-व्यक्तियों का
    नालिङ्गति-आलिङ्गन
                    नहीं करती है।
       गुणवन्तं-गुणवानों को
    न स्पृशति-स्पर्श नहीं
                    करती है।
           सुजनं-अच्छे व्यक्तियों को
     न पश्यति-नहीं देखती है।
              शूरं-वीर व्यक्तियों को
  कण्टकमिव-काँटे के समान
      परिहरति-त्याग देती है।
          दातारं-दानी व्यक्तियों को
    दुस्वप्नमिव-दुस्वप्न के समान
      न स्मरति-स्मरण नहीं
                     करती है।
         विनीतं-विनम्र व्यक्तियों
                    के पास
   नोपसर्पति-नहीं जाती है।
          तृष्णां-तृष्णा को
    संवर्धयति-बढाती है।
   लघिमानम्-हल्कापन
  आपादयति-उत्पन्न करती है।
          एवं च-और इसप्रकार
         अनया-इस
     विधयापि-दुराचारिणी
                     के द्वारा
      कथमपि-किसी तरह भी
      दैववशेन-भाग्यवश
   परिगृहीताः-स्वीकृत किए गए
        राजानः-राजा लोग
      विक्लवाः-व्याकुल
        भवन्ति-हो जाते हैं।
 सर्वाविनयं च-और सभी
                      क्रूरताओं का
    अधिष्ठानतां-आधार
         गच्छति-बन जाते हैं।
        
अपरे तु स्वार्थनिष्पादनपरैःदोषानपि गुणपक्षमध्यारोपयद्भि प्रतारणकुशलैर्धूर्त्तैः प्रतार्यमाणा वित्तमदमत्तचित्ता सर्वजनोपहास्यतामुपयान्ति।न मानयन्ति मान्यान्,जरावैक्लव्यप्रलपितमिति पश्यन्ति वृद्धोपदेशम्।कुप्यन्ति हितवादिने।सर्वथा तमभिनन्दति,तं संवर्धयन्ति,तस्य वचनं श्रृण्वन्ति,तं बहु मन्यन्ते योsहर्निशम् अनवरतं विगतान्य कर्त्तव्यःस्तौति,यो वा माहात्म्यमुद्भावयति।
              अर्थात् अन्य राजा लोग तो स्वार्थ सिद्ध करने मेंं लगे हुए दोषों को भी गुणों की श्रेणी में आरोपित करने वाले छलने में चतुर ठगो द्वाराठगे जात हुए धन के अहंकार से भरे हुए चित्त वाले सभी लोगो  के द्वारा उपहास के पात्र बनते हैं।वेलोग सम्माननियों का सम्मान नहीं करते हैं,वृद्धों के उपदेश को बुढापे में सठियाने के कारण बकवाद के रुप में हित की बात कहने वाले पर क्रोध करते हैं।हमेशा उसी का अभिनन्दन करते हैं,उसी को बढाते हैं,उसी का वचन सुनते हैं,उसी को बहुत मानते है,जो दिन-रात निरन्तर अन्य कर्त्तव्यों को छोडकर उनकी स्तुति करता है अथवा जो उनकी महिमा को गाता है।
गद्यांश का अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ- 
             अपरे तु-अन्य(राजा लोग) तो

  स्वार्थनिष्पादनपरैः-स्वार्थ सिद्ध करने मेंं
                                 लगे हुए
             दोषानपि-दोषों को भी
             गुणपक्षम्-गुणों की श्रेणी में   
      अध्यारोपयद्भि-आरोपित करने
                             वाले
 प्रतारणकुशलैर्धूर्त्तैः-छलने में चतुर
                             ठगो द्वारा
         प्रतार्यमाणा-ठगे जात हुए
 वित्तमदमत्तचित्ता-धन के अहंकार
                           से भरे हुए चित्त वाले
            सर्वजनेन-सभी लोगो  के द्वारा
      उपहास्यताम्-उपहास के पात्र
            उपयान्ति-बनते हैं।
              मान्यान्,-(वेलोग)सम्माननियों
                            का
        न मानयन्ति-सम्मान नहीं करते हैं,
       वृद्धोपदेशम्-वृद्धों के उपदेश को
        जरावैक्लव्य-बुढापे में सठियाने
                            के कारण
      प्रलपितमिति-बकवाद के रुप में
             पश्यन्ति-देखते हैं।
         हितवादिने-हित की बात कहने
                           वाले पर
             कुप्यन्ति-क्रोध करते हैं।
                सर्वथा-हमेशा
      तमभिनन्दति,-उसी का
                           अभिनन्दन करते हैं,
      तं संवर्धयन्ति,-उसी को बढाते हैं,
          तस्य वचनं-उसी का वचन
             श्रृण्वन्ति,-सुनते हैं,
       तं बहु मन्यन्ते-उसी को बहुत
                           मानते है,
                     यो-जो
           अहर्निशम्-दिन-रात
            अनवरतं-निरन्तर
       अन्यकर्त्तव्यः-अन्य कर्त्तव्यों को
                विगत-छोडकर(उनकी)
               स्तौति,-स्तुति करता है
                यो वा-अथवा जो
         माहात्म्यम्-(उनकी) महिमा को
         उद्भावयति-गाता है। 
                  
 तदतिकुटिलचेष्टादारुणे राज्यतन्त्रे,अस्मिन् महामोहकारिणी च यौवने कुमार।तथा प्रयतेथाः यथा नोपहस्यसे जनैः न निन्द्यसे साधुभिः,न धिक्क्रियसे गुरुभिः,नोपालभ्यसेसुहृद्भिः,न वञ्च्यसे धूर्त्तैः,न विडम्ब्यसे लक्ष्म्या,नाक्षिप्यसे विषयैः, नापह्रियसे सुखेन।
              इदमेव च पुनः पुनरभिधीयसे-विद्वांसमपि सचेतसमपि ,महासत्त्वमपि, अभिजातमपि, धीरमपि, प्रयत्नवन्तमपि पुरुषं दुर्विनीता खलीकरोति लक्ष्मीरित्येतावदभिधायोपशशाम।
              चन्द्रापीडस्ताभिरुपदेशवाग्भिः प्रक्षालित इव,उन्मीलित इव, स्वच्छीकृत इव,पवित्रीकृत इव,उद्भासित इव,प्रीतहृदयो स्वभवनमाजगाम।
              अर्थात् तब अत्यन्त कुटिल चेष्टाओं से भयंकर राज्य व्यवहार और इस महामोह को उत्पन्न करने वाली युवावस्था में हे कुमार! वैसा ही प्रयत्न करना, जिससे लोग उपहास नहीं करे,सज्जन निन्दा नहीं करे,गुरुजन धिक्कारे नहीं,मित्र उलाहना न दे,चालाक लोगठगे नहीं,निकल न जाय,विषय फँसाये नहीं,सुख अपहरण न कर ले।
             और यही बार-बार कहता हूँ कि विद्वानों को भी सचेत को भी महाबलशाली को भी कुलीन को भी धैर्य धारण करने वाले को भी प्रयत्नप्रयत्नशील को भी हर प्रकार के पुरुषों को भीयह दुराचारिणी लक्ष्मी दुष्ट बना देती है।इतना कहकर शुकनास चुप हो गये।
              चन्द्रापीड उनके उपदेश वचनों से धुला हुआ सा,खिला हुआ सा,स्वच्छ किया हुआ सा,पवित्र किया हुआ सा,चमकाया  हुआ सा,प्रसन्न हृदय होकर अपने भवन को आया।

गद्यांश का अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ- 
             तद्-तब
 अतिकुटिल-अत्यन्त कुटिल
  चेष्टादारुणे-चेष्टाओं से भयंकर
    राज्यतन्त्रे,-राज्य व्यवहार
   च अस्मिन्-और इस
      महामोहं-महामोह को
       कारिणी -उत्पन्न करने वाली
          यौवने-युवावस्था में
         कुमार-हे कुमार
            तथा-वैसा ही
       प्रयतेथाः-प्रयत्न करना,
     यथा जनैः-जिससे लोग
   नोपहस्यसे-उपहास नहीं करे,
        साधुभिः-सज्जन
     न निन्द्यसे-निन्दा नहीं करे,
         गुरुभिः,-गुरुजन
न धिक्क्रियसे-धिक्कारे नहीं
        सुहृद्भिः-मित्र
  नोपालभ्यसे-उलाहना न दे,
             धूर्त्तैः-चालाक लोग
     न वञ्च्यसे-ठगे नहीं,
         लक्ष्म्या-लक्ष्मी
 न विडम्ब्यसे-निकल न जाय,
          विषयैः-विषय
     नाक्षिप्यसे-फँसाये नहीं,
          सुखेन-सुख
    नापह्रियसे-अपहरण न कर ले।
      च इदमेव-और यही
        पुनःपुनः-बार-बार
   अभिधीयसे-कहता हूँ(कि)
   विद्वांसमपि-विद्वानों को भी
  सचेतसमपि-सचेत को भी
महासत्त्वमपि-महाबलशाली को भी
अभिजातमपि-कुलीन को भी
        धीरमपि-धैर्य धारण करने वाले को भी
प्रयत्नवन्तमपि-प्रयत्नशील को भी
            पुरुषं-(हर प्रकार के)पुरुषों को भी
      दुर्विनीता -(यह)दुराचारिणी
          लक्ष्मी- लक्ष्मी
  खलीकरोति-दुष्ट बना देती है।
     इत्येतावद्-इतना
       अभिधाय-कहकर
     उपशशाम-(शुकनास)चुप हो गये।
      चन्द्रापीडः-चन्द्रापीड
            ताभिः-उनके
उपदेशवाग्भिः-उपदेश वचनों से
 प्रक्षालित इव-धुला हुआ सा,
उन्मीलित इव-खिला हुआ सा,
स्वच्छीकृत इव-स्वच्छ किया हुआ सा,
पवित्रीकृत इव,-पवित्र किया हुआ सा,,
उद्भासित इव-चमकाया  हुआ सा,
     प्रीतहृदयो-प्रसन्न हृदय होकर
     स्वभवनम्-्अपने भवन को
      आजगाम-आया।


प्रश्न 1. 
संस्कृतेन उत्तरं दीयताम् - 
(क) लक्ष्मीमदः कीदृशः ? 
(ख) चन्द्रापीडं कः उपदिशति ? 
(ग) अनर्थपरम्परायाः किं कारणम् ? 
(घ) कीदृशे मनसि उपदेशगुणाः प्रविशन्ति ? 
(ङ) लब्धापि दुःखेन का परिपाल्यते ? 
(च) केषाम् उपदेष्टार: विरलाः सन्ति ? 
(छ) लक्ष्म्या परिगृहीताः राजानः कीदृशाः भवन्ति ? 
(ज) वृद्धोपदेशं ते राजानः किमिति पश्यन्ति ? 
उत्तरम् : 
(क)लक्ष्मीमदः अपरिणामोपशमः दारुणः अस्ति। 
(ख) चन्द्रापीडं मन्त्री शुकनासः उपदिशति ? 
(ग) अनर्थपरम्परायाः कारणानि-गर्भेश्वरत्वम्, अभिनवयौवनत्वम्, अप्रतिम-रूपत्वम्, अमानुषशक्तित्वं चेति। 
(घ) अपगतमले मनसि उपदेशगुणाः प्रविशन्ति । 
(ङ) लब्धापि दुःखेन लक्ष्मीः परिपाल्यते। 
(च) राज्ञाम् उपदेष्टारः विरलाः सन्ति ?
(छ) लक्ष्या परिगृहीताः राजानः विक्लवाः भवन्ति ? 
(ज) वृद्धोपदेशं ते राजानः जरावैक्लव्यप्रलपितम् इति पश्यन्ति ? 

प्रश्न 2. 
विशेषणानि विशेष्यैः सह योजयत - 
विशेषणम् - विशेष्यम् 
(क) समतिक्रामत्सु - 
(ख) अधीतशास्त्रस्य - विद्वांसम् 
(ग) दारुणो 
दिवसेषु 
(घ) गहनं तमः - दोषजातम् 
(ङ) अतिमलिनम् - लक्ष्मीमदः 
(च) सचेतसम् - यौवनप्रभवम् 
उत्तरम् : 
(क) समतिक्रामत्सु - दिवसेषु 
(ख) अधीतशास्त्रस्य - 
(ग) दारुणो - लक्ष्मीमदः 
(घ) गहनं तमः - यौवनप्रभवम् 
(ङ) अतिमलिनम् - दोषजातम् 
(च) सचेतसम - विद्वांसम् 

प्रश्न 3. 
अधोलिखितपदानि स्वरचित-संस्कृत-वाक्येषु प्रयुग्ध्वम् - 
संग्रहार्थम्, समुपस्थितम्, विनयम्, परिणमयति, शृण्वन्ति, स्पृशति। 
उत्तरम् : 
(वाक्यप्रयोगः) 
(क) संग्रहार्थम्-सद्गुणानां संग्रहणार्थं सदा यत्नः करणीयः।
(ख) समुपस्थितम्-राजा समुपस्थितं सेवकं शस्त्रम् आनेतुम् आदिशत्। 
(ग) विनयम्-विद्या विनयं ददाति। 
(घ) परिणमयति-लक्ष्मीमदः सज्जनम् अपि दुष्टभावेषु परिणमयति। 
(ङ) शृण्वन्ति-अहंकारिणः राजानः गुरूपदेशान् न शृण्वन्ति। 
(च) स्पृशति-लक्ष्मी: गुणवन्तं न स्पृशति। 

प्रश्न 4. 
अधोलिखितानां पदानां सन्धिच्छेदं कुरुत - 
उत्तरसहितम् : 
(क) एवातिगहनम् = एव + अतिगहनम् 
(ख) गर्भेश्वरत्वम् = गर्भ + ईश्वरत्वम् 
(ग) गुरूपदेश: = + उपदेशः 
(घ) येवम् = हि + एवम् 
(ङ) नाभिजनम् = न + अभिजनम् 
(च) नोपसर्पति = + उपसर्पति 

प्रश्न 5. 
प्रकृति-प्रत्ययविभागः क्रियताम् - 
उत्तरसहितम् :

प्रश्न 6. 
समासविग्रहं कुरुत - 
उत्तरसहितम् : 
(क) अमानुषशक्तित्वम् - न मानुषशक्तित्वम् (नञ्-तत्पुरुषः) 
(ख) अत्यासगः - अतिशयेन आसङ्गः (उपपद-तत्पुरुषः) 
(ग) अनार्या - न आर्या (नञ्-तत्पुरुषः) 
(घ) स्वार्थनिष्पादनपरैः . स्वार्थस्य निष्पादने परैः (तत्परैः) तत्पुरुषः
(ङ) अहर्निशम् - निशायां निशायाम् (अव्ययीभावः) 
(च) वृद्धोपदेशम् - वृद्धानाम् उपदेशम् (षष्ठी-तत्पुरुषः) 

प्रश्न 7. 
रिक्तस्थानानि पूरयत - 
(क) लक्ष्मीः .................................. न रक्षति। 
(ख) ..................... दुःस्वप्नमिव न स्मरति।
(ग) सरस्व तापारगृहात ..................... । 
(घ) उपदिश्यमानमपि ....... .............. न शृण्वन्ति। 
(ङ) अवधीरयन्तः ..................... हितोपदेशदायिनो गुरून्। 
(च) तथा प्रयतेथाः ..................... नोपहस्यसे जनैः। 
(छ) चन्द्रापीडः प्रीतहृदयो ........................ आजगाम। 
उत्तरम् :  
(क) परिचयम् 
(ख) दातारम् 
(ग) नालिङ्गति 
(घ) राजानः 
(ङ) खेदयन्ति 
(च) यथा 
(छ) स्वभवनम्। 

प्रश्न 8. 
सप्रसगं हिन्दीभाषया व्याख्या कार्या - 
(क) गर्भेश्वरत्वभिनवयौवनत्वमप्रतिमरूपत्वममानुषशक्तित्वञ्चेति महतीयं खल्वनर्थपरम्परा। 
(ख) हरति अतिमलिनमपि दोषजातं गुरूपदेशः। 
(ग) विद्वांसमपि सचेतसमपि, महासत्त्वमपि, अभिजातमपि, धीरमपि, प्रयत्नवन्तमपि पुरुष दुर्विनीता खलीकरोति लक्ष्मीरिति। 
उत्तरम् :
(व्याख्या) 
(क) गर्भेश्वरत्वभिनवयौवनत्वमप्रतिमरूपत्वममानुषशक्तित्वज्येति महतीयं खल्वनर्थपरम्परा। 
व्याख्या-प्रस्तुत पंक्ति शुकनासोपदेश नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट द्वारा रचित कादम्बरी से लिया गया है। प्रस्तुत पंक्ति में मन्त्री शुकनास युवराज चन्द्रापीड को उपदेश करते हुए अनर्थ के चार 
कारणों की ओर ध्यान दिला रहे हैं। 
मन्त्री शुकनास कहते हैं कि अनर्थ की परम्परा के चार कारण हैं - 
(i) जन्म से ही प्रभुता 
(ii) नया यौवन 
(iii) अति सुन्दर रूप 
(iv) अमानुषी शक्ति। 

इन चारों में से मनुष्य का विनाश करने के लिए कोई एक कारण भी पर्याप्त होता है। जिसके जीवन में ये चारों ही कारण उपस्थित हों, उसके विनाश को कौन रोक सकता है ? इसीलिए प्रत्येक मनुष्य को घोर अनर्थ से बचने के लिए उक्त चारों वस्तुएँ पाकर भी कभी अहंकार नहीं करना चाहिए। 

(ख) हरति अतिमलिनमपि दोषजातं गरूपदेशः। 
व्याख्या - प्रस्तुत पंक्ति शुकनासोपदेश नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट द्वारा रचित कादम्बरी से लिया गया है। प्रस्तुत पंक्ति में शुकनास युवराज चन्द्रापीड को गुरु के उपदेश का महत्त्व समझा रहे हैं। मन्त्री शुकनास कहते हैं कि गुरु का उपदेश मनुष्य के जीवन में बहुत अधिक उपयोगी तथा हितकारी होता है। मनुष्य में यदि अत्यधिक गहरे दोषों का समूह हो तो गुरु का उपदेश उन गहरे से गहरे दोषों को भी दूर कर देता है और उन दोषों के स्थान पर अति उत्तम गुण प्रवेश कर जाते हैं। मनुष्य का जीवन उज्ज्वल हो जाता है। सब जगह ऐसे व्यक्ति का यश फैलता है, इसीलिए गुरु का उपदेश प्रत्येक मनुष्य के लिए परम कल्याणकारी तथा आवश्यक है। 

(ग) विद्वांसमपि सचेतसमपि, महासत्त्वमपि, अभिजातमपि, धीरमपि, प्रयत्न-वन्तमपि पुरुषं दुविनीता खलीकरोति लक्ष्मीरिति। 
व्याख्या - प्रस्तुत पंक्ति शुकनासोपदेश नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट द्वारा रचित कादम्बरी से लिया गया है। प्रस्तुत पंक्ति में मन्त्री शुकनास लक्ष्मी अर्थात् धन के गुणों पर प्रकाश डाल रहे हैं। मन्त्री शुकनास कहते हैं कि लक्ष्मी इतनी शक्तिशाली होती है कि अत्यन्त जागरूक रहने वाले विद्वान्, महान् बलशाली, उच्चकुल में उत्पन्न, धैर्यशील तथा अत्यन्त परिश्रमी मनुष्य को भी यह लक्ष्मी दुष्ट आचरण वाला बना देती है। शुकनास के कहने का तात्पर्य है कि जिस मनुष्य के पास धन होता है, वह धन के अहंकार में कर्तव्य-अकर्तव्य के विवेक को खो बैठता है और कुमार्गगामी हो जाता है। 

बहुविकल्पीय-प्रश्नाः -

I. पुस्तकानुसारं समुचितम् उत्तरं चित्वा लिखत - 

(i) लक्ष्मीमदः कीदृशः ?
(A) उपशमः 
(B) अपरिणामः 
(C) अपरिणामोपशमः 
(D) सुखावहः। 
उत्तरम् :
(B) अपरिणामः 

(ii) चन्द्रापीडं कः उपदिशति? 
(A) शुकनासः 
(B) शुकः 
(C) तारापीडः 
(D) बृहस्पतिः। 
उत्तरम् :
(A) शुकनासः

(iii) कीदृशे मनसि उपदेशगुणाः प्रविशन्ति। 
(A) मलिने 
(B) अपगतमले 
(C) छलयुक्ते 
(D) छलान्विते। 
उत्तरम् :
(B) अपगतमले 


(iv) लब्धापि दुःखेन का परिपाल्यते? 
(A) लक्ष्मीः 
(B) विद्या 
(C) गौः 
(D) स्त्री। 
उत्तरम् :
(A) लक्ष्मीः 

(v) केषाम् उपदेष्टारः विरलाः सन्ति? 
(A) गुरूणाम् 
(B) शठानाम् 
(C) राज्ञाम् 
(D) अल्पज्ञानाम्। 
उत्तरम् :
(C) राज्ञाम् 

(vi) लक्ष्म्या परिगृहीताः राजानः कीदृशाः भवन्ति ? 
(A) प्रसन्नाः 
(B) विक्लवाः 
(C) सुप्ताः 
(D) यशस्विनः।
उत्तरम् :
(B) विक्लवाः

II. रेखाङ्कितपदम् आधृत्य प्रश्ननिर्माणाय समुचितं पदं चित्वा लिखत -

(i) लक्ष्मी: लब्धाऽपि खलु दुःखेन परिपाल्यते। 
(A) कथम् 
(B) काः 
(C) कः 
(D) किम्। 
उत्तरम् :
(A) कथम् 

(ii) अधीतसर्वशास्त्रस्य नाल्पमपि उपदेष्टव्यम् अस्ति। 
(A) कम् 
(B) कस्मात्
(C) कस्य 
(D) कः।
उत्तरम् :
(C) कस्य 

(ii) अपरिणामोपशमः लक्ष्मीमदः। 
(A) कीदृशः 
(B) किम् 
(C) काः 
(D) कस्मैः 
उत्तरम् :
(A) कीदृशः

(iv) लक्ष्मीः शूरं कण्टकमिव परिहरति। 
(A) कः 
(B) कस्मै 
(C) कस्य 
(D) कम्। 
उत्तरम् :
(D) कम्। 

(v) राजानः कुप्यन्ति हितवादिने। 
(A) कस्य 
(B) कस्मै 
(C) कस्मात् 
(D) केषाम्। 
उत्तरम् :
(B) कस्मै 





रविवार, 28 जून 2020

कर्मगौरवम्

 कर्मगौरवम्

 बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥1॥

(यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय का पचासवाँ श्लोक है।)

बुद्धियुक्तः = इसमत्व बुद्धि युक्त पुरुष

सुकृत दुष्कृते = पुण्य पाप

उभे= दोनों को

इह= इस लोकमें

(एव) = ही

जहाति=त्याग देता है अर्थात् उनसे लिपायमान नहीं होता ।

तस्मात् = इससे

योगाय =समत्वबुद्धि योगके लिये ही

युज्यख = चेष्टा कर

( यह)

योगः = समत्वबुद्धिरूप

योगः=योग ही

कर्मसु = कर्मों में

कौशलम्=चतुरता है अर्थात् कर्म बन्धन से छूटनेका उपाय है।

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ॥2॥

(यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्याय का आठवाँ श्लोक है।)

त्वम् =तूं

नियतम् =शास्त्र विधि से नियत किये हुए

कर्म=स्वधर्मरूप कर्म को

कुरु=कर

हि =क्योंकि

अकर्मणः =कर्म न करने की अपेक्षा

कर्म = कर्म करना

ज्यायः = श्रेष्ठ है

च = तथा

अकर्मणः =कर्म न करने से

ते = तेरा

शरीरयात्रा= शरीरनिर्वाह

अपि = भी

न= नहीं

प्रसिद्ध्येत् = सिद्ध होगा।

न कर्मणामनारम्भानैष्कर्म्यम् पुरुषोऽश्नुते।

न च सन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥3॥

(यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्याय का चौथा श्लोक है।)

पुरुषः= मनुष्य

न=न (तो)

कर्मणाम् = कर्मों के

अनारम्भात्= करनेसे

नैष्कर्म्यम् = निष्कर्मताको

अश्नुते= प्राप्त होता है

च =और

संन्यसनात् एव= कर्मों को त्यागने मात्र से

सिद्धिम् =भगवत् साक्षात्कार रूप सिद्धिको

समधिगच्छति= प्राप्त होता है

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।

कार्यते झवश: कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥4॥

(यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्याय का पाँचवाँ श्लोक है।)

हि =क्योंकि

कश्चित् = कोई भी (पुरुष)

जातु =किसी काल में

क्षणम् =क्षणमात्र

अपि= भी

अकर्मकृत् = बिना कर्म किये

न = नहीं

तिष्ठति = रहता है

हि =निःसन्देह

सर्वः =सब (ही पुरुष)

प्रकृतिजैः = प्रकृतिसे उत्पन्न हुए

गुणैः = गुणों द्वारा

अवशः = परवश हुए

कर्मं = कर्म

कार्यते = करते हैं।

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥5॥

(यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्याय का उन्नीसवाँ श्लोक है।)

तस्मात्= इससे (तूं)

असक्तः = अनासक्त हुआ

सततम् = निरन्तर

कार्यम् = कर्तव्य

कर्म= कर्मका

समाचर=अच्छी प्रकार आचरण कर

 हि =क्योंकि

असक्तः =अनासक्त

पूरुषः =पुरुष

कर्म= कर्म

आचरन् =करता हुआ

परम् = परमात्माको

आप्नोति =प्राप्त होता है

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।

लोकसहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥6॥

(यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्याय का बीसवाँ श्लोक है।)

जनकादयः=जनकादि ज्ञानीजन भी(आसक्तिरहित)

कर्मणा = कर्मद्वारा

एव= ही

संसिद्धिम् = परमसिद्धिको

आस्थिताः = प्राप्त हुए हैं

हि =इसलिये (तथा)

लोकसंग्रहम् = लोकसंग्रहको

संपश्यन् = देखता हुआ

अपि =भी ( तूं )

कर्तुम्= कर्म करनेको

एव=ही

अर्हसि= योग्य है

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥7॥

(यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्याय का एक्कीसवाँ श्लोक है।)

श्रेष्ठः=(क्योंकि) श्रेष्ठ पुरुष

यत्=जो

यत् = जो

आचरति = आचरण करता है

इतरः = अन्य

जनः= पुरुष (भी)

तत् = उस

तत् = उसके

एव =ही

(अनुसार बर्तते हैं)

सः = वह पुरुष

यत् = जो कुछ

प्रमाणम् =प्रमाण

कुरुते= कर देता है

लोकः =लोग (भी)

तत् = उसके

अनुवर्तते = अनुसार वर्तते हैं।

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥8॥

(यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्याय का छब्बीसवाँ श्लोक है।)

विद्वान् =ज्ञानी पुरुष (को चाहिये कि)

कर्मसङ्गिनाम् = कर्मों मेंआसक्ति वाले

अज्ञानाम् =अज्ञानियों की

बुद्धिभेदम् =बुद्धि में भ्रम अर्थात् कर्मों मेंअश्रद्धा

न जनयेत् = उत्पन्न न करे(किन्तु स्वयं)

युक्तः =परमात्माके स्वरूप में स्थित हुआ (और)

सर्वकर्माणि= सब कर्र्मो को

समाचरन्= अच्छी प्रकार करता हुआ

(उनसे भी वैसे ही)

जोषयेत् = करावे।

यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।

समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥9॥

(यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय का बाइसवाँ श्लोक है।)

यदृच्छालाभसंतुष्टः=अपने आप जो कुछ आ प्राप्त हो उसमें ही संतुष्ट रहनेवाला (और)

द्वन्द्वातीतः = हर्षशोकादि द्वन्द्वों से अतीत(तथा)

विमत्सरः = मत्सरताअर्थात् ईर्षा से रहित

सिद्धौ = सिद्धि और

असिद्धौ च = और असिद्धि में

समः= समत्व भाववाला पुरुष (कर्मों को)

कृत्वा =करके अपि भी

न= नहीं

निबध्यते =बंधता है।

सुखदुःखसमे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयो।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥10।।

(यह श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय का अडतीसवाँ श्लोक है।)

सुखदुःखे = सुख दुःख

लाभालाभौ = लाभ हानि(और)

जयाजयौ= जय पराजय को

समे= समान

कृत्वा =समझकर

ततः = उसके उपरान्त

युद्धाय = युद्ध के लिये

युज्यस्व =तैयार हो

एवम् =इस प्रकार

(युद्ध करनेसे)(तूं)

पापम् = पापको

न=नहीं

अवाप्स्यसि=प्राप्त होगा।

अनाश्रितः कर्मफलं कार्य कर्म करोति यः।

स सन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥11॥

(यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय पहला का श्लोक है।)

यः= जो पुरुष

कर्मफलम् = कर्मके फलको

अनाश्रितः = न चाहता हुआ

कार्यम् = करने योग्य

कर्म = कर्म

करोति = करता है

सः = वह

संन्यासी =संन्यासी

च =और

योगी = योगी है

च = और (केवल)

निरग्निः=अग्नि को त्यागनेवाला

(संन्यासी योगी)

न = नहीं है

च=तथा(केवल) (क्रियाओंको

अक्रियः= क्रियाओं को त्यागनेवाला

(भीसंन्यासी योगी)

न=नहीं है।

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत। 

कुर्याद्विद्वांस्तथाऽसक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥12॥

(यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्याय का पचीसवाँ श्लोक है।)

भारत= हे भारत

कर्मणि = कर्म में

सक्ताः = आसक्त हुए

अविद्वांसः =अज्ञानीजन

यथा = जैसे

कुर्वन्ति = कर्म करते हैं

तथा= वैसे ही

असक्तः = अनासक्त हुआ

विद्वान् = विद्वान् (भी)

लोकसंग्रहम्=लोक शिक्षा को

चिकीर्षुः = चाहता हुआ

कुर्यात् = कर्म करे।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥13॥

(यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय का सैंतालीसवाँ श्लोक है।)

ते = तेरा

कर्मणि = कर्म करने मात्र में

एव =ही

अधिकारः = अधिकार होवे

फलेषु =

कदाचन = कभी

मा = नहीं (और तूं)

कर्मफलहेतुः=कर्मों के फल की वासनावाला

मा=(भी)मत

भूः =हो (तथा)

ते =तेरी

अकर्मणि= कर्म न करनेमें(भी)

सङ्गः= प्रीति

मा =न

अस्तु = होवे।

 

प्रश्न 1. 
संस्कृतभाषया उत्तरत - 
(क) अयं पाठः कस्मात् ग्रन्थात् सङ्कलितः ? 
(ख) अकर्मणः किं ज्यायः ? 
(ग) जनकादयः केन सिद्धिम् आस्थिताः ? 
(घ) लोकः कम् अनुवर्तते ? 
(ङ) बुद्धियुक्तः अस्मिन् संसारे के जहाति ? 
(च) केषाम् अनारम्भात् पुरुषः नैष्कर्म्यं न प्राप्नोति ? 
उत्तरम् :
(क) 'भगवद्गीता' ग्रन्थात् सङ्कलितः। 
(ख) अकर्मणः कर्म ज्यायः। 
(ग) जनकादयः कर्मणा एव सिद्धिम् आस्थिताः। 
(घ) यद् यद् आचरति श्रेष्ठ: लोकः तत् अनुवर्तते। 
(ङ) बुद्धियुक्तः अस्मिन् संसारे सुकृतदुष्कृते जहाति। 
(च) कर्मणाम् अनारम्भात् पुरुषः नैष्कर्म्यं न प्राप्नोति। 

प्रश्न 2. 
नियतं कुरु कर्म त्वं .......... प्रसिद्ध्येदकर्मणः अस्य श्लोकस्य आशयं हिन्दीभाषया स्पष्टीकुरुत। 
उत्तरम् : 
द्वितीय श्लोक के सरलार्थ एवं भावार्थ का उपयोग करें। 

प्रश्न 3. 
'यद्यदाचरति ......... लोकस्तदनुवर्तते' अस्य श्लोकस्य अन्वयं लिखत। 
उत्तरम् : 
सप्तम श्लोक का अन्वय देखें। 

प्रश्न 4. 
अधोलिखितानां शब्दानां विलोमान् पाठात् चित्वा लिखत -
यथा -  
वशः - अवशः उत्तरसहितम् 
(क) बुद्धिहीनः - बुद्धियुक्तः
(ख) दुष्कृतम् - सुकृतम् 
(ग) अकौशलम् - कौशलम् 
(घ) न्यूनः - ज्यायः 
(ङ) कर्मणः - अकर्मणः 
(च) दुर्गुणैः - गुणैः
(छ) कदाचित् - सततम् 
(ज) निकृष्टः - श्रेष्ठः 

प्रश्न 5. 
अधोलिखितेषु पदेषु सन्धिच्छेदं कुरुत - 
जहातीह, ह्यकर्मणः, शरीरयात्रापि, पुरुषोऽश्नुते, तिष्ठत्यकर्मकृत्, प्रकृतिजैर्गुणैः, कर्मणैव, लोकस्तदनुवर्तते, जनयेदज्ञानाम् 
(क) जहातीह = जहाति + इह 
(ख) ह्यकर्मणः = हि + अकर्मण: 
(ग) शरीरयात्रापि = शरीरयात्रा + अपि 
(घ) पुरुषोऽश्नुते = पुरुषः + अश्नुते 
(ङ) तिष्ठत्यकर्मकृत् = तिष्ठति + अकर्मकृत् 
(च) प्रकृतिजैर्गुणैः = प्रकृतिजैः + गुणैः 
(छ) कर्मणैव = कर्मणा + एव 
(ज) लोकस्तदनुवर्तते = लोकः + तत् + अनुवर्तते 
(झ) जनयेदज्ञानाम् = जनयेत् + अज्ञानाम् 

प्रश्न 6. 
अधोलिखितक्रियापदानां लकारपुरुषवचननिर्देशं कुरुत - 
जहाति, युज्यस्व, कुरु, अश्नुते, समधिगच्छति, तिष्ठति, आप्नोति, अनुवर्तते, जनयेत्, जोषयेत्। 
उत्तरम् :

  1. जहाति - (√हा) लट्लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन। 
  2. युज्यस्व - (√युज्) लोट्लकार, मध्यम पुरुष, एकवचन। 
  3. कुरु - (√कृ) लोट्लकार, मध्यम पुरुष, एकवचन। 
  4. अश्नुते - (√अश्) लट्लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन। 
  5. समधिगच्छति - (√सम् + अधि√गम्) लट्लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन। 
  6. तिष्ठति - (√स्था) लट्लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन। 
  7. आप्नोति - (√आप) लट्लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन। 
  8. अनुवर्तते - (अनु √वृत्) लट्लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन। 
  9. जनयेत् - (√जिन्) विधिलिङ्, प्रथम पुरुष, एकवचन। 
  10. जोषयेत् - (√जुष्) विधिलिङ्, प्रथम पुरुष, एकवचन। 

प्रश्न 7. 
अधोलिखतवाक्येषु रेखाकितपदानां विभक्तीनां निर्देशं कुरुत -
(क) योगः कर्मसु कौशलम्। 
(ख) जीवने नियतं कर्म कुरु। 
(ग) कर्मणा एव जनकादयः संसिद्धिम आस्थिताः। 
(घ) अकर्मणः कर्म ज्यायः। 
(ङ) कर्मणाम् अनारम्भात् पुरुषः नैष्कर्म्यं न अश्नुते। 
उत्तरम् :
(क) कर्मसु - कर्मन्, षष्ठी-विभक्तिः, एकवचनम्। 
(ख) कर्म - कर्मन्, द्वितीया-विभक्तिः, एकवचनम्। 
(ग) कर्मणा - कर्मन्, तृतीया-विभक्तिः, एकवचनम्। 
(घ) अकर्मणः - अकर्मन्, पञ्चमी-विभक्तिः, एकवचनम्। 
(ङ) कर्मणाम् - कर्मन्, षष्ठी-विभक्तिः, एकवचनम्। 

प्रश्न 8. 
प्रदत्तमञ्जूषायाः समुचितपदानां चयनं कृत्वा अधोदत्तशब्दानां प्रत्येकपदस्य त्रीणि समानार्थकपदानि लिखन्तु - 
अनारतम्, मनीषा, गात्रम्, दुष्कर्म, प्राज्ञः, कलुषम्, शेमुषी, अविरतम्, कोविदः, कायः, मतिः, पातकम् , देहः, मनीषी, अश्रान्तम्। 
उत्तरसहितम् : 

प्रश्न 9. 
कर्म आश्रित्य संस्कृभाषायां पञ्च वाक्यानि लिखत - 
उत्तरम् : 
(i) अकर्मणः कर्म ज्यायः भवति। 
(ii) अकर्मणः शरीरयात्रा अपि न सम्भवति।
(iii) अतः असक्तः सततं कर्तव्यं कर्म समाचरेत्। 
(iv) जनकादयः कर्मणा एव संसिद्धिम् आस्थिताः। 
(v) योगः कर्मसु कौशलम्। 

प्रश्न 10. 
पाठे प्रयुक्तस्य छन्दसः नाम लिखत - 
उत्तरम् : 
'अनुष्टुप् छन्दः। 

प्रश्न 11. 
जनः कीदृशैः गुणैः कार्यं करोति ? अधोलिखितं श्लोकमाधृत्य लिखत - 
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। 
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥ 
उत्तरम् : 
जनः प्रकृतिजैः गुणैः कार्यं करोति। अतः कश्चित् अपि क्षणमपि अकर्मकृत् न तिष्ठति। 

बहुविकल्पीय-प्रश्नाः

I. समुचितम् उत्तरं चित्वा लिखत - 

(i) अकर्मणः किं ज्यायः। 
(A) कर्म 
(B) विकर्म 
(C) सत्कर्म 
(D) कुकर्म। 
उत्तरम् :
(A) कर्म 

(ii) जनकादयः केन सिद्धिम् आस्थिताः ? 
(A) अकर्मणा 
(B) विकर्मणा 
(C) कर्मणा 
(D) सत्कर्मणा। 
उत्तरम् :
(C) कर्मणा 

(iii) बुद्धियुक्तः अस्मिन् संसारे के जहाति?
(A) सुकृते 
(B) दुष्कृते 
(C) अकर्मणी 
(D) सुकृतदुष्कृते। 
उत्तरम् :
(D) सुकृतदुष्कृते। 

(iv) केषाम् अनारम्भात् पुरुषः नैष्कर्म्यं न प्राप्नोति ? 
(A) निष्कर्मताम् 
(B) कर्मणाम् 
(C) निष्कर्मणाम् 
(D) स्वार्थकर्मणाम्। 
उत्तरम् :
(B) कर्मणाम् 

(v) कैः गुणैः सर्वः अवशः कर्म कार्यते? 
(A) प्रकृतिजैः 
(B) पूर्वसञ्चितैः 
(C) प्रारब्धैः 
(D) सुसंस्कारैः। 
उत्तरम् :
(A) प्रकृतिजैः

II. रेखाङ्कितपदम् आधृत्य प्रश्ननिर्माणाय समुचितं पदं चित्वा लिखत - 

(i) अस्माकम् कर्मणि अधिकारः वर्तते। 
(A) केषाम् 
(B) कस्य 
(C) कस्मिन् 
(D) कस्याः।
उत्तरम् :
(C) कस्मिन् 

(ii) अकर्मणः कर्म ज्यायः। 
(A) केषाम् 
(B) कस्मात् 
(C) कुत्र 
(D) केन। 
उत्तरम् :
(B) कस्मात् 

(iii) जनकादयः कर्मणा एव सिद्धिम् आस्थिताः। 
(A) केन 
(B) कस्मात् 
(C) कस्यै 
(D) कस्मै। 
उत्तरम् :
(A) केन 

(iv) योगः कर्मसु कौशलम्। 
(A) कः 
(B) किम् 
(C) केषु 
(D) कम्। 
उत्तरम् :
(C) केषु 

(v) जीवने नियतं कर्म कुरु। 
(A) कीदृशम् 
(B) किम् 
(C) कुत्र 
(D) कुतः। 
उत्तरम् :
(A) कीदृशम् 

योग्यताविस्तारः 

अधोलिखितानां सूक्तीनामध्ययनं कृत्वा प्रस्तुतपाठेन भावसाम्यम् अवधत्त - 
1. गच्छन् पिपीलको याति योजनानां शतान्यपि। 
अगच्छन्वैनतेयोऽपि पदमेकं न गच्छति॥ 

2. उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः। 
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रवशन्ति मुखे मृगाः॥ 

3. कर्मणा जायते सर्वं, कर्मैव गतिसाधनम्। 
तस्मात् सर्वप्रयलेन, साध कर्म समाचरेत्॥ 

4. चरन्वै मधु विन्दति, चरन् स्वादुमुदम्बरम्। 
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं, यो न तन्द्रयते चरन्। 

5. जलबिन्दुनिपातेन क्रमश: पूर्यते घटः। 
स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च॥ 

6. दुष्कराण्यपि कार्याणि, सिध्यन्ति प्रोद्यमेन वै। 
शिलापि तनुतां याति, प्रपातेनार्णसो मुहुः॥ 

7. कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। 
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति, न कर्म लिप्यते नरे॥ 


शनिवार, 27 जून 2020

सूक्तिसुधा

 जेसीईआरटी तथा एनसीईआरटी के कक्षा-12 के संस्कृत पाठ्यपुस्तक-शाश्वती भाग 2 के  तृतीय: पाठ: सूक्तिसुधा  का शब्दार्थ सहित हिन्दी अनुवाद एवं भावार्थ तथा उस पर आधारित प्रश्नोत्तर सीबीएसई सत्र-2022-2023 के लिए यहाँ दिए गए हैं।यहाँ दिए गए हिंदी अनुवाद तथा भावार्थ की मदद से विद्यार्थी पूरे पाठ को आसानी से समझकर अभ्यास के प्रश्नों को स्वयं कर सकते हैं।                                                                                                                                        प्रस्तुत पाठ करुण रस के अनुपम चितेरे महाकवि भवभूति विरचित "उत्तररामचरितम्" नामक प्रसिद्ध नाटक के चतुर्थ अंक से संकलित किया गया है। राजा राम द्वारा निर्वासिता भगवती सीता | के जुड़वाँ पुत्रों लव एवं कुश का महर्षि वाल्मीकि के द्वारा र एवं शास्त्रों की शिक्षा दी गयी तथा स्वरचित रामायण के सस्वर गान का अभ्यास कराया गया। महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में अतिथि रूप में पधारे राजर्षि जनक, कौसल्या एवं अरुन्धती खेलते हुए बालकों के बीच एक बालक में राम एवं सीता की छाया देखते हैं। वे उन्हें बुलाकर गोद में बिठाकर वात्सल्य की वर्षा करते हैं। इतने में ही चन्द्रकेतु द्वारा रक्षित राजा राम का अश्वमेधीय अश्व आश्रम में प्रवेश करता है। नगरीय अश्व को देखकर आश्रम के बालकों में कौतूहल उत्पन्न होता है। वे उसे देखने के लिए लव को भी बुला लाते हैं। लव घोड़ का दखत है कि यह अश्वमेधीय घोडा है। रक्षकों की घोषणा सुनकर बालक लव घोड़े को आश्रम में ले जाकर बाँधने का आदेश देते हैं। इसका अत्यन्त मार्मिक चित्रण इस पाठ में हुआ है।

(नेपथ्ये कलकलः। सर्वे आकर्णयन्ति)

(नेपथ्य में कोलाहल होता है।सब सुनते हैं)

जनकः : अये, शिष्टानध्याय इत्यस्खलितं खेलतां बटूनां कोलाहलः।

जनक- अरे, शिष्टजनों के आगमन से अवकाश होने के कारण बेरोक-टोक खेलते हुए बटुओं का यह कोलाहल है।

अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-

अये=अरे

शिष्टानध्यायशिष्टजनों के आगमन से

इत्यस्खलितं अवकाश होने के कारण

खेलतांबेरोक-टोक खेलते हुए

बटूनांबटुओं का

कोलाहलःयह कोलाहल है।

कौसल्या : सुलभसौख्यमिदानीं बालत्वं भवति। अहो, एतेषां मध्ये क एष रामभद्रस्य मुग्धललितैरङ्गैर्दारकोऽस्माकं लोचने शीतलयति?

कौसल्या-बाल्यावस्था में सुख सुलभ होता है। ओह ! इनके (बालकों के) बीच में कौन बालक रामभद्र को शैशव-कालीन शोभा से सम्पन्न सुन्दर और सुकुमार अङ्गों से नेत्रों को ठण्डा कर रहा है ?

अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-

बालत्वंबाल्यावस्था

इदानींमें

सौख्यम्सुख

सुलभसुलभ

भवति होता है।

अहोओह !

एतेषांइन(बालकों) के

मध्येबीच में

क एषकौन यह

दारकः बालक

रामभद्रस्यरामभद्र के

मुग्धललितैःशैशव-कालीन शोभा से सम्पन्न सुन्दर

अङ्गैः(और) सुकुमार अङ्गों से

अस्माकं हमारे

लोचने नेत्रों को

शीतलयतिठण्डा कर रहा है ?

अरुन्धती:-

कुवलयदलस्निग्धश्यामः शिखण्डकमण्डनो

वटुपरिषदं पुण्यश्रीकः श्रियैव सभाजयन् ।

पुनरपि शिशु तो वत्सः स मे रघुनन्दनो

झटिति कुरुते दृष्टः कोऽयं दृशोरमृताञ्जनम् ॥1॥

अरुन्धती-(प्रकाश में) नील-कमल-दल के समान चिकना और श्याम काकपक्षों(घुंघराले बालों) से सुशोभित अलौकिक शोभा से सम्पन्न शरीर को कान्ति से ही ब्रह्मचारियों की मण्डली को अलङ्कृत करने वाला यह कौन है ? जो कि देखने पर फिर से शिशु रूप धारी राम की भाँति मेरी आँखों में अमृत-मय अंंजन का लेप सा कर रहा है ?

अन्वय,शब्दार्थ और श्लोकार्थ-

कुवलयदलनील-कमल-दल के समान

स्निग्धश्यामः चिकने और श्याम

शिखण्डकघुंघराले बालों से

मण्डनो सुशोभित

पुण्यश्रीकःअलौकिक शोभा से सम्पन्न शरीर की

श्रियैव कान्ति से ही

वटुपरिषदंब्रह्मचारियों की मण्डली को

सभाजयन् अलङ्कृत करने वाला

कोऽयं यह कौन है? जो कि

पुनरपि फिर से

शिशु तो शिशु रूप धारी

स मे वह मेरे

वत्सः पुत्र

रघुनन्दनोराम की भाँति

झटिति शीघ्र ही

दृशोरमृताञ्जनम्मेरी आँखों में अमृत-मय अंंजन का लेप सा

कुरुते दृष्टः करते हुए दिखाई दे रहा है ?

जनकः(चिरं निर्वर्ण्य ) भोः किमप्येतत्।

जनक-(बहुत देर तक देखकर) ओह ! यह क्या (अपूर्व सा अनुभव) है ?

महिम्नामेतस्मिन् विनयशिशिरो मौग्ध्यमसृणो

विदग्धैर्निर्ग्राह्यो न पुनरविदग्धैरतिशयः।

मनो मे संमोहस्थिरमपि हरत्येष बलवान्

अयोधातुं यद्वत्परिलघुरयस्कान्तशकलः ॥

इस बालक में विद्यमान विनय से शीतल तथा कोमल जो महत्ता का उत्कर्ष है, वह सूक्ष्ममति मनुष्यों द्वारा ही ग्राह्य है, (स्थूलमति) अविवेकियों के द्वारा नहीं । यह बलिष्ठ बालक जैसे 'चुम्बक' का छोटा-सा टुकड़ा लोहे को अपनी ओर खींच लेता है, वैसे ही मेरे सम्मोह (शोकाघात) से स्थिर हृदय को अपनी ओर आकृष्ट कर रहा है।

अन्वय,शब्दार्थ और श्लोकार्थ-

एतस्मिन् इस बालक में विद्यमान

विनयशिशिरो विनय से शीतल तथा

मौग्ध्यमसृणो कोमल और चिकने

महिम्नाम्जो महत्ता का

अतिशयःउत्कर्ष है,

विदग्धैःवह सूक्ष्ममति मनुष्यों द्वारा ही

र्निर्ग्राह्योग्राह्य है,

अविदग्धैःअविवेकियों के द्वारा

न पुनःनहीं।

एष बलवान्यह बलिष्ठ बालक

संमोहस्थिरमपिशोकाघात से स्थिर

मनो मेमेरे हृदय को

हरति(वैसे ही) आकृष्ट कर रहा है।

यद्वत् जैसे

त्रयस्कान्तशकलः चुम्बक का

परिलघुः छोटा-सा टुकड़ा

अयोधातुं लोहे को

(हरति)अपनी ओर खींच लेता है।

लवः:(प्रविश्य,स्वगतम्) क्रमौचित्यात् पूज्यानपि सतः कथमभिवादयिष्ये?,अविज्ञातवयः(विचिन्त्य) अयं पुनरविरुद्धप्रकार इति वृद्धेभ्यः श्रूयते। (सविनयमुपसृत्य) एष वो लवस्य शिरसा प्रणामपर्यायः।

लव-(प्रवेश कर स्वयं ही) अवस्था, क्रम और औचित्य न जानने के कारण इन पूजनीयों को कैसे प्रणाम करू ? (इनमें कोन वयोवृद्ध है ? और किसे प्रथम प्रणाम करना चाहिये? मैं यह नहीं जानता (तो इन्हें कैसे प्रमाण करू?) (सोचकर) "यह प्रणाम की विरोध हीन पद्धति है" ऐसा गुरुजनों से सुना जाता है। (विनयपूर्वक पास जाकर) यह आपको 'लव' को (क्रमानुसार) प्रणाम-परम्परा है।

अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-

(प्रविश्य, स्वगतम्)(प्रवेश कर स्वयं ही)

वयः अवस्था

क्रमौचित्यात् क्रम और औचित्य

अविज्ञातम्न जानने के

सतः कारण

पूज्यानपि इन पूजनीयों को

कथम्कैसे

अभिवादयिष्ये?प्रणाम करूँ ?

(विचिन्त्य) (सोचकर)

अयं यह

पुनरविरुद्धप्रकारप्रणाम की विरोध हीन पद्धति है

इति वृद्धेभ्यःऐसा गुरुजनों से

श्रूयतेसुना जाता है।

(सविनयमुपसृत्य) (विनयपूर्वक पास जाकर)

एष वो यह आपको

लवस्य 'लव' का (क्रमानुसार)

शिरसा सिर झुकाकर

प्रणामपर्यायः प्रणाम-परम्परा है।

अरुन्धतीजनकौ : कल्याणिन्! आयुष्मान् भूयाः।

अरुन्धती और जनक-कल्याण सम्पन्न ! चिरजीव हो!

कौसल्या : जात! चिरं जीव।

कोसल्या-वत्स ! चिरञ्जीव !

अरुन्धती : एहि वत्स! (लवमुत्सङ्गे गृहीत्वा आत्मगतम्) दिष्ट्या न केवल-मुत्सङ्गश्चिरान्मनोरथोऽपि मे पूरितः।

अरुन्धती-आओ बेटा ! (लव को गोदी में लेकर स्वयं ही) सौभाग्य से केवल मेरी गोदी ही नहीं अपितु मेरी बहुत दिनों की अभिलाषा भी पूर्ण हो गई।

अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-

एहि वत्स!आओ बेटा !

(लवमुत्सङ्गे गृहीत्वा आत्मगतम्)(लव को गोदी में लेकर स्वयं ही)

दिष्ट्या सौभाग्य से

केवलम्केवल

उत्सङ्गः न(मेरी) गोदी ही नहीं

मे चिरात्(अपितु)मेरी बहुत दिनों की

मनोरथोऽपिअभिलाषा भी

पूरितःपूर्ण हो गई।

कौसल्या : जात! इतोऽपि तावदेहि। (उत्सङ्गे गृहीत्वा) अहो, न केवलं

मांसलोज्ज्वलेन देहबन्धेन, कलहंसघोषघर्घरानुनादिना स्वरेण च रामभद्रमनुसरति। जात! पश्यामि ते मुखपुण्डरीकम्। (चिबुकमुन्नमय्य, निरूप्य, सवाष्पाकूतम्) राजर्षे! किं न पश्यसि? निपुणं निरूप्यमाणो वत्साया मे वध्वा मुखचन्द्रेणापि संवदत्येव।

कौसल्या-बेटा इधर (मेरी गोद में) भी आओ ! (गोदी में लेकर) ओह ! यह केवल अर्धविकसित नोल-कमल के समान बलिष्ठ तथा तेजस्वी शरीर के गठन से ही नहीं अपितु कमल को केसर के खाने के कारण मधुर कण्ठ वाले हंस के घरघराते स्वर का अनुकरण करने ज्ञाले स्वर से भी राममद्र' का अनुसरण कर रहा है।ओह विकसित कमल के भीतरी भाग के समान सुकुमार इसके शरीर का स्पर्श भी वैसा ही है। बेटा! (जरा) तुम्हारा मुख-कमल (तो) देखूँ!(ठोडी को ऊँचाकर आँसू भरी आंखों से अभिप्राय-पूर्वक देखकर) राजर्षे।क्या आप नहीं देखते? कि ध्यान से देखने पर इस बालक का मुख मेरो प्रिय वधू सीता के मुख-चन्द्र से मिल रहा है।

जात! बेटा

इतोऽपिइधर (मेरी गोद में) भी

तावदेहिआओ !

(उत्सङ्गे गृहीत्वा)(गोदी में लेकर)

अहो,केवलं ओह ! यह केवल

मांसलोज्ज्वलेनबलिष्ठ तथा तेजस्वी

देहबन्धेन, शरीर के गठन से ही नहीं

कलहंसमधुर कण्ठ वाले हंस के

घोषघर्घर घरघराते स्वर का

अनुनादिना अनुकरण करने ज्ञाले

स्वरेण च स्वर से भी

रामभद्रम्राममद्र' का

अनुसरतिअनुसरण कर रहा है।

जात! बेटा!

ते (जरा) तुम्हारा

मुखपुण्डरीकम्मुख-कमल (तो)

पश्यामि देखूँ!

(चिबुकमुन्नमय्य, निरूप्य, सवाष्पाकूतम्)

(ठोडी को ऊँचाकर आँसू भरी आंखों से अभिप्राय-पूर्वक देखकर)

राजर्षे! राजर्षे!

किं न क्या आप नहीं

पश्यसि?देखते?

निपुणं कि ध्यान से

निरूप्यमाणो देखने पर

वत्साया इस बालक का मुख

मे वध्वा मेरी प्रिय वधू सीता के

मुखचन्द्रेणापि मुख-चन्द्र से भी

संवदत्येव मिल रहा है।

अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-

जनक : पश्यामि, सखि! पश्यामि। (निरूप्य)

जनक-देख रहा हूँ सखि देख रहा हूँ।(देखकर)

वत्सायाश्च रघूद्वहस्य च शिशावस्मिन्नभिव्यज्यते,

संवृत्तिः प्रतिबिम्बतेव निखिला सैवाकृतिः सा द्युतिः।

सा वाणी विनयः स एव सहजः पुण्यानुभावोऽप्यसौ

हा हा देवि किमुत्पथैर्मम मनः पारिप्लवं धावति ॥

इस बालक में बेटी सीता एवं रघुकुल-श्रेष्ठ राम का (पावन) सम्बन्ध प्रतिबिम्बित हो रहा है और आकृति कान्ति, वाणी, स्वाभाविक विनय तथा पवित्र प्रभाव भी ठीक वैसा ही है । हा ! हा! देवि ! (इसको देख कर) मेरा मन चञ्चल होकर उन्मार्गों से क्यों दौड़ रहा है ? (सीता के पुत्र को कल्पना क्यों कर रहा है ?)

अन्वय,शब्दार्थ और श्लोकार्थ-

अस्मिन्इस

शिशौबालक में

वत्सायाश्चबेटी सीता एवं

रघूद्वहस्य चरघुकुल-श्रेष्ठ राम के

इव जैसा

संवृत्तिःसम्बन्ध

प्रतिबिम्बताप्रतिबिम्बित हो रहा है

सैवठीक वैसा ही

निखिलास्वाभाविक

आकृतिःआकृति

सा द्युतिःवही कान्ति

सा वाणी वही वाणी

स एव वही

सहजः सहज

विनयः विनय

पुण्यानुभावःपवित्र प्रभाव

अपिभी

असौ इसमें

अभिव्यज्यतेअभिव्यंजित हो रहा है

हा हा देविहा ! हा! देवि !

मम=मेरा

मनःमन

पारिप्लवं चञ्चल होकर

किमुत्पथैःउन्मार्गों से क्यों

धावतिदौड़ रहा है ?

कौसल्या : जात! अस्ति ते माता? स्मरसि वा तातम्?

कौसल्या-वत्स ! तुम्हारी माता है ? क्या तुम अपने पिता को याद करते हो?

लवः:नहि।

लव-नहीं।

कौसल्या:ततः कस्य त्वम्?

कौसल्या-तब तुम किसके हो ?

लवः:भगवतः सुगृहीतनामधेयस्य वाल्मीकेः।

लव: स्वनामधन्य भगवान् बाल्मीकि के।

कौसल्या:अयि जात! कथयितव्यं कथय।

कौल्सया–प्यारे बेटे ! कहने योग्य बात कह ।

लवः : एतावदेव जानामि।

लवः मैं तो इतना ही जानता हूँ।

(प्रविश्य सम्भ्रान्ताः)

(प्रवेश कर घबराये हुए)

बटवः: कुमार! कुमार! अश्वोऽश्व इति कोऽपि भूतविशेषो जन

पदेष्वनुश्रूयते, सोऽयमधुनाऽस्माभिः स्वयं प्रत्यक्षीकृतः।

बटुगण-कुमार ! कुमार ! जनपदों में जो 'घोड़ा-घोड़ा' नामक कोई प्राणी विशेष सुना जाता है, अब हमने उसे स्वयं प्रत्यक्ष कर लिया है ।

अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-

कुमार! कुमार!कुमार ! कुमार !

जनपदेषुजनपदों में जो

अयम्यह

अश्वोऽश्व इति'घोड़ा-घोड़ा' नामक

कोऽपिकोई

भूतविशेषोप्राणी विशेष

अनुश्रूयतेसुना जाता है

अधुनाअब

अस्माभिःहमने

सः उसे

स्वयं स्वयं

प्रत्यक्षीकृतःप्रत्यक्ष कर लिया है ।

लवः: 'अश्वोऽश्व' इति नाम पशुसमाम्नाये सांग्रामिके च पठ्यते, तद्

ब्रूत-कीदृशः?

लव-'घोड़ा-घोड़ा' यह पशु-शास्त्र तथा संग्राम-शास्त्र में पढ़ा जाता है । तो बतलाओ-वह कैसा है ?

बटवः : अये, श्रूयताम्-

बटुगण-अजी सुनिये !

पश्चात्पुच्छं वहति विपुलं तच्च धूनोत्यजस्त्रम्

दीर्घग्रीवः स भवति, खुरास्तस्य चत्वार एव ।

शष्पाण्यत्ति.प्रकिरति शकृत्पिण्डकानाम्रमात्रान्

किं व्याख्यानैर्ऋजति स पुनर्दूरमेह्येहि यामः ॥

उसकी पिछली ओर बहुत लम्बी पूँछ लटकती है और वह उसे निरन्तर हिलाता रहता है । उसकी गर्दन लम्बी और खुर भी चार ही होते हैं। वह घास खाता है और आम्र-फलों जैसा मल-त्याग (लीद) करता है । अब अधिक वर्णन करने की आवश्यकता नहीं-वह घोड़ा दूर निकला जा रहा है। आओ ! आओ! चलें !

अन्वय,शब्दार्थ और श्लोकार्थ-

स्य उसकी

पश्चात्उसकी पिछली ओर

विपुलं बहुत लम्बी

पुच्छंपूँछ

वहतिलटकती है

तच्चऔर वह उसे

अजस्रम्निरन्तर

धूनोतिहिलाता रहता है।

दीर्घग्रीवः(उसकी) गर्दन लम्बी

भवतिहोती है।

खुराःऔर खुर भी

चत्वार एवचार ही होते हैं।

शष्पाण्यत्ति(वह) घास खाता है

आम्रमात्रान्और आम्र-फलों जैसा

शकृत्पिण्डकान्मल-त्याग (लीद)

प्रकिरति करता है ।

व्याख्यानैःअधिक वर्णन करने की

किं क्या आवश्यकता ?

वह घोड़ा

पुनर्दूरम्पुनः दूर

व्रजतिनिकला जा रहा है।

एह्येहिआओ ! आओ!

यामः चलें !

(इत्यजिने हस्तयोश्चाकर्षन्ति)

ऐसा कहकर उसके हाथ और मगचर्म पकड़कर खींचते हैं।

लवः : (सकौतुकोपरोधविनयम्।) आर्याः! पश्यत। एभिर्नीतोऽस्मि।

लव-(कौतूहल,बटुकों के आग्रह और विनय के साथ) आर्यगण !देखिये।इसके द्वारा ले जाया जा रहा हूँ।

(इतित्वरितं परिक्रामति।)

(ऐसा कहकर शीघ्रता से घूमता है)

अरुन्धतीजनकौ: महत्कौतुकं वत्सस्य।

अरुन्धती और जनक-बालक को (घोड़ा देखने का) बड़ा कौतूहल है।

कौसल्या : अरण्यगर्भरूपालापै!यं तोषिता वयं च। भगवति! जानामि तं पश्यन्ती वञ्चितेव। तस्मादितोऽन्यतो भूत्वा प्रेक्षामहे तावत् पलायमानं दीर्घायुषम्।

कौसल्या-बनवासी बालकों के रूप और बातचीत से आप और हम लोग बड़े सन्तुष्ट हुए हैं । भगवति ! मुझे तो ऐसा लगता है कि मानो मैं उसे देखती हुई ठगी-सी रह गई हूँ । इसलिये दूसरी ओर इस दीर्घायु को भागते हुए देखें।

अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-

अरण्यगर्भबनवासी बालकों के

रूपालापैरूप और बातचीत से

वयं चआप और हम लोग

यं तोषिताबड़े सन्तुष्ट हुए हैं ।

भगवति!भगवति !

जानामिमुझे तो ऐसा लगता है कि मानो मैं

तं उसे

पश्यन्तीदेखती हुई

वञ्चितेवठगी-सी रह गई हूँ ।

तस्मात्इसलिये

तावत् तब

इतोऽन्यतोदूसरी ओर

भूत्वा(एकान्त) होकर

दीर्घायुषम्इस दीर्घायु को

पलायमानंभागते हुए

प्रेक्षामहे देखें।

अरुन्धती : अतिजवेन दूरमतिक्रान्तः स चपलः कथं दृश्यते?

अरुन्धती-अत्यन्त वेग से दूर निकलने वाला वह चंचल (बालक) कैसे देखा जा सकता है ?

(प्रविश्य)(प्रवेशकर)

बटवः : पश्यतु कुमारस्तावदाश्चर्यम्।

बटवः-कुमार इस आश्चर्य को देखें।

लवः: दृष्टमवगतं च। नूनमाश्वमेधिकोऽयमश्वः।

लव-देख लिया और समझ भी लिया ! निश्चय ही यह 'अश्वमेध' यज्ञ का घोड़ा है।

बटवः : कथं ज्ञायते?

बटुगण-कैसे जानते हो ?

लवः : ननु मूर्खा:! पठितमेव हि युष्माभिरपि तत्काण्डम्। किं न पश्यथ?प्रत्येकं शतसंख्याः कवचिनो दण्डिनो निषङ्गिणश्च रक्षितारः। यदि च विप्रत्ययस्तत्पृच्छत।

लव-अरे मूर्खों ! तुम लोगों ने भी वह 'काण्ड' (अश्मेध-प्रतिपादक वेद का अध्याय) पढ़ा ही है। फिर क्या तुम सैकड़ों की संख्या में कवच-दण्ड तथा तूणीरधारियों को नहीं देखते ? इसी प्रकार (सेना का) दूसरा भाग भी (सुसज्जित) दिखाई दे रहा है (अत: यह निश्चय ही 'मेध्याश्व' है ।) और यदि तुम्हें विश्वास नहीं होता तो (इन अनुयायी रक्षकों से पूछ लो ।)

अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-

लवः : ननु मूर्खा:!अरे मूर्खों !

युष्माभिरपि तुम लोगों ने भी

तत्काण्डम्वह 'काण्ड' (अश्मेध-प्रतिपादक वेद का अध्याय)

पठितमेव हिपढ़ा ही है।

किंफिर क्या तुम

शतसंख्याः सैकड़ों की संख्या में

प्रत्येकं प्रत्येक

कवचिनो कवच-

दण्डिनोदण्ड तथा

निषङ्गिणश्च तूणीरधारियों को

रक्षितारःरक्षा करते हुए

न पश्यथ?नहीं देखते ?

यदि च और यदि

विप्रत्ययः=(तुम्हें) संदेह होता है

तत् तो (इन अनुयायी रक्षकों से)

पृच्छतपूछ लो ।

बटवः : भो भोः! किंप्रयोजनोऽयमश्वः परिवृतः पर्यटति?

बटुगण-अरे ! रक्षकों से घिरा हुआ यह घोड़ा क्यों घूम रहा है ?

लवः : (सस्पृहमात्मगतम्) अश्वमेध' इति नाम विश्वविजयिनां क्षत्रियाणामूर्जस्वलः सर्वक्षत्रपरिभावी महान् उत्कर्षनिकषः।

लव-(अभिलाषापूर्वक, स्वयं ही ) 'अश्वमेध' यह विश्व-विजयी क्षत्रियों की समस्त (शत्रु) राजाओं को पराजित करने वाली अत्यन्त शक्तिशालिनी बड़ी भारी कसौटी है।

अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-

(सस्पृहमात्मगतम्)(अभिलाषापूर्वक, स्वयं ही )

'अश्वमेध''अश्वमेध'

इति नामयह

विश्वविजयिनांविश्व-विजयी

क्षत्रियाणाम्क्षत्रियों की

सर्वक्षत्रपरिभावीसमस्त (शत्रु) राजाओं को पराजित करने वाली

उर्जस्वलःअत्यन्त शक्तिशालिनी

महान् बड़ी

उत्कर्षनिकषःभारी कसौटी है।

(नेपथ्ये)(नेपथ्य में)

योऽयमश्वः पताकेयमथवा वीरघोषणा ।

सप्तलोकैकवीरस्य दशकण्ठकुलद्विषः ॥

यह जो घोड़ा (दिखाई दे रहा है) वह सातों लोकों के एकमात्र वीर, रावण कुल के शत्रु (भगवान् राम) की विजय पताका अथवा वीर घोषणा है।

अन्वय,शब्दार्थ और श्लोकार्थ-

योऽयमश्वःयह जो घोड़ा(दिखाई दे रहा है)

सप्तलोकैकवीरस्यवह सातों लोकों के एकमात्र वीर,

दशकण्ठकुलद्विषःरावण कुल के शत्रु (भगवान् राम)

पताकेयमथवाकी विजय पताका अथवा

वीरघोषणावीर घोषणा है।

लवः : (सगर्वम्)। अहो! संदीपनान्यक्षराणि।

लव-(सगर्व) ओह! ये अक्षर बड़े कोधोत्पादक हैं ।

बटवः : किमुच्यते? प्राज्ञः खलु कुमारः।

बटुगण-क्या कहते हो? (कि यह 'अश्वमेध-यज्ञ' का घोड़ा है ? तब तो 'कुमार' बड़े विज्ञ है ।(क्योंकि बिना पूछे हो समझ लिया था कि यह 'मेध्याश्व' है।)

लवः : भो भोः! तत्किमक्षत्रिया पृथिवी? यदेवमुद्घोष्यते? (नेपथ्ये)

लव-अरे सैनिकों ! तो क्या पृथ्वी क्षत्रिय-शून्य है ! जो इस प्रकार घोषणा कर रहे हो।

(नेपथ्ये)(नेपथ्य में)

रे, रे, महाराजं प्रति कः क्षत्रियः?

अरे ! रे! (महाराज के सामने) कौन क्षत्रिय हैं ? (ऐसा कौन-सा क्षत्रिय है जो कि भगवान राम की तुलना में आ सकता हो?)

लवः : धिग् जाल्मान्।

लव-तुम नीचों को धिक्कार हैं।

यदि नो सन्ति सन्त्येव केयमद्य विभीषिका ।

किमुक्तैरेभिरधुना तां पताकां हरामि वः ॥

यदि क्षत्रिय नहीं हैं,(ऐसा कहते हो तो मैं कहता हूँ कि) वे हैं ही। यह व्यर्थ का डर क्यों दिखा रहे हो इन बातों को कहने से क्या लाभ? मैं उस पताका का हरण कर रहा हूँ। (यदि तुममें शक्ति हो तो मुझे रोको ।)

अन्वय,शब्दार्थ और श्लोकार्थ-

यदि नो सन्ति यदि क्षत्रिय नहीं हैं,

(ऐसा कहते हो तो मैं कहता हूँ कि)

सन्त्येववे हैं ही।

इयमद्यआज यह

विभीषिका(व्यर्थ का) डर

काक्या है?

एभिरधुना इन बातों को इस समय

किमुक्तैःकहने से क्या लाभ?

तां पताकांउस पताका का

हरामि वः मैं हरण कर रहा हूँ।

हे बटवः! परिवृत्य लोष्ठैरभिजन्त उपनयतैनमश्वम्। एष रोहितानां मध्येचरो भवतु।

अरे। बटुकों! इस घोडे को घेर कर ढेलों से मारते हुए (आश्रम में) ले आओ। यह भी मृगों के बीच विचरण करे ।(मगों के साथ ही यह भी घास खाया करे)

अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-

हे बटवः!अरे। बटुकों!

एनमश्वम्इस घोडे को

परिवृत्यघेर कर

लोष्ठैरभिजन्त ढेलों से मारते हुए

उपनयत(आश्रम में) ले आओ।

एष रोहितानांयह भी मृगों के

मध्येचरोबीच विचरण 

भवतु करे।

(प्रविश्य सक्रोधः)(प्रवेशकर क्रोध से)

पुरुषः : धिक् चपल! किमुक्तवानसि? तीक्ष्णतरा ह्यायुधश्रेणयः शिशोरपि दृप्तां वाचं न सहन्ते।

पुरुष-चुप ! चपल! क्या कह रहा है ? 'तीखे शस्त्र वाले बच्चे  भी गर्वीली वाणी नहीं सहते ! '(शस्त्रधारी बालक को भी गर्व भरी वाणी नहीं सहन करते ।)

अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-

धिक् चपल!चुप ! चपल!

किमुक्तवानसि?क्या कह रहा है ?

तीक्ष्णतरा'तीखे

ह्यायुधश्रेणयःशस्त्र वाले

शिशोरपि बच्चे भी

दृप्तां वाचंगर्वीली वाणी

न सहन्तेनहीं सहते। '

राजपुत्रश्चन्द्रकेतुर्दुर्दान्तः, सोऽप्यपूर्वारण्यदर्शनाक्षिप्तहृदयो न यावदायाति , तावत् त्वरितमनेन तरुगहनेनापसर्पत।

राजकुमार 'चन्द्रकेतु' बडे दुर्दमनीय है । अपूर्व (परम रमणीय) वन की शोभा देखने में उत्सुक जब तक वे नहीं आते हैं तब तक तुम इन सघन वृक्षों में छिपकर भाग जाओ।

अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-

राजपुत्रःराजकुमार

चन्द्रकेतु 'चन्द्रकेतु'

र्दुर्दान्तः बडे दुर्दमनीय है ।

सोऽपिवह भी

अपूर्वारण्यअपूर्व (परम रमणीय) वन की

दर्शनाक्षिप्तहृदयोदेखने में उत्सुक

न यावदायातिजब तक वे नहीं आते हैं

तावत्तब तक

त्वरितमनेनशीघ्र ही इस

तरुगहनेसघन वृक्षों में

नापसर्पतछिपकर भाग जाओ।

बटवः : कुमार! कृतं कृतमश्वेन। तर्जयन्ति विस्फारितशरासनाः कुमारमायुधीयश्रेणयः। दूरे चाश्रमपदम्। इतस्तदेहि। हरिणप्लुतैः पलायामहे।

बटुगण-कुमार ! घोड़े को रहने दो ! धनुष ताने हुए शस्त्रधारियों के समूह तुम्हें धमका रहे हैं; और आश्रम यहाँ से दूर है । अतः आओ! हरिणों की मांति कूद-कूद कर भाग चले ।

अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-

कुमार!कुमार !

अश्वेनघोड़े को

कृतं रहने दो !

कृतम्रहने दो !

शरासनाःधनुष

विस्फारितताने हुए

कुमारम्कुमार

आयुधीयश्रेणयःशस्त्रधारियों के समूह

तर्जयन्तितुम्हें धमका रहे हैं;

चाश्रमपदम्और आश्रम

दूरेयहाँ से दूर है।

तदेहि अतः आओ!

हरिणप्लुतैःहरिणों की मांति कूद-कूद कर

इतःयहाँ से

पलायामहेभाग चलें।

लवः : किं नाम विस्फुरन्ति शस्त्राणि?

लव-क्या शस्त्र चमक रहे हैं ?

(इति धनुरारोपयति)

(धनुष सन्धान करता हुआ।)

प्रश्न 1.
संस्कृतभाषया उत्तराणि लिखत - 
(क) 'उत्तररामचरितम्' इति नाटकस्य रचयिता कः ? 
(ख) नेपथ्ये कोलाहलं श्रुत्वा जनक: किं कथयति ? 
(ग) लव: कौशल्यां रामभद्रं च कथमनुसरति ?
(घ) बटवः अश्वं कथं वर्णयन्ति ? 
(ङ) लवः कथं जानाति यत् अयम् आश्वमेधिकः अश्वः? 
(च) राजपुरुषस्य तीक्ष्णतरा आयुधश्रेण्यः किं न सहन्ते ? 
उत्तरम् :
(क) भवभूति: 'उत्तररामचरितम्' इति नाटकस्य रचयिता। 
(ख) नेपथ्ये कोलाहलं श्रुत्वा जनकः कथयति-"शिष्टानध्यायः इति क्रीडतां वटूनां कोलाहलः"। 
(ग) लवः कौशल्यां रामभद्रं च देहबन्धनेन स्वरेण च अनुसरति। 
(घ) बटवः अश्वं भूतविशेषं वर्णयन्ति।
(ङ) लवः अश्वमेध-काण्डेन जानाति यत् अयम् आश्वमेधिकः अश्वः। 
(च) राजपुरुषस्य तीक्ष्णतराः आयुधश्रेण्यः दृप्तां वाचं न सहन्ते। 
प्रश्न 2. 
रेखाङ्कितपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत 
(क) अश्वमेध इति नाम क्षत्रियाणां महान् उत्कर्षनिकषः। 
(ख) हे बटवः! लोष्ठैः अभिघ्नन्तः उपनयत एनम् अश्वम्। 
(ग) रामभद्रस्य एषः दारकः अस्माकं लोचने शीतलयति। 
(घ) उत्पथैः मम मनः पारिप्लवं धावति। 
(ङ) अतिजवेन दूरमतिक्रान्तः स चपल: दृश्यते। 
(च) विस्फारितशरासनाः आयुधश्रेण्यः कुमारं तर्जयन्ति।
(छ) निपुणं निरूप्यमाणः लवः मुखचन्द्रेण सीतया संवदत्येव। 
उत्तरम् : 
(प्रश्ननिर्माणम्) 
(क) अश्वमेध इति नाम केषां महान् उत्कर्ष-निकषः ? 
(ख) हे बटवः ! कथं अभिघ्नन्तः उपनयत एनम् अश्वम् ? 
(ग) रामभद्रस्य एष दारकः अस्माकं किं शीतलयति ? 
(घ) उत्पथैः कस्य मनः पारिप्लवं धावति ? 
(ङ) अतिजवेन दूरम् अतिक्रान्तः सः कथं दृश्यते ?
(च) विस्फारित-शरासनाः आयुधश्रेण्यः कं तर्जयन्ति ? 
(छ) निपुणं निरुप्यमाणः लवः मुखचन्द्रेण कया संवदति एव ? 

प्रश्न 3. 
सप्रसङ्ग-व्याख्यां कुरुत - 
(क) सर्वक्षत्रपरिभावी महान् उत्कर्षनिकषः। 
(ख) किं व्याख्यानैव्रजति स पुन(रमेह्यहि याम। 
(ग) सुलभसौख्यमिदानी बालत्वं भवति 
(घ) झटिति कुरुते दृष्टः कोऽयं दृशोरमृताञ्जनम् ? 
उत्तरम् : 
(क) सर्वक्षत्रपरिभावी महान् उत्कर्षनिकषः। 
प्रसंग: - प्रस्तुत पंक्ति 'लवकौतुकम्' पाठ से संकलित है। वाल्मीकि आश्रम में 'लव' के साथ ब्रह्मचारी-सहपाठी खेल रहे हैं। इसी समय कुछ बटुगण आकर, लव को आश्रम के निकट अश्वमेध घोड़े की सूचना देते हैं। यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा रक्षकों से घिरा हुआ है। लव उस अश्वमेध यज्ञ के महत्त्व को अपने मन में विचार करता हुआ कहता है
व्याख्या - यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा है। यह क्षत्रियों की शक्ति का सूचक होता है। क्षत्रिय राजा, अपने बलवान् शत्रु राजा पर अपनी विजय की धाक जमाने के लिए इसे छोड़ता है। वास्तव में यह घोड़ा सभी शत्रुओं पर प्रभाव डालने वाले उत्कर्ष श्रेष्ठपन का सूचक होता है।
(ख) किं व्याख्यानैर्ऋजति स पुन(रमेयेहि यामः। 
प्रसंग: - प्रस्तुत पंक्ति 'लवकौतुकम्' पाठ से संकलित है। वाल्मीकि आश्रम के निकट राम के अश्वमेध का घोड़ा घूमते-घूमते आ गया है। वहाँ खेलते हुए ब्रह्मचारी उस विशेष प्राणी को देखकर भागते हुए आश्रम में आते हैं और 'लव' के सामने उसका वर्णन करते हैं
व्याख्या - यह प्राणिविशेष लम्बी पूँछ को बारबार हिला रहा है। घास खाता है, लीद करता है, लम्बी गर्दन है, चार खुरों वाला है। अधिक कहने का समय नहीं है, यह जन्तु तेजी से आश्रम से दूर भागा जा रहा है, चलो आओ हम भी उसे देखते हैं। भाव यह है कि उसे बताने की अपेक्षा उसे देखना अधिक आनन्ददायक होगा। 
(ग) सुलभं सौख्यम् इदानी बालत्वं भवति।। 
प्रसंग: - प्रस्तुत पंक्ति 'लवकौतुकम्' पाठ से उद्धृत है। वाल्मीकि आश्रम में अतिथि के रूप में जनक, कौशल्या और अरुन्धती आए हुए हैं। उनके आने से आश्रम में अवकाश कर दिया गया है और सभी छात्रगण खेलते हुए शोर मचा रहे हैं। इस शोर को सुनकर, कौशल्या जनक को बता रही हैं 
व्याख्या - बाल्यकाल में सुख के साधन सुलभ होते हैं। बच्चों को मजा लेने के लिए किसी खिलौने आदि की आवश्यकता नहीं होती। वे तो साधारण से खेल-कूद और हँसी-मजाक द्वारा ही सुख प्राप्त कर लेते हैं। सुख प्राप्ति के लिए उन्हें बड़े बहुमूल्य क्रीडा-साधनों की आवश्यकता नहीं होती। ये ब्रह्मचारी अपने बचपन का आनन्द ले रहे हैं। 
(घ) झटिति कुरुते दृष्टः कोऽयं दृशोः अमृताञ्जनम्। 
प्रसंगः - प्रस्तुत पंक्ति 'लवकौतुकम्' पाठ से संकलित है। वाल्मीकि आश्रम में, राम के पुत्र 'लव' को देखकर, अरुन्धती (वशिष्ठ की पत्नी) अत्यन्त प्रभावित है। वह उसके रूप सौन्दर्य को देखकर, राम के बचपन को स्मरण करती हुई जनक तथा कौशल्या से कहती है - 
व्याख्या - यह बालक मेरे हृदय में अत्यन्त स्नेहभाव पैदा कर रहा है। इसे देखकर मुझे ऐसा लग रहा है, जैसे कि बचपन के राम को देख रही हूँ। यह प्रिय बालक देखने पर मुझे इतना आकृष्ट कर रहा है, मानो मेरी आँखों में अमृत का अंजन लगा दिया है। इसे देखकर मुझे अत्यन्त तृप्ति मिल रही है। 
प्रश्न 4. 
अधोलिखितानि कथनानि कः कं कथयति ? 
उत्तरसहितम् - 
प्रश्न 5. 
अधोलिखितवाक्यानां रिक्तस्थानपूर्ति निर्देशानुसारं कुरुत -
(क) क एषः ........ रामभद्रस्य मुग्धललितैरङ्गैर्दारकोऽस्माकं लोचने .......। (क्रियापदेन) 
(ख) एष ............. मे सम्मोहनस्थिरमपि मनः हरति। (कर्तृपदेन) 
(ग) ................! इतोऽपि तावदेहि ! (सम्बोधनेन) 
(घ) 'अश्वोऽश्व' .............. नाम पशुसमाम्नाये साङ्ग्रामिके च पठ्यते। (अव्ययेन) 
(ङ) युष्माभिरपि तत्काण्डं ..................... एव हि। (कृदन्तपदेन) 
(च) एष वो लवस्य ................. प्रणामपर्यायः। (करणपदेन) 
उत्तरम् :
(क) क एषः अनुसरति रामभद्रस्य मुग्धललितैरङ्गैर्दारकोऽस्माकं लोचने शीतलयति। 
(ख) एष बलवान् मे सम्मोहनस्थिरमपि मनः हरति।
(ग) जात! इतोऽपि तावदेहि ! 
(घ) 'अश्वोऽश्व' इति नाम पशुसमाम्नाये सानामिके च पठ्यते। 
(ङ) युष्माभिरपि तत्काण्डं पठितम् एव हि। 
(च) एष वो लवस्य शिरसा प्रणामपर्यायः। 
प्रश्न 6. 
अधः समस्तपदानां विग्रहाः दत्ताः। उदाहरणमनुसृत्य समस्तपदानि रचयत, समासनामापि च लिखत - 
उदाहरणम् - पशूनां समाम्नायः, तस्मिन् पशुसमाम्नाये - षष्ठीतत्पुरुषः
(क) विनयेन शिशिरः-विनशिशिरः-तृतीयातत्पुरुष
(ख) अयस्कान्तस्य शकलः-अयस्कान्तशकलः-षष्ठीतत्पुरुष
(ग) दीर्घा ग्रीवा यस्य सः-दीर्घाग्रीवा-कर्मधारयतत्पुरुष
(घ) मुखम् एव पुण्डरीकम्-मुखपुण्डरीकम्-कर्मधारयतत्पुरुष  
(ङ) पुण्यः चासौ अनुभावः-पुण्यानुभावः-कर्मधारयतत्पुरुष
(च) न स्खलितम्-अस्खलितम्-नञ् तत्पुरुष
प्रश्न 7. 
अधोलिखित पारिभाषिक शब्दानां समुचितार्थेन मेलनं कुरुत -
(क) नेपथ्ये                  (क) प्रकटरूप में
(ख) आत्मगतम्            (ख) देखकर
(ग) प्रकाशम्                (ग) पर्दे के पीछे
(घ) निरूप्य                  (घ) अपने मन में
(ङ) उत्सङ्गे गृहीत्वा       (ङ) प्रवेश करके
(च) प्रविश्य                  (च) अपने मन में
(छ) सगर्वम्                  (छ) गोद में बिठा कर
(ज) स्वगतम्                 (ज) गर्व के साथ 
प्रश्न 8. 
पाठमाश्रित्य हिन्दीभाषया लवस्य चारित्रिकवैशिष्ट्यं लिखत - 
उत्तरम् : 
(बालक लव का चरित्र चित्रण) 
लव महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में पालित-पोषित, राजा राम द्वारा निर्वासित भगवती सीता के जुड़वा पुत्रों में से एक है। वह आकृति में बिल्कुल राम जैसा है, उसकी आँखों में राम की आँखों जैसी चमक है। यही कारण है कि जब महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में राजर्षि जनक, कौशल्या और अरुन्धती अतिथि के रूप में पधारते हैं; तब खेलते हुए बालकों के बीच कौशल्या बालक लव को देखकर राम के बचपन की याद में खो जाती है। तीनों की बातचीत से पता लगता है कि लव का मुख सीता के मुखचन्द्र की भाँति है। उसका मांसल और तेजस्वी शरीर राम के तुल्य है। उसका स्वर बिल्कुल राम से मिलता-जुलता है। 
       लव शिष्टाचार में कुशल है। वह गुरुजनों का आदर करना जानता है और जनक आदि के आश्रम में पधारने पर उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम करता है। लव ने महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा प्राप्त की है। इसीलिए जब चन्द्रकेतु द्वारा रक्षित राजा राम का अश्वमेधीय अश्व आश्रम में प्रवेश करता है; तब लव इस घोड़े को देखते ही पहचान जाता है कि यह अश्वमेधीय अश्व है, क्योंकि उसने युद्धशास्त्र तथा पशु-समाम्नाय में इस अश्व के बारे में पढ़ा हुआ है।
      लव स्वभाव से वीर है, उसका स्वाभिमान क्षत्रियोचित है। इसीलिए अश्व के रक्षक सैनिकों के द्वारा जब अश्व के सम्बन्ध में गर्वपूर्ण शब्दावली का प्रयोग किया जाता है; तब वह उन सैनिकों को ललकारता है और अपने साथी बालकों को आदेश करता है कि पत्थर मार मारकर इस घोड़े को पकड़ लो, यह भी हमारे हिरणों के बीच रहकर घास चर लिया करेगा। इतना ही नहीं वह विजयपताका को छीनने की घोषणा करता है। अन्य बालक युद्ध के लिए चमकते हुए अस्त्रों को देखकर आश्रम में भाग जाना चाहते हैं परन्तु लव उनका सामना करने के लिए धनुष पर बाण चढ़ा लेता है। इस प्रकार लव राम और सीता की आकृति से मेल रखता हुआ, गंभीर स्वर वाला, शिष्टाचार में निपुण, वीर, स्वाभिमानी, और तेजस्वी बालक है।
प्रश्न 9. 
अधोलिखितेषु श्लोकेषु छन्दोनिर्देशः क्रियताम् - 
(क) महिम्नामेतस्मिन् विनयशिशिरो मौग्ध्यमसृणो। 
(ख) वत्सायाश्च रघूद्वहस्य च शिशावमिस्मन्नभिव्यज्यते। 
(ग) पश्चात्पुच्छं वहति विपुलं तच्च धूनोत्यजस्त्रम्। 
उत्तरम् :
(क) शिखरिणी छन्दः। 
बालकौतुकम् 
(ख) शार्दूलविक्रीडितम् छन्दः। 
(ग) मन्दाक्रान्ता छन्दः। 
प्रश्न 10. 
पाठमाश्रित्य उत्प्रेक्षालङ्कारस्य उपमालङ्कारस्य च उदाहरणं लिखत - 
उत्तरम् : 
(क) उत्प्रेक्षालड्कारस्य उदाहरणम् - 
वत्सायाश्च रघूद्वहस्य च शिशावस्मिन्नभिव्यज्यते, 
संवृत्तिः प्रतिबिम्बितेव निखिला सैवाकृतिः सा द्युतिः। 
(ख) उपमालङ्कारस्य उदाहरणम् -
मनो मे संमोहस्थिरमपि हरत्येष बलवान्, 
अयोधातुर्यद्वत्परिलघुरयस्कान्तशकलः॥ 

बहुविकल्पीय-प्रश्नाः 
I. समुचितम् उत्तरं चित्वा लिखत -  
(i) 'उत्तररामचरितम्' इति नाटकस्य रचयिता कः ? 
(A) भासः 
(B) कालिदासः 
(C) भवभूतिः 
(D) अश्वघोषः। 
उत्तरम् :
(B) कालिदासः 
(ii) बटवः अश्वं कथं वर्णयन्ति ? 
(A) भूतविशेषम् 
(B) भूतम् 
(C) राजाश्वम् 
(D) विशेषम्।
उत्तरम् :
(A) भूतविशेषम् 
(ii) लवः कथं जानाति यत् अयम् आश्वमेधिकः अश्व: ? 
(A) उत्तरकाण्डेन 
(B) युद्धकाण्डेन 
(C) पूर्वकाण्डेन 
(D) अश्वमेधकाण्डेन। 
उत्तरम् :
(D) अश्वमेधकाण्डेन। 
(iv) राजपुरुषस्य तीक्ष्णतरा आयुधश्रेण्यः कीदृशीं वाचं न सहन्ते ? 
(A) दृप्ताम् 
(B) सुप्ताम्
(C) मधुराम् 
(D) असत्ययुक्ताम्। 
उत्तरम् :
(A) दृप्ताम् 
II. रेखाङ्कितपदम् आधृत्य-प्रश्ननिर्माणाय समुचितं पदं चित्वा लिखत 
(i) अश्वमेध इति नाम क्षत्रियाणां महान् उत्कर्षनिकषः। 
(A) कः 
(B) केषाम्
(C) कस्मै 
(D) कस्मात्। 
उत्तरम् :
(B) केषाम्
(ii) हे बटवः ! लोष्ठैः अभिनन्तः उपनयत एनम् अश्वम्। 
(A) काः 
(B) कस्मात् 
(C) कुत्र 
(D) कैः। 
उत्तरम् :
(D) कैः। 
(iii) रामभद्रस्य एषः दारकः अस्माकं लोचने शीतलयति। 
(A) के 
(B) कैः 
(C) कस्मिन् 
(D) कथम्। 
उत्तरम् :
(A) के 
(iv) उत्पथैः मम मनः पारिप्लवं धावति। 
(A) कस्य 
(B) कस्मै 
(C) कस्याम् 
(D) किम्। 
उत्तरम् :
(A) कस्य 
(v) अतिजवेन दूरमतिक्रान्तः स चपलः 
(A) केन 
(B) कम् 
(C) कः 
(D) काः। 
उत्तरम् :
(C) कः 
(vi) विस्फारितशरासनाः आयुधश्रेण्यः कुमारं तर्जयन्ति। 
(A) किम् 
(B) कथम् 
(C) केन 
(D) कम्। 
उत्तरम् :
(D) कम्।
(vi) निपुणं निरूप्यमाणः लव: मुखचन्द्रेण सीतया संवदत्येव। 
(A) कस्मात् 
(B) कस्याः 
(C) कया 
(D) कस्याम्। 
उत्तरम् :
(C) कया