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शुक्रवार, 1 मई 2020

विद्ययाऽमृतमश्नुते

  विद्ययाऽमृतमश्नुते

        जेसीईआरटी तथा एनसीईआरटी के कक्षा-12 के संस्कृत पाठ्यपुस्तक-शाश्वती भाग 2 के प्रथमः पाठः विद्ययाऽमृतमश्नुते  का शब्दार्थ सहित हिन्दी अनुवाद एवं भावार्थ तथा उस पर आधारित प्रश्नोत्तर सीबीएसई सत्र-2022-2023 के लिए यहाँ दिए गए हैं।यहाँ दिए गए हिंदी अनुवाद तथा भावार्थ की मदद से विद्यार्थी पूरे पाठ को आसानी से समझकर अभ्यास के प्रश्नों को स्वयं कर सकते हैं।
          प्रस्तुत पाठ ईशावास्योपनिषत् से संकलित है। 'ईशावास्यम्' पद से आरम्भ होने के कारण इसे ईशावास्योपनिषत् की संज्ञा दी गयी है। यह उपनिषत् यजुर्वेद की माध्यन्दिन एवं काण्व संहिता का 40वाँ अध्याय है,जिसमें 18 मन्त्र हैं। इस संकलन के आद्य दो मन्त्रों में ईश्वर की सर्वत्र विद्यमानता को दर्शाते हुए,कर्तव्य भावना से कर्म करने एवं त्यागपूर्वक संसार के पदार्थों का उपयोग एवं संरक्षण करने का निर्देश है। आत्मस्वरूप ईश्वर की व्यापकता को जो लोग स्वीकार नहीं करते हैं, उनके अज्ञान को तृतीय मन्त्र में दर्शाया है। चतुर्थ मन्त्र में चैतन्य स्वरूप, स्वयं प्रकाश एवं विभु सर्वव्यापक आत्म तत्त्व का निरूपण है। पञ्चम एवं षष्ठ मन्त्रों में अविद्या अर्थात् व्यावहारिक ज्ञान एवं विद्या अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान पर सूक्ष्म चिन्तन निहित है।'जगत्यां जगत्' 'ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी है, सब जगत् अर्थात् गतिमय है'-उपनिषद् के इस सिद्धान्त की पुष्टि आधुनिक विज्ञान एवं आधुनिक खोज द्वारा भी होती है। निरन्तर परिवर्तन तथा निरन्तर गतिमयता ब्रह्माण्ड के समस्त सूर्य + चन्द्र + पृथ्वी आदि ग्रह-उपग्रहों का स्वभाव है।  अन्तिम मन्त्र व्यावहारिक ज्ञान से लौकिक अभ्युदय एवं अध्यात्मज्ञान से अमरता की प्राप्ति को बतलाता है।जो लोग 'अविद्या' शब्द द्वारा कहे जाने वाले यज्ञयाग,भौतिकशास्त्र आदि सांसारिक ज्ञान में दैनिक सुख-साधनों की प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील रहते हैं; उनकी सांसारिक उन्नति तो बहुत होती है, परन्तु उनका अध्यात्म पक्ष निर्बल रह जाता है। जो लोग केवल अध्यात्म ज्ञान में ही लीन रहते हैं और भौतिक ज्ञान की साधन सामग्री की अवहेलना करते हैं, वे सांसारिक जीवन के निर्वाह तथा सांसारिक उन्नति में पिछड़ जाते हैं।इसीलिए अविद्या अर्थात् भौतिकज्ञान द्वारा जीवन की सुख-साधन सामग्री अर्जित कर विद्या अर्थात् अध्यात्मज्ञान द्वारा जन्म-मरण के दुःख से रहित अमृतपद को प्राप्त करने का सारगर्भित उपदेश इस उपनिषद् में दिया गया है-अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्याऽमृतमश्नुतेइस पाठ्यांश से यह सन्देश मिलता है कि लौकिक एवं अध्यात्म विद्या एक दूसरे की पूरक है तथा मानव जीवन की परिपूर्णता एवं सर्वाङ्गीण विकास में समान रूप से महत्त्व रखती है।
  उपनिषदों को ब्रह्मविद्या', 'ज्ञानकाण्ड' अथवा 'वेदान्त' नाम से भी जाना जाता है।वेदों का सार उपनिषदों में निहित है। गुरु के समीप बैठकर अध्यात्मविद्या ग्रहण की जाती है- यह 'उपनिषद्' शब्द का अर्थ है। 'उप' तथा 'नि' उपसर्ग पूर्वक सद (षदल) धात से 'क्विप' प्रत्यय होकर 'उपनिषद' शब्द निष्पन्न होता है-उप + नि + √सद + क्विप > 0 = उपनिषद् जिससे अज्ञान का नाश होता है तथा आत्मा का ज्ञान सिद्ध होता है,संसार चक्र का दुःख छूट जाता है;वह ज्ञानराशि 'उपनिषद्' कही जाती है।उपनिषद्' नाम से 200 से भी अधिक ग्रन्थ मिलते हैं। परन्तु प्रामाणिक दृष्टि से उनमें 11 उपनिषद् ही महत्त्वपूर्ण हैं और इन्हीं पर आचार्य शकर का भाष्य भी मिलता है। इनके नाम इस प्रकार हैं-1. ईशावास्य 2. केन, 3. कठ, 4. प्रश्न, 5. मुण्डक, 6. माण्डूक्य, 7. तैत्तिरीय, 8. ऐतरेय, 9. छान्दोग्य, 10. बृहदारण्यक तथा 11. श्वेताश्वतर। 

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।1।।

जगत्याम् =अखिल ब्रह्माण्डमें

यत् किं च =जो कुछ भी

जगत्= जड चेतनस्वरूप जगत् है,

इदम्= यह

सर्वम्= समस्त

ईशा= ईश्वर से

वास्यम्=व्याप्त है

तेन=उस ईश्वरको साथ रखते हुए

त्यक्तेन=त्यागपूर्वक

भुञ्जीथाः= (इसे) भोगते रहो;

मा गृधः= (इसमें) आसक्त मत होओ

(क्योंकि)

धनम्= भोग्य-पदार्थ

कस्य स्वित्= किसका है अर्थात् किसीका भी नहीं है।

भावार्थ: - इस संसार में जो भी  पदार्थ दृष्टिगोचर हो रहे हैं,उनमें  परमात्मा व्यापक है। वही इन सब पदार्थों का ईश अर्थात् स्वामी है। इसीलिए उस परमेश्वर को सदा सब जगह व्यापक मानते हुए त्यागभाव से ही सृष्टि के पदार्थों का उपभोग करना चाहिए। किसी के भी धन पर गृद्ध दृष्टि नहीं रखनी चाहिए क्योंकि अन्ततः यह धन किसी का भी नहीं। त्यागपूर्वक भोग शरीर के लिए भोजन (शरीर की शक्ति) बन जाता है और आसक्ति से किसा गया भोग विषय-भोग बन जाता है। ऐसा आसक्तिमय भोग ही रोग का कारण होता है-'भोगे रोगभयम्'। 

कुर्वनेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ।।

एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥2॥

इह= इस संसार में

कर्माणि= (शास्त्रनिर्धारित) कर्मों को

कुर्वन्= (ईश्वर पूजार्थ) करते हुए

एव=ही

शतम् समाः= सौ वर्षों तक

जिजीविषेत्= जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिये।

एवम्=इस प्रकार

(त्यागभावसे, परमेश्वरके लिये)

कर्म=किये जानेवाले कर्म

त्वयि= तुझ

नरे=मनुष्य में

न लिप्यते=लिप्त नहीं होंगे

इतः=इससे (भिन्न)

अन्यथा=अन्य किसी प्रकार का मार्ग

न अस्ति=नहीं है।

(जिससे कि मनुष्य कर्म-बन्धन से मुक्त हो सके।)

भावार्थ: - इस मन्त्र में कर्म करते हुए-पुरुषार्थी बनकर ही सौ वर्षों तक जीवन का संकल्प किया गया है। मनुष्य को संसार में अनासक्त भाव से कर्म करते हुए स्वाभिमान पूर्वक जीवन यापन करना चाहिए। लोभ/आसक्ति के कारण ही मनुष्य पाप कर्म करता है।कर्तव्य भाव से किए गए कर्म सदा शुभ होते हैं। अतः ऐसे निष्काम कर्म मनुष्य को कर्म-बन्धन में नहीं बाँधते,अपितु उसे मुक्त जीवन प्रदान करते है।मनुष्य को निठल्ले रहकर नहीं अपितु जीवन भर पुरुषार्थी बनकर कर्तव्य भाव से शुभ कर्म करते हुए ही अपना जीवन यापन करना चाहिए। जीवन्मुक्त होने का यही एक उपाय है,इससे भिन्न कोई उपाय नहीं है। 

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः ।

ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्म॒हनो जनाः ॥3॥

असुर्याः=असुरोंके (जो)

नाम= प्रसिद्ध

लोकाः= नाना प्रकार की योनियाँ एवं नरकरूप लोक हैं,

ते=वे सभी

अन्धेन तमसा=अज्ञान तथा दुःखक्लेशरूप महान् अन्धकारसे आवृताः=आच्छादित हैं,

ये के च=जो कोई भी

आत्महनः=आत्माकी हत्या करनेवाले

जनाः=मनुष्य हों,

ते=वे

प्रेत्य=मरकर

तान्=उन्हीं भयंकर लोकोंको

अभिगच्छन्ति=बार-बार प्राप्त होते हैं ।

भावार्थ-आत्मा के दो रूप हैं-परमात्मा और जीवात्मा। परमात्मा सम्पूर्ण जड़-चेतन में व्यापक होकर उसे अपने शासन में रखता है। जीवात्मा शरीर में व्यापक होकर उसे अपने नियन्त्रण में रखता है।आत्मा के विरुद्ध अधर्म का आचरण करना तथा आत्मा की सत्ता को स्वीकार न करना ही आत्महत्या है। जो लोग आत्मा के स्वरूप का तिरस्कार करते हैं तथा अपने प्राणपोषण के लिए आसक्तिपूर्वक सृष्टि के पदार्थों का भोग करते हैं,वे असुर हैं। ऐसे राक्षसवृत्ति लोगों को मरने के पश्चात् उन 'असुर्या' नामक अन्धकारमयी योनियों में जन्म मिलता है, जहाँ ज्ञान का प्रकाश नहीं होता। 

अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत् ।

तद्धावतोऽन्यानत्येति॒ तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति॥4॥

(तत्)=वे परमेश्वर

अनेजत्= अचल

एकम्= एक(और)

मनसः= मन से (भी)

जवीयः=अधिक तीव्र गतिवाले हैं,

पूर्वम्=सबके आदि

अर्षत्=ज्ञानस्वरूप या सबके जाननेवाले हैं

एनत्=इन परमेश्वर को

देवाः=इन्द्रादि देवता भी

न आप्नुवन्=नहीं पा सके या जान सके हैं

तत्=वे (परमेश्वर)

अन्यान्=दूसरे

धावतः=दौड़नेवालों को

तिष्ठत्=(स्वयं) स्थिर रहते हुए ही

अत्येति=अतिक्रमण कर जाते हैं।

तस्मिन्=उनके होनेपर ही-उन्हीं की सत्ता-शक्ति से

मातरिश्वा=वायु आदि देवता

अपः=जलवर्षा आदि क्रिया

दधाति=सम्पादन करने में समर्थ होते हैं ।

भावार्थ- वह परमात्मा अचल,एक,मन से भी अधिक वेगवान् तथा इन्द्रियों की परे है। परमात्मा की व्यवस्था से ही मित्र और वरुण नामक वायु मिलकर जल का रूप धारण करते हैं अथवा परमात्मा की व्यवस्था में ही सभी जीवात्माएँ अपने-अपने कर्मों को धारण करती हैं। 

अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते ।

ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः ॥5॥

ये=जो मनुष्य

अविद्याम्=अविद्याकी

उपासते=उपासना करते हैं, (वे)

अन्धम्=अज्ञानस्वरूप

तमः=घोर अन्धकारमें

प्रविशन्ति=प्रवेश करते हैं; (और)

ये=जो मनुष्य

विद्यायाम्=विद्यामें

रताः=रत हैं अर्थात् ज्ञान के मिथ्याभिमान में मत्त हैं;

ते=वे

ततः=उससे

उ=भी

भूयः इव=मानो अधिकतर घोर

तमः=अन्धकार में प्रवेश करते हैं।

भावार्थ: - 'अविद्या' से तात्पर्य है शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायता करने वाला ज्ञान। 'विद्या' का अर्थ है, आत्मा के रहस्य को प्रकट करने वाला अध्यात्म ज्ञान।यदि व्यक्ति केवल भौतिक साधनों को जुटाने का ज्ञान ही  'अविद्या' को प्राप्त करता है और 'आत्मा' के स्वरूपज्ञान को भूल जाता है तो बहुत बड़ा अज्ञान है, उसका जीवन अन्धकारमय है। परन्तु जो व्यक्ति केवल अध्यात्म ज्ञान  'विद्या' में ही मस्त रहता है, उसकी दुर्दशा तो भौतिक ज्ञान वाले से भी अधिक दयनीय होती है। क्योंकि भौतिक साधनों के अभाव में शरीर की रक्षा भी कठिन हो जाएगी। अत:भौतिक ज्ञान तथा अध्यात्म ज्ञान से युक्त सन्तुलित जीवन ही सफल और आनन्दित जीवन है। 

अन्यदे॒वाहुर्विद्यया अन्यदाहुरविद्यया ।

इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥6॥

विद्यया=ज्ञान के यथार्थ अनुष्ठान से

अन्यत् एव=दूसरा ही फल

आहुः=बतलाते हैं (और)

अविद्यया=कर्मों के यथार्थ अनुष्ठान से

अन्यत्=दूसरा (ही) फल

आहुः=बतलाते हैं

इति=इस प्रकार

(हमने)

धीराणाम्=(उन) धीर पुरुषों के

शुश्रुम=वचन सुने हैं

ये=जिन्होंने

नः=हमें

तत्=उस विषय को

विचचक्षिरे=व्याख्या करके भलीभाँति समझाया था ।

भावार्थ: - अविद्या अर्थात् व्यावहारिक ज्ञान से सांसारिक सुख-साधनों की प्राप्ति तथा शरीर की भूख-प्यास दूर होती है।विद्या आत्मा को अपने स्वरूप में स्थिर बनाता है। इस प्रकार दोनों प्रकार का ज्ञान अलग-अलग उद्देश्य को सिद्ध करता है। जिन विद्वान् लोगों ने अविद्या और विद्या के इस रहस्य को हमारे कल्याण के लिए समझाया है, उन्हीं से हमने ऐसा सुना है।

विद्यां चाविद्यां च यस्तवेदोभयं सह ।।

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्याऽमृतमश्नुते ॥7॥

ये=जो मनुष्य

तत् उभयम्=उन दोनों को (अर्थात्)

विद्याम्=ज्ञान के तत्त्व को

=और

अविद्याम्=कर्म के तत्त्व को

=भी

सह=साथ-साथ

वेद=यथार्थतः जान लेता है

(वह)

अविद्यया=कर्मों के अनुष्ठान से

मृत्युम्=मृत्यु को

तीर्त्वा=पार करके
विद्यया=ज्ञानके अनुष्ठान से
अमृतम्=अमृत को
अश्नुते=भोगता है अर्थात् परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है।
भावार्थ-इस जड़-चेतन जगत् में सर्वत्र व्याप्त परमात्मा तथा शरीर में व्याप्त जीवात्मा के ज्ञान को अध्यात्म ज्ञान कहा जाता है। यह मोक्षदायी यथार्थ ज्ञान ही 'विद्या' है। इससे भिन्न सभी प्रकार के ज्ञान को 'अविद्या' नाम दिया गया है। 'विद्या' शब्द का प्रयोग यहाँ 'अध्यात्मज्ञान' के अर्थ में हुआ है। अध्यात्म ज्ञान से भिन्न सृष्टिविज्ञान,यज्ञविज्ञान, भौतिकविज्ञान,आयुर्विज्ञान, गणितविज्ञान,अर्थशास्त्र प्रौद्योगिकी,सूचनातन्त्र आदि सभी प्रकार का ज्ञान 'अविद्या' शब्द में समाहित हो जाता है। यह ज्ञान मनुष्य को मृत्यु दुःख से छुड़वाता है और इसी अध्यात्म ज्ञान द्वारा मनुष्य फिर अमरत्व अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है,जन्म मरण के चक्र से छूट जाता है। इस प्रकार यह दोनों प्रकार का ज्ञान ही मनुष्य के लिए आवश्यक है, तभी वह इहलोक तथा परलोक दोनों को सिद्ध कर सकता है। 
अभ्यासः-

प्रश्न 1. 
संस्कृतभाषया उत्तरं लिखत - 
(क) ईशावास्योपनिषद् कस्याः संहितायाः भागः? 
(ख) जगत्सर्वं कीदृशम् अस्ति? 
(ग) पदार्थभोगः कथं करणीयः? 
(घ) शतं समाः कथं जिजीविषेत्? 
(ङ) आत्महनो जनाः कीदृशं लोकं गच्छन्ति? 
(च) मनसोऽपि वेगवान् कः? 
(छ) तिष्ठन्नपि कः धावतः अन्यान् अत्येति?
(ज) अन्धन्तमः के प्रविशन्ति? 
(झ) धीरेभ्यः ऋषयः किं श्रुतवन्तः? 
(ञ) अविद्यया किं तरति? 
(ट) विद्यया किं प्राप्नोति? 
उत्तरम्- 
(क) ईशावास्योपनिषद् यजुर्वेद-संहितायाः भागः। 
(ख) जगत्सर्वम् ईशावास्यम् अस्ति। 
(ग) पदार्थभोगः त्यागपूर्वकं करणीयः। 
(घ) शतं समाः कर्माणि कुर्वन् जिजीविषेत्। 
(ङ) आत्महनो जनाः असुर्या  लोकं गच्छन्ति। 

(च) मनसोऽपि वेगवान् ईश्वरः अस्ति। 
(छ) तिष्ठन्नपि ईश्वरः धावतः अन्यान् अत्येति। 
(ज) ये अविद्याम् उपासते ते अन्धन्तमः प्रविशन्ति। 
(ञ) अविद्यया मृत्युं तरति।
(ट) विद्यया अमृतं प्राप्नोति। 
(झ) धीरेभ्यः ऋषयः इति श्रुतवन्तः यत् विद्यया अन्यत् फलं भवति अविद्यया च अन्यत् फलं भवति।
प्रश्न 2. 'ईशावास्यम्........कस्यस्विद्धनम्' इत्यस्य भावं सरलसंस्कृतभाषया विशदयत -
उत्तरम्-(संस्कृतभाषया भावार्थः)- 
अस्मिन् सृष्टिचक्रे यत् किमपि जड-चेतनादिकं जगत् अस्ति, तत् सर्वम् ईश्वरेण व्याप्तम् अस्ति। ईश्वरः संसारे व्यापकः अस्ति, सः एव च संसारस्य सर्वेषां पदार्थानाम् ईशः = स्वामी। अतः त्यागभावेन एव सांसारिक-पदार्थानाम् उपभोगः करणीयः। कदापि कस्य अपि धने लोभः न करणीयः।
प्रश्न 3. 'अन्धन्तमः प्रविशन्ति.......विद्यायां रताः' इति मन्त्रस्य भावं हिन्दीभाषया आंग्लभाषया वा विशदयत -    उत्तरम्- अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते ।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः ॥
जो मनुष्य अविद्या की उपासना करते हैं,(वे)अज्ञानस्वरूप घोर अन्धकारमें प्रवेश करते हैं; (और)जो मनुष्य विद्यामें रत हैं अर्थात् ज्ञान के मिथ्याभिमान में मत्त हैं;वे उससे भी मानो अधिकतर घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं। प्रश्न 4.विद्यां चाविद्यां च......ऽमृतमश्नुते' इति मन्त्रस्य तात्पर्य स्पष्टयत - 
उत्तरम्-                                                                                                                                             विद्यां चाविद्यां च यस्तवेदोभयं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्याऽमृतमश्नुते ॥ जो मनुष्य उन दोनों को (अर्थात्) ज्ञान के तत्त्व को और कर्म के तत्त्व को भी साथ-साथ यथार्थतः जान लेता है(वह) कर्मों के अनुष्ठान से मृत्यु को पार करके ज्ञानके अनुष्ठान से अमृत को भोगता है अर्थात् परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है।
प्रश्न 5.रिक्तस्थानानि पूरयत-
(क) इदं सर्वं जगत्.................।
(ख) मा गृधः .........। 
(ग) शतं समाः ....................... जिजीविषेत।
(घ) असुर्या नाम लोका ....................... आवृताः। 
(ङ) अविद्योपासकाः ....................... प्रविशन्ति। 
उत्तरम्-
(क)ईशावास्यम्
(ख) कस्यस्वित् धनम्
(ग) कर्माणि कुर्वन्
(घ) अन्धेनतमसा  
(ङ)अन्धन्तमः

प्रश्न 6.अधोलिखितानां सप्रसंग हिन्दीभाषया व्याख्या कार्या - 
(क) तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः। 
(ख) न कर्म लिप्यते नरे।। 
(ग) तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति।
(घ) अविद्यया मृत्युं तीर्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते। 
(ङ) एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति। 
(च) तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः। 
(छ) अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनदेवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत्। 
उत्तरम्- 
(क) तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः।
    प्रसंग-प्रस्तुत पंक्ति 'ईशावास्य-उपनिषद्' से संगृहीत 'विद्ययाऽमृतमश्नुते' पाठ के पहले मन्त्र 'ईशावास्यम्..........'  से लिया गया है। इसमें त्यागपूर्वक भोग करने के लिए उपदेश दिया गया है।
            भोजन से शरीर को ऊर्जा मिलती है और भोग करने में रोग का भय रहता है-'भोगे रोगभयम्'।इसलिए त्यागपूर्वक भोग करना चाहिए।मनुष्य का कर्तव्य है कि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इन पदार्थों को त्यागपूर्वक ग्रहण करे। इनके उपयोग में लोभ कदापि न करे,क्योंकि लोभवश पदार्थों का उपभोग करने से प्रकृति का सन्तुलन बिगड़ जाता है और मनुष्य का अपना शरीर भी रोगी हो जाता है।
(ख) न कर्म लिप्यते नरे।
 प्रसंग-प्रस्तुत पंक्ति 'ईशावास्योपनिषद्' से संगृहित 'विद्ययाऽमृतमश्नुते' पाठ के दूसरे मन्त्र कुर्वनेवेह कर्माणि .... ..... से लिया गया है। इसमें बताया गया है कि निष्काम कर्म बन्धन का कारण नहीं होते।
        पंक्ति में कहा गया है कि मनुष्य अपनी पूर्ण इच्छाशक्ति से जीवन भर कर्म करे,कर्महीन बिल्कुल न रहे, पुरुषार्थी बने। जिन पदार्थों को पाने के लिए हम कर्म करते हैं,उनका वास्तविक स्वामी  ईश्वर है।अतः यदि मनुष्य पदार्थों के ग्रहण में त्याग भाव रखते हुए,ईश्वर को सर्वव्यापक समझते हुए कर्तव्य भाव से अनासक्त होकर कर्म करता है तो ऐसे निष्काम कर्म मनुष्य को सांसारिक बन्धन में नहीं डालते अपितु उसे जीवन्मुक्त बना देते हैं।'मनुष्य में कर्मों का लेप नहीं होता है।
 (ग) तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति।
         प्रस्तुत पंक्ति  'ईशावास्योपनिषद्' से संगृहीत 'विद्ययाऽमृतमश्नुते' पाठ में संकलित मन्त्र से लिया गया है। इसमें वायु को जलों का धारण करने वाला कहा गया है।
          पंक्ति में परमात्मा का स्वरूप वर्णन करते हुए उसे अचल,एक तथा मन से भी गतिशील बताते कहा गया है कि इस संसार में ईश्वर-व्यवस्था निरन्तर कार्य कर रही है। सभी प्राणी ईश्वरीय व्यवस्था के अधीन होकर अपने-अपने कर्म फलों को प्राप्त करते हैं। उसी के नियम से वायु बहती है, सर्य-चन्द्र चमकते हैं, पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है,फल-फूल-वनस्पतियाँ पैदा होती हैं।
  (घ) अविद्यया मृत्यु ती विद्ययाऽमृतमश्नुते।
               प्रस्तुत पंक्ति 'ईशावास्य-उपनिषद्' से संकलित 'विद्ययाऽमृतमश्नुते' नामक पाठ में संगृहीत मन्त्र से उद्धृत है। इस पंक्ति में व्यावहारिक ज्ञान द्वारा मृत्यु को जीतकर अध्यात्म ज्ञान द्वारा अमरत्व प्राप्ति का रहस्य उद्घाटित किया गया है।
              अध्यात्म ज्ञान से भिन्न सृष्टिविज्ञान, यज्ञविज्ञान, भौतिकविज्ञान, आयुर्विज्ञान, गणितविज्ञान, अर्थशास्त्र प्रौद्योगिकी, सूचनातन्त्र आदि सभी प्रकार का ज्ञान 'अविद्या'  है। यह अध्यात्मेतर ज्ञान मनुष्य को मृत्यु दुःख से छुड़वाता है और  अध्यात्म ज्ञान द्वारा मनुष्य फिर अमरत्व अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है,जन्म मरण के चक्र से छूट जाता है। जो मनुष्य विद्या अर्थात् अध्यात्मज्ञान तथा अविद्या अर्थात् अध्यात्म ज्ञान से भिन्न सभी प्रकार का व्यावहारिक ज्ञान, दोनों को एक साथ जानता है। वह व्यावहारिक ज्ञान द्वारा मृत्यु को पारकर अध्यात्म ज्ञान द्वारा जन्म मृत्यु के दुःख से रहित अमरत्व को प्राप्त करता है।इस प्रकार यह दोनों प्रकार का ज्ञान ही मनुष्य के लिए आवश्यक है, तभी वह इहलोक तथा परलोक दोनों को सिद्ध कर सकता है।
(ङ) एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति।
          प्रस्तुत पंक्ति 'ईशोपनिषद्' से सम्पादित 'विद्ययाऽमृतमश्नुते' नामक पाठ में संकलित मन्त्र से उद्धृत है। इस पंक्ति में उस मार्ग की ओर संकेत किया गया है,जिस मार्ग पर चलकर मनुष्य कर्मबन्धन में नहीं पड़ता।                     अनासक्त भाव से किया गया कर्म सदा शुभ ही होता है, अतः ऐसे कर्म मनुष्य के बन्धन का कारण नहीं होते अपितु उसे जीवन्मुक्त बना देते हैं। इस मार्ग को छोड़कर जीवन्मुक्त होने का कोई दूसरा मार्ग नहीं है। यह पंक्ति ईशोपनिषद् के पहले दो मन्त्रों के उपदेश की ओर पाठक का ध्यान केन्द्रित करता है। साधारण रूप से कर्म के सम्बन्ध में यह धारणा है कि कर्म चाहे अच्छा हो या बुरा-मनुष्य कर्मबन्धन में अवश्य बँधता है। वह मार्ग है ईश्वर को सदा सर्वत्र व्यापक मानते हुए आसक्ति छोड़कर कर्तव्य भाव से कर्म करने का मार्ग।                                      आत्मा अमर है, यह कभी नहीं मरता। आत्मा के विरुद्ध अधर्म का आचरण करना तथा आत्मा की सत्ता को स्वीकार न करना ही आत्महत्या है। आत्मा के दो रूप हैं-परमात्मा और जीवात्मा।                                          प्रश्न-8.प्रकृतिं प्रत्ययं च योजयित्वा पदरचनां कुरुत ।
त्यज्+क्त; कृ + शतृ; तत् + तसिल्
उत्तरम्-
त्यज्+क्त=त्यक्तः
कृ + शतृ=कुर्वन् 
तत् + तसिल्=ततः
प्रश्न 9.प्रकृतिप्रत्ययविभागः क्रियताम् - 
प्रेत्य, तीर्वा, धावतः, तिष्ठत्, जवीयः 
उत्तरम्-
(क) प्रेत्य = प्र + √इ + ल्यप् 
(ख) तीर्त्वा = √तृ + क्त्वा 
(ग) धावतः = √धाव + शतृ (नपुंसकलिङ्गम्, षष्ठी-एकवचनम्)
 (घ) तिष्ठत् = √स्था + शतृ (नपुंसकलिङ्गम्, प्रथमा-एकवचनम्)
  (ङ) जवीयः =√जव + ईयसुन् > ईयस् (नपुंसकलिङ्गम्, प्रथमा-एकवचनम्)
10.अधोलिखितानि पदानि आश्रित्य वाक्यरचनां कुरुत -
जगत्याम्, धनम्, भुञ्जीथाः, शतम्, कर्माणि, तमसा, त्वयि, अभिगच्छन्ति, प्रविशन्ति, धीराणाम्, विद्यायाम्, भूयः, समाः।
उत्तरम्-
जगत्याम्-जगत्याम् मम रुचि नास्ति। 
धनम्-कस्य धनम् अस्ति ? 
भुञ्जीथाः-भोगान् त्यागभावेन भुञ्जीथाः। 
शतम्- कर्माणि कुर्वन् एव शतं वर्षाणि यावत् जिजीविषेत्। 
कर्माणि- कर्माणि कुर्वन् एव जिजीविषेत्।
तमसा-एतत् गृहं तमसा आवृतम् अस्ति। 
त्वयि-त्वयि कः पालयति ? 
अभिगच्छन्ति-विद्यार्थिनः पुस्तकाय गुरुम् अभिगच्छन्ति। 
प्रविशन्ति-अविद्यायाः मूर्खाः अन्धन्तमः प्रविशन्ति। 
धीराणाम्-धीराणाम् कार्यं अनुकरणीयः।
विद्यायाम्-विद्यार्थिनः विद्यायाम्  रताः भवन्ति। 
भूयः(पुनः)- पाण्डवाः भूयः वनम् अगच्छन्। 
समाः (वर्षाणि)- अधुना जनाः शतं समाः न जीवन्ति। 
11.सन्धि/सन्धिच्छेदं वा कुरुत
 उत्तरम्- : 
(क) ईशावास्यम् - ईश + आवास्यम् 
(ख) कुर्वन्नेवेह - कुर्वन् + एव + इह 
(ग) जिजीविषेत् + शतं - जिजीविषेच्छतम् 
(घ) तत् + धावतः - तद्धावतः 
(ङ) अनेजत् + एकं - अनेजदेकम् 
(च) आहुः + अविद्यया - आहुरविद्यया 
(छ) अन्यथेतः - अन्यथा + इतः 
(ज) ताँस्ते - तान् + ते।
12.अधोलिखितानां समुचितं योजनं कुरुत -
 धनम्-                            वायुः 
समाः-                           आत्मानं ये घ्नन्ति 
असुर्याः-                       श्रुतवन्तः स्म
मातरिश्वा-                      वर्षाणि
शुश्रुम-                         अमरताम् 
अमृतम्-                       वित्तम्
 उत्तरम्- 
धनम्-वित्तम्
समाः-वर्षाणि
असुर्याः-आत्मानं ये घ्नन्ति 
मातरिश्वा-वायुः
शुश्रुम-श्रुतवन्तः स्म 
अमृतम्-अमरताम् 
13.अधोलिखितानां पदानां पर्यायपदानि लिखत - 
 नरे, ईशः, जगत्, कर्म, धीराः, विद्या, अविद्या 
उत्तरम्- 
नरे = मनुष्ये 
ईशः = ईश्वरः 
जगत् = संसारः 
कर्म = कार्यम् 
धीराः = पण्डिताः
विद्या = ज्ञानम् 
अविद्या =कर्मम् 
14.अधोलिखितानां पदानां विलोमपदानि लिखत - 
एकम्, तिष्ठत्, तमसा, उभयम्, जवीयः, मृत्युम् 
उत्तरम्- एकम् - अनेकम् 
तमसा - प्रकाशेन 
उभयम् - एकम् 
जवीयः - शनैश्चरम्, 
तिष्ठत्-उपविशत् 
मृत्युम् - अमृतम् 

योग्यताविस्तारः

समग्रेऽस्मिन् विश्वे ज्ञानस्याचं स्रोतो वेदराशिरिति सुधियः आमनन्ति। तादृशस्य वेदस्य सारः उपनिषत्सु समाहितो वर्तते। उपनिषदां 'ब्रह्मविद्या' 'ज्ञानकाण्डम्' 'वेदान्तः' इत्यपि नामान्तराणि विद्यन्ते। उप-नि इत्युपसर्गसहितात् सद् (षद्लु) धातोः क्विप् प्रत्यये कृते उपनिषत्-शब्दो निष्पद्यते, येन अज्ञानस्य नाशो भवति, आत्मनो ज्ञानं साध्यते, संसारचक्रस्य दुःखं शिथिलीभवति तादृशो ज्ञानराशि: उपनिषत्पदेन अभिधीयते। गुरोः समीपे उपविश्य अध्यात्मविद्याग्रहणं भवतीत्यपि कारणात् उपनिषदिति पदं सार्थकं भवति।

       प्रसिद्धासु 108 उपनिषत्स्वपि 11 उपनिषदः अत्यन्तं महत्त्वपूर्णाः महनीयाश्च। ताः ईश-केन-कठ-प्रश्न-मुण्डक माण्डूक्य-ऐतरेय-तैत्तिरीय-छान्दोग्य-बृहदारण्यक-श्वेताश्वतराख्याः वेदान्ताचार्याणां टीकाभिः परिमण्डिताः सन्ति। आद्यायाम् ईशावास्योपनिषदि 'ईशाधीनं जगत्सर्वम्' इति प्रतिपाद्य भगवदर्पणबुद्ध्या भोगो निर्दिश्यते। ईशोपनिषदि 'जगत्यां जगत्' इति कथनेन समस्तब्रह्माण्डस्य या गत्यात्मकता निरूपिता सा आधुनिकगवेषणाभिरपि सत्यापिता। सततं परिवर्तमाना ब्रह्माण्डगता चलनस्वभावा या सृष्टि:-पशूनां प्राणिनां, तेजः पुञ्जानां, नदीनां, तरङ्गाणां वायोः वा; या च स्थिरत्वेन अवलोक्यमाना सृष्टि:-पर्वतानां, वृक्षाणां, भवनादीनां वा सा सर्वा अपि सृष्टिः ईश्वराधीना सती चलत्स्वभावा एव। ईश्वरस्य विभूत्या सर्वा अपि सृष्टि: परिपूर्णा चलत्स्वभावा च चकास्ते। तदुक्तं भगवद्गीतायाम् -                                             यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं   श्रीमदूर्जितमेव वा।                                                                           तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽशसम्भवम् ॥ इति ॥ भगवद्गीता-10.41

उपनिषत्प्रस्थानरहस्यं विद्याया अविद्यायाश्च समन्वयमुखेन अत्र उद्घाटितमस्ति। ये जना अविद्यापदवाच्येषु यज्ञयागादिकर्मसु, भौतिक-शास्त्रेषु, लौकिकेषु ज्ञानेषु दैनन्दिनसुखसाधन-सञ्चयनार्थं संलग्नमानसा भवन्ति ते लौकिकीम् उन्नतिं प्राप्नुवन्त्येव; किन्तु तेषां तेषां जनानाम् आध्यात्मिकं बलम्, अन्तरसत्त्वं वा निस्सारं भवति। ये तु विद्यापदवाच्ये आत्मज्ञाने एव केवलं संलग्नमनसः भवन्ति, भौतिकज्ञानस्य साधनसामग्रीणां च तिरस्कारं कुर्वन्ति ते जीवननिर्वाहे, लौकिकेऽभ्युदये च क्लेशमनुभवन्ति।

अत एव अविद्यया भौतिकज्ञानराशिभिः मानवकल्याणकारीणि जीवनयात्रासम्पादकानि वस्तूनि सम्प्राप्य विद्यया आत्मज्ञानेन-ईश्वरज्ञानेन जन्ममृत्युदुःखरहितम् अमृतत्वं प्राप्नोति। विद्याया अविद्यायाश्च ज्ञानेन एव इहलोके सुखं परत्र च अमृतत्वमिति कल्याणी वाचम् उपदिशति उपनिषत् 'अविद्यया मृत्युं तीर्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते' इति।

पाठ्यांशेन सह भावसाम्यं पर्यालोचयत -

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायोऽह्यकर्मणः। 
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः॥ भगवद्गीता-3.8 
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्। 
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते॥ कठोपनिषत्-3.15

कठोपनिषदि प्रतिपादितं श्रेयं प्रेयश्च अधिकृत्य सङ्ग्रणीत-दिङ्मात्रं यथा -

श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ 
संपरीत्य विविनक्ति धीरः। 
श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते 
प्रेयो मन्दो योगक्षेमात् वृणीते॥ कठोपनिषत्-2.2

विविधासु उपनिषत्सु प्रतिपादिताम् आत्मप्राप्तिविषयकजिज्ञासां विशदयत -

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो 
न मेधया न बहुना श्रुतेन। 
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष 
आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥ कठोपनिषत्-2.23

वैदिकस्वराः

वैदिकमन्त्रेषु उच्चारणदृष्ट्या त्रिविधानां 'स्वराणां' प्रयोगो भवति। मन्त्राणाम् अर्थमधिकृत्य चिन्तनं, प्रकृतिप्रत्यययोः योगं, समासं वाश्रित्य भवति। तत्र अर्थनिर्धारणे स्वरा महत्त्वपूर्णा भवन्ति। 'उच्चैरुदात्तः' 'नीचैरनुदात्तः' 'समाहारः स्वरित:' इति पाणिनीयानुशासनानुरूपम् उदात्तस्वरः ताल्वादिस्थानेषु उपरिभागे उच्चारणीयः, अनुदात्तस्वरः ताल्वादीनां नीचैः स्थानेषु, उभयोः स्वरयोः समाहाररूपेण (समप्रधानत्वेन)स्वरित उच्चारणीय इति उच्चारणक्रमः। वैदिकशब्दानां निर्वचनार्थं प्रवृत्ते निरुक्ताख्ये ग्रन्थे पाणिनीयशिक्षायां च स्वरस्य महत्त्वम् इत्थमुक्तम् -

मन्त्रो हीनस्स्वरतो वर्णतो वा 
मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह। 
स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति 
यथेन्द्रशत्रुस्स्वरतोऽपराधात्॥

मन्त्राः स्वरसहिताः उच्चारणीया इति परम्परा। अत: स्वरितस्वरः अक्षराणाम् उपरि चिह्नन, अनुदात्तस्वरः अक्षराणां नीचैः चिह्नन उदात्तस्वरः किमपि चिह्न विना च मन्त्राणां पठन-सौकर्यार्थ प्रदर्श्यते।

         इसप्रकार यहाँ एनसीईआरटी के कक्षा-12 के संस्कृत पाठ्यपुस्तक-शाश्वती द्वितीय भाग  के प्रथमः पाठः-विद्ययाऽमृतमश्नुते  का शब्दार्थ सहित हिन्दी अनुवाद एवं भावार्थ तथा उस पर आधारित प्रश्नोत्तर सीबीएसई सत्र-2022-2023 के लिए प्रस्तुत किया गया।यहाँ दिए गए हिंदी अनुवाद तथा भावार्थ की मदद से विद्यार्थी पूरे पाठ को आसानी से समझकर अभ्यास के प्रश्नों को स्वयं कर सकते हैं।



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जयतु संस्कृतम्।