विद्ययाऽमृतमश्नुते
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।1।।
जगत्याम् =अखिल ब्रह्माण्डमें
यत् किं च =जो कुछ भी
जगत्= जड चेतनस्वरूप जगत् है,
इदम्= यह
सर्वम्= समस्त
ईशा= ईश्वर से
वास्यम्=व्याप्त है
तेन=उस ईश्वरको साथ रखते हुए
त्यक्तेन=त्यागपूर्वक
भुञ्जीथाः= (इसे) भोगते रहो;
मा गृधः= (इसमें) आसक्त मत होओ
(क्योंकि)
धनम्= भोग्य-पदार्थ
कस्य स्वित्= किसका है अर्थात् किसीका भी नहीं है।
भावार्थ: - इस संसार में जो भी पदार्थ दृष्टिगोचर हो रहे हैं,उनमें परमात्मा व्यापक है। वही इन सब पदार्थों का ईश अर्थात् स्वामी है। इसीलिए उस परमेश्वर को सदा सब जगह व्यापक मानते हुए त्यागभाव से ही सृष्टि के पदार्थों का उपभोग करना चाहिए। किसी के भी धन पर गृद्ध दृष्टि नहीं रखनी चाहिए क्योंकि अन्ततः यह धन किसी का भी नहीं। त्यागपूर्वक भोग शरीर के लिए भोजन (शरीर की शक्ति) बन जाता है और आसक्ति से किसा गया भोग विषय-भोग बन जाता है। ऐसा आसक्तिमय भोग ही रोग का कारण होता है-'भोगे रोगभयम्'।
कुर्वनेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ।।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥2॥
इह= इस संसार में
कर्माणि= (शास्त्रनिर्धारित) कर्मों को
कुर्वन्= (ईश्वर पूजार्थ) करते हुए
एव=ही
शतम् समाः= सौ वर्षों तक
जिजीविषेत्= जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिये।
एवम्=इस प्रकार
(त्यागभावसे, परमेश्वरके लिये)
कर्म=किये जानेवाले कर्म
त्वयि= तुझ
नरे=मनुष्य में
न लिप्यते=लिप्त नहीं होंगे
इतः=इससे (भिन्न)
अन्यथा=अन्य किसी प्रकार का मार्ग
न अस्ति=नहीं है।
(जिससे कि मनुष्य कर्म-बन्धन से मुक्त हो सके।)
भावार्थ: - इस मन्त्र में कर्म करते हुए-पुरुषार्थी बनकर ही सौ वर्षों तक जीवन का संकल्प किया गया है। मनुष्य को संसार में अनासक्त भाव से कर्म करते हुए स्वाभिमान पूर्वक जीवन यापन करना चाहिए। लोभ/आसक्ति के कारण ही मनुष्य पाप कर्म करता है।कर्तव्य भाव से किए गए कर्म सदा शुभ होते हैं। अतः ऐसे निष्काम कर्म मनुष्य को कर्म-बन्धन में नहीं बाँधते,अपितु उसे मुक्त जीवन प्रदान करते है।मनुष्य को निठल्ले रहकर नहीं अपितु जीवन भर पुरुषार्थी बनकर कर्तव्य भाव से शुभ कर्म करते हुए ही अपना जीवन यापन करना चाहिए। जीवन्मुक्त होने का यही एक उपाय है,इससे भिन्न कोई उपाय नहीं है।
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः ।ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्म॒हनो जनाः ॥3॥
असुर्याः=असुरोंके (जो)
नाम= प्रसिद्ध
लोकाः= नाना प्रकार की योनियाँ एवं नरकरूप लोक हैं,
ते=वे सभी
अन्धेन तमसा=अज्ञान तथा दुःखक्लेशरूप महान् अन्धकारसे आवृताः=आच्छादित हैं,
ये के च=जो कोई भी
आत्महनः=आत्माकी हत्या करनेवाले
जनाः=मनुष्य हों,
ते=वे
प्रेत्य=मरकर
तान्=उन्हीं भयंकर लोकोंको
अभिगच्छन्ति=बार-बार प्राप्त होते हैं ।
भावार्थ-आत्मा के दो रूप हैं-परमात्मा और जीवात्मा। परमात्मा सम्पूर्ण जड़-चेतन में व्यापक होकर उसे अपने शासन में रखता है। जीवात्मा शरीर में व्यापक होकर उसे अपने नियन्त्रण में रखता है।आत्मा के विरुद्ध अधर्म का आचरण करना तथा आत्मा की सत्ता को स्वीकार न करना ही आत्महत्या है। जो लोग आत्मा के स्वरूप का तिरस्कार करते हैं तथा अपने प्राणपोषण के लिए आसक्तिपूर्वक सृष्टि के पदार्थों का भोग करते हैं,वे असुर हैं। ऐसे राक्षसवृत्ति लोगों को मरने के पश्चात् उन 'असुर्या' नामक अन्धकारमयी योनियों में जन्म मिलता है, जहाँ ज्ञान का प्रकाश नहीं होता।
अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत् ।
तद्धावतोऽन्यानत्येति॒ तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति॥4॥
(तत्)=वे परमेश्वर
अनेजत्= अचल
एकम्= एक(और)
मनसः= मन से (भी)
जवीयः=अधिक तीव्र गतिवाले हैं,
पूर्वम्=सबके आदि
अर्षत्=ज्ञानस्वरूप या सबके जाननेवाले हैं
एनत्=इन परमेश्वर को
देवाः=इन्द्रादि देवता भी
न आप्नुवन्=नहीं पा सके या जान सके हैं
तत्=वे (परमेश्वर)
अन्यान्=दूसरे
धावतः=दौड़नेवालों को
तिष्ठत्=(स्वयं) स्थिर रहते हुए ही
अत्येति=अतिक्रमण कर जाते हैं।
तस्मिन्=उनके होनेपर ही-उन्हीं की सत्ता-शक्ति से
मातरिश्वा=वायु आदि देवता
अपः=जलवर्षा आदि क्रिया
दधाति=सम्पादन करने में समर्थ होते हैं ।
भावार्थ- वह परमात्मा अचल,एक,मन से भी अधिक वेगवान् तथा इन्द्रियों की परे है। परमात्मा की व्यवस्था से ही मित्र और वरुण नामक वायु मिलकर जल का रूप धारण करते हैं अथवा परमात्मा की व्यवस्था में ही सभी जीवात्माएँ अपने-अपने कर्मों को धारण करती हैं।
अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते ।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः ॥5॥
ये=जो मनुष्य
अविद्याम्=अविद्याकी
उपासते=उपासना करते हैं, (वे)
अन्धम्=अज्ञानस्वरूप
तमः=घोर अन्धकारमें
प्रविशन्ति=प्रवेश करते हैं; (और)
ये=जो मनुष्य
विद्यायाम्=विद्यामें
रताः=रत हैं अर्थात् ज्ञान के मिथ्याभिमान में मत्त हैं;
ते=वे
ततः=उससे
उ=भी
भूयः इव=मानो अधिकतर घोर
तमः=अन्धकार में प्रवेश करते हैं।
भावार्थ: - 'अविद्या' से तात्पर्य है शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायता करने वाला ज्ञान। 'विद्या' का अर्थ है, आत्मा के रहस्य को प्रकट करने वाला अध्यात्म ज्ञान।यदि व्यक्ति केवल भौतिक साधनों को जुटाने का ज्ञान ही 'अविद्या' को प्राप्त करता है और 'आत्मा' के स्वरूपज्ञान को भूल जाता है तो बहुत बड़ा अज्ञान है, उसका जीवन अन्धकारमय है। परन्तु जो व्यक्ति केवल अध्यात्म ज्ञान 'विद्या' में ही मस्त रहता है, उसकी दुर्दशा तो भौतिक ज्ञान वाले से भी अधिक दयनीय होती है। क्योंकि भौतिक साधनों के अभाव में शरीर की रक्षा भी कठिन हो जाएगी। अत:भौतिक ज्ञान तथा अध्यात्म ज्ञान से युक्त सन्तुलित जीवन ही सफल और आनन्दित जीवन है।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥6॥
विद्यया=ज्ञान के यथार्थ अनुष्ठान से
अन्यत् एव=दूसरा ही फल
आहुः=बतलाते हैं (और)
अविद्यया=कर्मों के यथार्थ अनुष्ठान से
अन्यत्=दूसरा (ही) फल
आहुः=बतलाते हैं
इति=इस प्रकार
(हमने)
धीराणाम्=(उन) धीर पुरुषों के
शुश्रुम=वचन सुने हैं
ये=जिन्होंने
नः=हमें
तत्=उस विषय को
विचचक्षिरे=व्याख्या करके भलीभाँति समझाया था ।
भावार्थ: - अविद्या अर्थात् व्यावहारिक ज्ञान से सांसारिक सुख-साधनों की प्राप्ति तथा शरीर की भूख-प्यास दूर होती है।विद्या आत्मा को अपने स्वरूप में स्थिर बनाता है। इस प्रकार दोनों प्रकार का ज्ञान अलग-अलग उद्देश्य को सिद्ध करता है। जिन विद्वान् लोगों ने अविद्या और विद्या के इस रहस्य को हमारे कल्याण के लिए समझाया है, उन्हीं से हमने ऐसा सुना है।
विद्यां चाविद्यां च यस्तवेदोभयं सह ।।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्याऽमृतमश्नुते ॥7॥
ये=जो मनुष्य
तत् उभयम्=उन दोनों को (अर्थात्)
विद्याम्=ज्ञान के तत्त्व को
च=और
अविद्याम्=कर्म के तत्त्व को
च=भी
सह=साथ-साथ
वेद=यथार्थतः जान लेता है
(वह)
अविद्यया=कर्मों के अनुष्ठान से
मृत्युम्=मृत्यु को
प्रश्न 1.
संस्कृतभाषया उत्तरं लिखत -
(क) ईशावास्योपनिषद् कस्याः संहितायाः भागः?
(ख) जगत्सर्वं कीदृशम् अस्ति?
(ग) पदार्थभोगः कथं करणीयः?
(घ) शतं समाः कथं जिजीविषेत्?
(ङ) आत्महनो जनाः कीदृशं लोकं गच्छन्ति?
(च) मनसोऽपि वेगवान् कः?
(छ) तिष्ठन्नपि कः धावतः अन्यान् अत्येति?
(ज) अन्धन्तमः के प्रविशन्ति?
(झ) धीरेभ्यः ऋषयः किं श्रुतवन्तः?
(ञ) अविद्यया किं तरति?
(ट) विद्यया किं प्राप्नोति?
उत्तरम्-
(क) ईशावास्योपनिषद् यजुर्वेद-संहितायाः भागः।
(ख) जगत्सर्वम् ईशावास्यम् अस्ति।
(ग) पदार्थभोगः त्यागपूर्वकं करणीयः।
(घ) शतं समाः कर्माणि कुर्वन् जिजीविषेत्।
(ङ) आत्महनो जनाः असुर्या लोकं गच्छन्ति।
(छ) तिष्ठन्नपि ईश्वरः धावतः अन्यान् अत्येति।
समग्रेऽस्मिन् विश्वे ज्ञानस्याचं स्रोतो वेदराशिरिति सुधियः आमनन्ति। तादृशस्य वेदस्य सारः उपनिषत्सु समाहितो वर्तते। उपनिषदां 'ब्रह्मविद्या' 'ज्ञानकाण्डम्' 'वेदान्तः' इत्यपि नामान्तराणि विद्यन्ते। उप-नि इत्युपसर्गसहितात् सद् (षद्लु) धातोः क्विप् प्रत्यये कृते उपनिषत्-शब्दो निष्पद्यते, येन अज्ञानस्य नाशो भवति, आत्मनो ज्ञानं साध्यते, संसारचक्रस्य दुःखं शिथिलीभवति तादृशो ज्ञानराशि: उपनिषत्पदेन अभिधीयते। गुरोः समीपे उपविश्य अध्यात्मविद्याग्रहणं भवतीत्यपि कारणात् उपनिषदिति पदं सार्थकं भवति।
प्रसिद्धासु 108 उपनिषत्स्वपि 11 उपनिषदः अत्यन्तं महत्त्वपूर्णाः महनीयाश्च। ताः ईश-केन-कठ-प्रश्न-मुण्डक माण्डूक्य-ऐतरेय-तैत्तिरीय-छान्दोग्य-बृहदारण्यक-श्वेताश्वतराख्याः वेदान्ताचार्याणां टीकाभिः परिमण्डिताः सन्ति। आद्यायाम् ईशावास्योपनिषदि 'ईशाधीनं जगत्सर्वम्' इति प्रतिपाद्य भगवदर्पणबुद्ध्या भोगो निर्दिश्यते। ईशोपनिषदि 'जगत्यां जगत्' इति कथनेन समस्तब्रह्माण्डस्य या गत्यात्मकता निरूपिता सा आधुनिकगवेषणाभिरपि सत्यापिता। सततं परिवर्तमाना ब्रह्माण्डगता चलनस्वभावा या सृष्टि:-पशूनां प्राणिनां, तेजः पुञ्जानां, नदीनां, तरङ्गाणां वायोः वा; या च स्थिरत्वेन अवलोक्यमाना सृष्टि:-पर्वतानां, वृक्षाणां, भवनादीनां वा सा सर्वा अपि सृष्टिः ईश्वराधीना सती चलत्स्वभावा एव। ईश्वरस्य विभूत्या सर्वा अपि सृष्टि: परिपूर्णा चलत्स्वभावा च चकास्ते। तदुक्तं भगवद्गीतायाम् - यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा। तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽशसम्भवम् ॥ इति ॥ भगवद्गीता-10.41
उपनिषत्प्रस्थानरहस्यं विद्याया अविद्यायाश्च समन्वयमुखेन अत्र उद्घाटितमस्ति। ये जना अविद्यापदवाच्येषु यज्ञयागादिकर्मसु, भौतिक-शास्त्रेषु, लौकिकेषु ज्ञानेषु दैनन्दिनसुखसाधन-सञ्चयनार्थं संलग्नमानसा भवन्ति ते लौकिकीम् उन्नतिं प्राप्नुवन्त्येव; किन्तु तेषां तेषां जनानाम् आध्यात्मिकं बलम्, अन्तरसत्त्वं वा निस्सारं भवति। ये तु विद्यापदवाच्ये आत्मज्ञाने एव केवलं संलग्नमनसः भवन्ति, भौतिकज्ञानस्य साधनसामग्रीणां च तिरस्कारं कुर्वन्ति ते जीवननिर्वाहे, लौकिकेऽभ्युदये च क्लेशमनुभवन्ति।
अत एव अविद्यया भौतिकज्ञानराशिभिः मानवकल्याणकारीणि जीवनयात्रासम्पादकानि वस्तूनि सम्प्राप्य विद्यया आत्मज्ञानेन-ईश्वरज्ञानेन जन्ममृत्युदुःखरहितम् अमृतत्वं प्राप्नोति। विद्याया अविद्यायाश्च ज्ञानेन एव इहलोके सुखं परत्र च अमृतत्वमिति कल्याणी वाचम् उपदिशति उपनिषत् 'अविद्यया मृत्युं तीर्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते' इति।
पाठ्यांशेन सह भावसाम्यं पर्यालोचयत -
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायोऽह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः॥ भगवद्गीता-3.8
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते॥ कठोपनिषत्-3.15
कठोपनिषदि प्रतिपादितं श्रेयं प्रेयश्च अधिकृत्य सङ्ग्रणीत-दिङ्मात्रं यथा -
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ
संपरीत्य विविनक्ति धीरः।
श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते
प्रेयो मन्दो योगक्षेमात् वृणीते॥ कठोपनिषत्-2.2
विविधासु उपनिषत्सु प्रतिपादिताम् आत्मप्राप्तिविषयकजिज्ञासां विशदयत -
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष
आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥ कठोपनिषत्-2.23
वैदिकस्वराः
वैदिकमन्त्रेषु उच्चारणदृष्ट्या त्रिविधानां 'स्वराणां' प्रयोगो भवति। मन्त्राणाम् अर्थमधिकृत्य चिन्तनं, प्रकृतिप्रत्यययोः योगं, समासं वाश्रित्य भवति। तत्र अर्थनिर्धारणे स्वरा महत्त्वपूर्णा भवन्ति। 'उच्चैरुदात्तः' 'नीचैरनुदात्तः' 'समाहारः स्वरित:' इति पाणिनीयानुशासनानुरूपम् उदात्तस्वरः ताल्वादिस्थानेषु उपरिभागे उच्चारणीयः, अनुदात्तस्वरः ताल्वादीनां नीचैः स्थानेषु, उभयोः स्वरयोः समाहाररूपेण (समप्रधानत्वेन)स्वरित उच्चारणीय इति उच्चारणक्रमः। वैदिकशब्दानां निर्वचनार्थं प्रवृत्ते निरुक्ताख्ये ग्रन्थे पाणिनीयशिक्षायां च स्वरस्य महत्त्वम् इत्थमुक्तम् -
मन्त्रो हीनस्स्वरतो वर्णतो वा
मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह।
स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति
यथेन्द्रशत्रुस्स्वरतोऽपराधात्॥
मन्त्राः स्वरसहिताः उच्चारणीया इति परम्परा। अत: स्वरितस्वरः अक्षराणाम् उपरि चिह्नन, अनुदात्तस्वरः अक्षराणां नीचैः चिह्नन उदात्तस्वरः किमपि चिह्न विना च मन्त्राणां पठन-सौकर्यार्थ प्रदर्श्यते।
इसप्रकार यहाँ एनसीईआरटी के कक्षा-12 के संस्कृत पाठ्यपुस्तक-शाश्वती द्वितीय भाग के प्रथमः पाठः-विद्ययाऽमृतमश्नुते का शब्दार्थ सहित हिन्दी अनुवाद एवं भावार्थ तथा उस पर आधारित प्रश्नोत्तर सीबीएसई सत्र-2022-2023 के लिए प्रस्तुत किया गया।यहाँ दिए गए हिंदी अनुवाद तथा भावार्थ की मदद से विद्यार्थी पूरे पाठ को आसानी से समझकर अभ्यास के प्रश्नों को स्वयं कर सकते हैं।
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जयतु संस्कृतम्।