जेसीईआरटी तथा एनसीईआरटी के कक्षा-12 के संस्कृत पाठ्यपुस्तक-शाश्वती भाग 2 के पञ्चम: पाठ: शुकनासोपदेशः का शब्दार्थ सहित हिन्दी अनुवाद एवं भावार्थ तथा उस पर आधारित प्रश्नोत्तर सीबीएसई सत्र 2022-2023 के लिए यहाँ दिए गए हैं।यहाँ दिए गए हिंदी अनुवाद तथा भावार्थ की मदद से विद्यार्थी पूरे पाठ को आसानी से समझकर अभ्यास के प्रश्नों को स्वयं कर सकते हैं।
शुकनासोपदेश का सारांश
धन मानव जीवन की महत्वपूर्ण आवश्यकता है तथा युवावस्था उसका स्वर्णिम काल है। धन के बिना मनुष्य का जीवन नरक के समान हो जाता है।परन्तु धन की अधिकता हानिकर भी सिद्ध होती है। भारतीय संस्कृति में धन का सम्बन्ध देवी लक्ष्मी जी से है।देवी लक्ष्मी जी को धन की देवी मानकर उनका पूजा-पाठ किया जाता है।शास्त्रों में उनकी स्तुति और प्रशंसा हुई है।प्रायः प्राचीन से लेकर अर्वाचीन काव्यों में लक्ष्मी जी की स्तुति और प्रशंसा हुई है।परन्तु संस्कृत साहित्य के कुछ ऐसे भी काव्य हैं,जिसमें लक्ष्मी जी की आलोचना भी की गयी है।उन्हीं मे एक गद्य काव्य ऐसा भी है,जिसे विश्व साहित्य का पहला उपन्यास माना जाता है।उस गद्य काव्य में लक्ष्मी जी की आलोचना की गयी है।
उस गद्य काव्य में बताया गया है कि लक्ष्मी इन्द्रजाल जैसे सम्मोहन से विश्व को विमुग्ध करती है तथा भौतिक उन्नति के रूप में नीच स्वभाव का प्रवर्त्तन करती है।लक्ष्मी रुपी धन की गर्मी रहने पर भी यह शीत ऋतु के समान जडता अर्थात् आलस्य उत्पन्न करती है।जिस प्रकार शीतऋतु में मनुष्य अत्यधिक शीत के कारण कोई काम करने केलिए नहीं उठता है,उसीप्रकार अत्यधिक धन हो जाने पर भी मनुष्य कोई काम करने के लिए नहीं उठता है।इसप्रकार यह लक्ष्मी सम्प्रभुता को उपस्थित करती हुई भी जीवन में तुच्छता ला देती है।मनुष्य धन सम्पन्न होकर भी स्वयं अपना कार्य नहीं कर पाता,दूसरों पर निर्भर हो जाता है।यह लक्ष्मी सैन्य बल की वृद्धि करती हुई भी शक्तिहीन बना देती है।मनुष्य सैन्य बल पर भरोसा करके स्वयं की शक्ति का विकास नहीं कर पाता है।देवताओं और राक्षसों के द्वारा किेये गये समुन्द्र मंथन में अमृत के साथ उत्पन्न होकर भी यह विष जैसी कटुता उत्पन्न करती है।पुरुषोत्तम विष्णु जी की प्रिया होती हुई भी दीपक की लौ के समान कालिख उत्पन्न करती है।यह लक्ष्मी तृष्णा को जगाती है।इन्द्रियों को विषयों में लगाती है।निद्रा जैसी मोहिनी दशा, कालिमा जैसी अँधियारी तथा मधुशाला जैसी मतीली दशा को उत्पन्न करती है।यह लक्ष्मी दोष रुपी विषैले सर्पों के रहने की खोह है।शिष्टाचार को दूर हटाने वाली बेंत की छडी है।सद्गुण रुपी राजहंसों को हटाने के लिए बिना समय की वर्षा है।सज्जनता का फाँसी घर है।धर्म रुपी चन्द्रमण्डल के लिए राहु की जीभ है।
लक्ष्मीजी के दोषों का वर्णन करते हुए इसमें युवावस्था के दोषों को भी नहीं छोडा गया है।युवावस्था की भी भरपूर आलोचना की गयी है।यौवन के प्रारम्भ में शास्त्ररुपी जल से धुली हुई निर्मल बुद्धि भी कलुषित हो जाती है।यौवन के उन्मादक परिणाम से शास्त्रज्ञान भी रक्षा नहीं कर पाते।तरुण व्यक्तियों के उज्ज्वल आँखों में प्रेम व्यापार की लालिमा सदैव छायी रहती है।रजोगुण का प्रभाव यौवन काल में इतनी प्रचण्डता प्राप्त कर लेता है कि वह युवक की बुद्धि को बवंडर में पडे तिनके की तरह विभ्रम में डाल दिया करता है।विषय-सुख भोगने की लालसा ्त्यन्त विषम हुआ करती है।युवावस्था में विषयों का वह सुख ही मधुर और हितकर प्रतीत होता है,जो अन्त में दुखों की सृष्टि करने वाला है।इससे मनुष्य कुमार्गगामी होकर विनाश को प्राप्त हो जाता है। लक्ष्मी और युवावस्था का आलोचना करने के बाद इसमें यह भी बताया गया है कि ऐसे लोगों पर शिक्षा का प्रभाव नहीं के बराबर पडता है।इसप्रकार इस गद्य काव्य में बतायी गयी बातें आज के लिए अत्यन्त प्रासंगिक है।
यह गद्य काव्य संस्कृत वाङ्मयमय का बहुत ही प्रसिद्ध गद्य काव्य है।जिसका नाम है-कादम्बरी।जिसकी रचना आज से करीब 1300वर्ष पहले सातवीं शताब्दी में हुई थी।उस समय कन्नौज के राजा हर्षवर्द्धन का राज्य था।उन्हीं के दरबारी कवि थे-बाणभट्ट।इन्होने दो प्रमुख ग्रन्थों की रचना की-हर्षचरित्र और कादम्बरी।कादम्बरी को ही विश्व साहित्य का पहला उपन्यास माना जाता है,जिसे संस्कृत मे आख्यायिका कहा जाता है।कादम्बरी की कहानी काल्पनिक है।शुकनासोपदेश इसी कादम्बरी का एक अंश है।इसमें महाकवि ने राजा तारापीड के मन्त्री शुकनास के माध्यम से युवराज के पद पर अभिषिक्त होने वाले चन्द्रापीड को लक्ष्मी और युवावस्था की आलोचना करते हुए उपदेश दिलवाया है।
यौवराज्याभिषेकं -युवराज के पद पर अभिषेक चिकीर्षुः -करने के इच्छुक
कदाचित् -कभी
दर्शनार्थमागतमारुढविनयमपि -दर्शन के लिए आया हुआ और विनयशील होने पर भी उसको
विनीततरमिच्छन् कर्तुं -और विनीत करने की
शुकनासः सविस्तरमुवाच--विस्तार पूर्वक उपदेश दिया।
गद्यांश का अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
गद्यांश का अन्वय,शब्दार्थ और वाक्यार्थ-
अभिनवयौवनत्वम्,-नूतन यौवन
अप्रतिमरुपत्वम्-निरुपम् सौन्दर्य
परम्परा है।
यौवनारम्भे च-और यौवन के
आरंभ में
प्रायःशास्त्रजलप्रक्षालन-प्रायः शास्त्ररुपी
निर्मलापि बुद्धिः-निर्मल हुई बुद्धि भी
कालुष्यमुपयाति-मलिनता को
प्राप्त होती है।
विषयेषु च-और विषयों में
पुरुषमत्यासङ्गो-पुरुषों की
अत्यासक्ति उसे
नाशयति-नष्ट कर देती है
उपदेशानाम्-उपदेशों के
भाजनानि-पात्र
भवन्ति-होते हैं।
हि-क्योंकि
अपगतमले-निर्मल
हि मनसि-मन में ही
उपदेशगुणाः-उपदेशों
के गुण
सुखेन-सुखपूर्वक
विशन्ति-प्रवेश
करते हैं।
गुरुपदेशः-गुरु का
उपदेश
अतिमलिनम्-अत्यन्त मलिन
दोषजातम् अपि-दोष को भी
हरति-हर लेता है।
गुरुपदेशश्च नाम-और गुरु
का उपदेश
अखिलमल-समस्त
दोषों को
प्रक्षालनक्षमम्-दूर करने में
समर्थ
अजलं-बिना जल का
स्नानम्-स्नान है।
विॆशेषेण तु-विशेषकर तो
राज्ञाम्-राजा के
लिए,
तेषामुपदेष्टारः-(क्योंकि) उनको
उपदेश देने
वाले
विरला हि-विरला ही
होते हैं।
जनो भयात्-लोग भय से
राजवचनम्-राजा की
आज्ञा का
अनुगच्छति-पालन
करते हैं।
उपदिश्यमानमपि-उपदेश दिये
जाने पर भी
ते न श्रृण्वन्ति-वेलोग नहीं
सुनते है्ं।
हितोपदेशदायिनो-(तथा)हितकर
उपदेश देने
वाले
गुरुन्-गुरुओं का
अवधीरयन्तः-अनादर
करते हुए
खेदयन्ति-कष्ट पहुँचाते हैं।
कल्याणे-कल्याण में
अभिनिवेशी-आग्रह रखनेवाली
लक्ष्मीमेव-लक्ष्मी को ही
प्रथमम्-पहले
आलोकयतु-देखो।
हि-क्योंकि
इह जगति- इस जगत में
एवं किञ्चित्-ऐसी कोई
अपरिचितम्-अपरिचित
विधम्-वस्तु
न अस्ति- नहीं है,
यथेयमनार्या-जैसी यह
असभ्या।
लब्धापि-प्राप्त होने पर भी
खलु-निश्चित रुप से
दुःखेन-दुःख से
परिपाल्यते-पाली जाती है।
परिपालिता-अच्छी तरह से रक्षा
किेये जाने पर भी
अपि-भी
प्रपलायते-भाग जाती है।
परिचयंं-परिचय की
न रक्षति-परवाह नहीं
करती है।
नाभिजनम्-न उच्च कुल को
ईक्षते-देखती है।
न रुपम्-न सौन्दर्य
आलोकयते-देखती है।
न कुलक्रमम्-न कुलक्रम का
अनुवर्तते-अनुसरण करती है।
न शीलं-न नम्रता
पश्यति-देखती है।
न वैदग्ध्यं-न विद्वता की
गणयति-गणना करती है।
न श्रुतम्-न वेदों को
आकर्णयति-सुनती है।
न धर्मम्-न धर्म का
अनुरुध्यते-्अनुरोध मानती है।
न त्यागम्-न त्याग का
आद्रियते-आदर करती है।
न विशेषज्ञतां-न विशेषज्ञता का
विचारयति-विचार करती है।
नाचारं-न आचार का
पालयति-पालन करती है।
नसत्यम्-न सत्य को
अवबुध्यते-समझती है।
पश्यत एव-देखते ही
नश्यति-नष्ट हो जाती है।
सरस्वत्या-सरस्वती द्वारा
परिगृहीतं-स्वीकृत
जनम्-व्यक्तियों का
नालिङ्गति-आलिङ्गन
नहीं करती है।
गुणवन्तं-गुणवानों को
न स्पृशति-स्पर्श नहीं
करती है।
सुजनं-अच्छे व्यक्तियों को
न पश्यति-नहीं देखती है।
शूरं-वीर व्यक्तियों को
कण्टकमिव-काँटे के समान
परिहरति-त्याग देती है।
दातारं-दानी व्यक्तियों को
दुस्वप्नमिव-दुस्वप्न के समान
न स्मरति-स्मरण नहीं
करती है।
विनीतं-विनम्र व्यक्तियों
के पास
नोपसर्पति-नहीं जाती है।
तृष्णां-तृष्णा को
संवर्धयति-बढाती है।
लघिमानम्-हल्कापन
आपादयति-उत्पन्न करती है।
एवं च-और इसप्रकार
अनया-इस
विधयापि-दुराचारिणी
के द्वारा
कथमपि-किसी तरह भी
दैववशेन-भाग्यवश
परिगृहीताः-स्वीकृत किए गए
राजानः-राजा लोग
विक्लवाः-व्याकुल
भवन्ति-हो जाते हैं।
सर्वाविनयं च-और सभी
क्रूरताओं का
अधिष्ठानतां-आधार
गच्छति-बन जाते हैं।
स्वार्थनिष्पादनपरैः-स्वार्थ सिद्ध करने मेंं
लगे हुए
दोषानपि-दोषों को भी
गुणपक्षम्-गुणों की श्रेणी में
अध्यारोपयद्भि-आरोपित करने
वाले
प्रतारणकुशलैर्धूर्त्तैः-छलने में चतुर
ठगो द्वारा
प्रतार्यमाणा-ठगे जात हुए
वित्तमदमत्तचित्ता-धन के अहंकार
से भरे हुए चित्त वाले
सर्वजनेन-सभी लोगो के द्वारा
उपहास्यताम्-उपहास के पात्र
उपयान्ति-बनते हैं।
मान्यान्,-(वेलोग)सम्माननियों
का
न मानयन्ति-सम्मान नहीं करते हैं,
वृद्धोपदेशम्-वृद्धों के उपदेश को
जरावैक्लव्य-बुढापे में सठियाने
के कारण
प्रलपितमिति-बकवाद के रुप में
पश्यन्ति-देखते हैं।
हितवादिने-हित की बात कहने
वाले पर
कुप्यन्ति-क्रोध करते हैं।
सर्वथा-हमेशा
तमभिनन्दति,-उसी का
अभिनन्दन करते हैं,
तं संवर्धयन्ति,-उसी को बढाते हैं,
तस्य वचनं-उसी का वचन
श्रृण्वन्ति,-सुनते हैं,
तं बहु मन्यन्ते-उसी को बहुत
मानते है,
यो-जो
अहर्निशम्-दिन-रात
अनवरतं-निरन्तर
अन्यकर्त्तव्यः-अन्य कर्त्तव्यों को
विगत-छोडकर(उनकी)
स्तौति,-स्तुति करता है
यो वा-अथवा जो
माहात्म्यम्-(उनकी) महिमा को
उद्भावयति-गाता है।
चन्द्रापीडस्ताभिरुपदेशवाग्भिः प्रक्षालित इव,उन्मीलित इव, स्वच्छीकृत इव,पवित्रीकृत इव,उद्भासित इव,प्रीतहृदयो स्वभवनमाजगाम।
तद्-तब
अतिकुटिल-अत्यन्त कुटिल
चेष्टादारुणे-चेष्टाओं से भयंकर
राज्यतन्त्रे,-राज्य व्यवहार
च अस्मिन्-और इस
महामोहं-महामोह को
कारिणी -उत्पन्न करने वाली
यौवने-युवावस्था में
कुमार-हे कुमार
तथा-वैसा ही
प्रयतेथाः-प्रयत्न करना,
यथा जनैः-जिससे लोग
नोपहस्यसे-उपहास नहीं करे,
साधुभिः-सज्जन
न निन्द्यसे-निन्दा नहीं करे,
गुरुभिः,-गुरुजन
न धिक्क्रियसे-धिक्कारे नहीं
सुहृद्भिः-मित्र
नोपालभ्यसे-उलाहना न दे,
धूर्त्तैः-चालाक लोग
न वञ्च्यसे-ठगे नहीं,
लक्ष्म्या-लक्ष्मी
न विडम्ब्यसे-निकल न जाय,
विषयैः-विषय
नाक्षिप्यसे-फँसाये नहीं,
सुखेन-सुख
नापह्रियसे-अपहरण न कर ले।
च इदमेव-और यही
पुनःपुनः-बार-बार
अभिधीयसे-कहता हूँ(कि)
विद्वांसमपि-विद्वानों को भी
सचेतसमपि-सचेत को भी
महासत्त्वमपि-महाबलशाली को भी
अभिजातमपि-कुलीन को भी
धीरमपि-धैर्य धारण करने वाले को भी
प्रयत्नवन्तमपि-प्रयत्नशील को भी
पुरुषं-(हर प्रकार के)पुरुषों को भी
दुर्विनीता -(यह)दुराचारिणी
लक्ष्मी- लक्ष्मी
खलीकरोति-दुष्ट बना देती है।
इत्येतावद्-इतना
अभिधाय-कहकर
उपशशाम-(शुकनास)चुप हो गये।
चन्द्रापीडः-चन्द्रापीड
ताभिः-उनके
उपदेशवाग्भिः-उपदेश वचनों से
प्रक्षालित इव-धुला हुआ सा,
उन्मीलित इव-खिला हुआ सा,
स्वच्छीकृत इव-स्वच्छ किया हुआ सा,
पवित्रीकृत इव,-पवित्र किया हुआ सा,,
उद्भासित इव-चमकाया हुआ सा,
प्रीतहृदयो-प्रसन्न हृदय होकर
स्वभवनम्-्अपने भवन को
प्रश्न 1.
संस्कृतेन उत्तरं दीयताम् -
(क) लक्ष्मीमदः कीदृशः ?
(ख) चन्द्रापीडं कः उपदिशति ?
(ग) अनर्थपरम्परायाः किं कारणम् ?
(घ) कीदृशे मनसि उपदेशगुणाः प्रविशन्ति ?
(ङ) लब्धापि दुःखेन का परिपाल्यते ?
(च) केषाम् उपदेष्टार: विरलाः सन्ति ?
(छ) लक्ष्म्या परिगृहीताः राजानः कीदृशाः भवन्ति ?
(ज) वृद्धोपदेशं ते राजानः किमिति पश्यन्ति ?
उत्तरम् :
(क)लक्ष्मीमदः अपरिणामोपशमः दारुणः अस्ति।
(ख) चन्द्रापीडं मन्त्री शुकनासः उपदिशति ?
(ग) अनर्थपरम्परायाः कारणानि-गर्भेश्वरत्वम्, अभिनवयौवनत्वम्, अप्रतिम-रूपत्वम्, अमानुषशक्तित्वं चेति।
(घ) अपगतमले मनसि उपदेशगुणाः प्रविशन्ति ।
(ङ) लब्धापि दुःखेन लक्ष्मीः परिपाल्यते।
(च) राज्ञाम् उपदेष्टारः विरलाः सन्ति ?
(छ) लक्ष्या परिगृहीताः राजानः विक्लवाः भवन्ति ?
(ज) वृद्धोपदेशं ते राजानः जरावैक्लव्यप्रलपितम् इति पश्यन्ति ?
प्रश्न 2.
विशेषणानि विशेष्यैः सह योजयत -
विशेषणम् - विशेष्यम्
(क) समतिक्रामत्सु -
(ख) अधीतशास्त्रस्य - विद्वांसम्
(ग) दारुणो
दिवसेषु
(घ) गहनं तमः - दोषजातम्
(ङ) अतिमलिनम् - लक्ष्मीमदः
(च) सचेतसम् - यौवनप्रभवम्
उत्तरम् :
(क) समतिक्रामत्सु - दिवसेषु
(ख) अधीतशास्त्रस्य -
(ग) दारुणो - लक्ष्मीमदः
(घ) गहनं तमः - यौवनप्रभवम्
(ङ) अतिमलिनम् - दोषजातम्
(च) सचेतसम - विद्वांसम्
प्रश्न 3.
अधोलिखितपदानि स्वरचित-संस्कृत-वाक्येषु प्रयुग्ध्वम् -
संग्रहार्थम्, समुपस्थितम्, विनयम्, परिणमयति, शृण्वन्ति, स्पृशति।
उत्तरम् :
(वाक्यप्रयोगः)
(क) संग्रहार्थम्-सद्गुणानां संग्रहणार्थं सदा यत्नः करणीयः।
(ख) समुपस्थितम्-राजा समुपस्थितं सेवकं शस्त्रम् आनेतुम् आदिशत्।
(ग) विनयम्-विद्या विनयं ददाति।
(घ) परिणमयति-लक्ष्मीमदः सज्जनम् अपि दुष्टभावेषु परिणमयति।
(ङ) शृण्वन्ति-अहंकारिणः राजानः गुरूपदेशान् न शृण्वन्ति।
(च) स्पृशति-लक्ष्मी: गुणवन्तं न स्पृशति।
प्रश्न 4.
अधोलिखितानां पदानां सन्धिच्छेदं कुरुत -
उत्तरसहितम् :
(क) एवातिगहनम् = एव + अतिगहनम्
(ख) गर्भेश्वरत्वम् = गर्भ + ईश्वरत्वम्
(ग) गुरूपदेश: = + उपदेशः
(घ) येवम् = हि + एवम्
(ङ) नाभिजनम् = न + अभिजनम्
(च) नोपसर्पति = + उपसर्पति
प्रश्न 5.
प्रकृति-प्रत्ययविभागः क्रियताम् -
उत्तरसहितम् :
प्रश्न 6.
समासविग्रहं कुरुत -
उत्तरसहितम् :
(क) अमानुषशक्तित्वम् - न मानुषशक्तित्वम् (नञ्-तत्पुरुषः)
(ख) अत्यासगः - अतिशयेन आसङ्गः (उपपद-तत्पुरुषः)
(ग) अनार्या - न आर्या (नञ्-तत्पुरुषः)
(घ) स्वार्थनिष्पादनपरैः . स्वार्थस्य निष्पादने परैः (तत्परैः) तत्पुरुषः
(ङ) अहर्निशम् - निशायां निशायाम् (अव्ययीभावः)
(च) वृद्धोपदेशम् - वृद्धानाम् उपदेशम् (षष्ठी-तत्पुरुषः)
प्रश्न 7.
रिक्तस्थानानि पूरयत -
(क) लक्ष्मीः .................................. न रक्षति।
(ख) ..................... दुःस्वप्नमिव न स्मरति।
(ग) सरस्व तापारगृहात ..................... ।
(घ) उपदिश्यमानमपि ....... .............. न शृण्वन्ति।
(ङ) अवधीरयन्तः ..................... हितोपदेशदायिनो गुरून्।
(च) तथा प्रयतेथाः ..................... नोपहस्यसे जनैः।
(छ) चन्द्रापीडः प्रीतहृदयो ........................ आजगाम।
उत्तरम् :
(क) परिचयम्
(ख) दातारम्
(ग) नालिङ्गति
(घ) राजानः
(ङ) खेदयन्ति
(च) यथा
(छ) स्वभवनम्।
प्रश्न 8.
सप्रसगं हिन्दीभाषया व्याख्या कार्या -
(क) गर्भेश्वरत्वभिनवयौवनत्वमप्रतिमरूपत्वममानुषशक्तित्वञ्चेति महतीयं खल्वनर्थपरम्परा।
(ख) हरति अतिमलिनमपि दोषजातं गुरूपदेशः।
(ग) विद्वांसमपि सचेतसमपि, महासत्त्वमपि, अभिजातमपि, धीरमपि, प्रयत्नवन्तमपि पुरुष दुर्विनीता खलीकरोति लक्ष्मीरिति।
उत्तरम् :
(व्याख्या)
(क) गर्भेश्वरत्वभिनवयौवनत्वमप्रतिमरूपत्वममानुषशक्तित्वज्येति महतीयं खल्वनर्थपरम्परा।
व्याख्या-प्रस्तुत पंक्ति शुकनासोपदेश नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट द्वारा रचित कादम्बरी से लिया गया है। प्रस्तुत पंक्ति में मन्त्री शुकनास युवराज चन्द्रापीड को उपदेश करते हुए अनर्थ के चार
कारणों की ओर ध्यान दिला रहे हैं।
मन्त्री शुकनास कहते हैं कि अनर्थ की परम्परा के चार कारण हैं -
(i) जन्म से ही प्रभुता
(ii) नया यौवन
(iii) अति सुन्दर रूप
(iv) अमानुषी शक्ति।
इन चारों में से मनुष्य का विनाश करने के लिए कोई एक कारण भी पर्याप्त होता है। जिसके जीवन में ये चारों ही कारण उपस्थित हों, उसके विनाश को कौन रोक सकता है ? इसीलिए प्रत्येक मनुष्य को घोर अनर्थ से बचने के लिए उक्त चारों वस्तुएँ पाकर भी कभी अहंकार नहीं करना चाहिए।
(ख) हरति अतिमलिनमपि दोषजातं गरूपदेशः।
व्याख्या - प्रस्तुत पंक्ति शुकनासोपदेश नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट द्वारा रचित कादम्बरी से लिया गया है। प्रस्तुत पंक्ति में शुकनास युवराज चन्द्रापीड को गुरु के उपदेश का महत्त्व समझा रहे हैं। मन्त्री शुकनास कहते हैं कि गुरु का उपदेश मनुष्य के जीवन में बहुत अधिक उपयोगी तथा हितकारी होता है। मनुष्य में यदि अत्यधिक गहरे दोषों का समूह हो तो गुरु का उपदेश उन गहरे से गहरे दोषों को भी दूर कर देता है और उन दोषों के स्थान पर अति उत्तम गुण प्रवेश कर जाते हैं। मनुष्य का जीवन उज्ज्वल हो जाता है। सब जगह ऐसे व्यक्ति का यश फैलता है, इसीलिए गुरु का उपदेश प्रत्येक मनुष्य के लिए परम कल्याणकारी तथा आवश्यक है।
(ग) विद्वांसमपि सचेतसमपि, महासत्त्वमपि, अभिजातमपि, धीरमपि, प्रयत्न-वन्तमपि पुरुषं दुविनीता खलीकरोति लक्ष्मीरिति।
व्याख्या - प्रस्तुत पंक्ति शुकनासोपदेश नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट द्वारा रचित कादम्बरी से लिया गया है। प्रस्तुत पंक्ति में मन्त्री शुकनास लक्ष्मी अर्थात् धन के गुणों पर प्रकाश डाल रहे हैं। मन्त्री शुकनास कहते हैं कि लक्ष्मी इतनी शक्तिशाली होती है कि अत्यन्त जागरूक रहने वाले विद्वान्, महान् बलशाली, उच्चकुल में उत्पन्न, धैर्यशील तथा अत्यन्त परिश्रमी मनुष्य को भी यह लक्ष्मी दुष्ट आचरण वाला बना देती है। शुकनास के कहने का तात्पर्य है कि जिस मनुष्य के पास धन होता है, वह धन के अहंकार में कर्तव्य-अकर्तव्य के विवेक को खो बैठता है और कुमार्गगामी हो जाता है।
बहुविकल्पीय-प्रश्नाः -
I. पुस्तकानुसारं समुचितम् उत्तरं चित्वा लिखत -
(i) लक्ष्मीमदः कीदृशः ?
(A) उपशमः
(B) अपरिणामः
(C) अपरिणामोपशमः
(D) सुखावहः।
उत्तरम् :
(B) अपरिणामः
(ii) चन्द्रापीडं कः उपदिशति?
(A) शुकनासः
(B) शुकः
(C) तारापीडः
(D) बृहस्पतिः।
उत्तरम् :
(A) शुकनासः
(iii) कीदृशे मनसि उपदेशगुणाः प्रविशन्ति।
(A) मलिने
(B) अपगतमले
(C) छलयुक्ते
(D) छलान्विते।
उत्तरम् :
(B) अपगतमले
(iv) लब्धापि दुःखेन का परिपाल्यते?
(A) लक्ष्मीः
(B) विद्या
(C) गौः
(D) स्त्री।
उत्तरम् :
(A) लक्ष्मीः
(v) केषाम् उपदेष्टारः विरलाः सन्ति?
(A) गुरूणाम्
(B) शठानाम्
(C) राज्ञाम्
(D) अल्पज्ञानाम्।
उत्तरम् :
(C) राज्ञाम्
(vi) लक्ष्म्या परिगृहीताः राजानः कीदृशाः भवन्ति ?
(A) प्रसन्नाः
(B) विक्लवाः
(C) सुप्ताः
(D) यशस्विनः।
उत्तरम् :
(B) विक्लवाः
II. रेखाङ्कितपदम् आधृत्य प्रश्ननिर्माणाय समुचितं पदं चित्वा लिखत -
(i) लक्ष्मी: लब्धाऽपि खलु दुःखेन परिपाल्यते।
(A) कथम्
(B) काः
(C) कः
(D) किम्।
उत्तरम् :
(A) कथम्
(ii) अधीतसर्वशास्त्रस्य नाल्पमपि उपदेष्टव्यम् अस्ति।
(A) कम्
(B) कस्मात्
(C) कस्य
(D) कः।
उत्तरम् :
(C) कस्य
(ii) अपरिणामोपशमः लक्ष्मीमदः।
(A) कीदृशः
(B) किम्
(C) काः
(D) कस्मैः
उत्तरम् :
(A) कीदृशः
(iv) लक्ष्मीः शूरं कण्टकमिव परिहरति।
(A) कः
(B) कस्मै
(C) कस्य
(D) कम्।
उत्तरम् :
(D) कम्।
(v) राजानः कुप्यन्ति हितवादिने।
(A) कस्य
(B) कस्मै
(C) कस्मात्
(D) केषाम्।
उत्तरम् :
(B) कस्मै