रघुकौत्ससंवादः
जेसीईआरटी तथा एनसीईआरटी के कक्षा-12 के संस्कृत पाठ्यपुस्तक-शाश्वती भाग 2 के द्वितीय: पाठ: कर्मगौरवम् का शब्दार्थ सहित हिन्दी अनुवाद एवं भावार्थ तथा उस पर आधारित प्रश्नोत्तर सीबीएसई सत्र 202-2023 के लिए यहाँ दिए गए हैं।यहाँ दिए गए हिंदी अनुवाद तथा भावार्थ की मदद से विद्यार्थी पूरे पाठ को आसानी से समझकर अभ्यास के प्रश्नों को स्वयं कर सकते हैं। प्रस्तुत पाठ महाकवि कालिदास द्वारा विरचित रघुवंश महाकाव्य के पञ्चम सर्ग से संकलित है। इसमें महाराज रघु एवं वरतन्तु ऋषि के शिष्य कौत्स नामक ब्रह्मचारी के मध्य साकेत नगरी में हुआ संवाद वर्णित है।कौत्स वेद, पुराण, वेदाङ्ग, दर्शन आदि 14 विद्याओं का अध्ययन समाप्त करके गुरुदक्षिणा देने की इच्छा से अपने गुरु वरतन्तु से बार-बार गुरुदक्षिणा लेने की प्रार्थना करता है।गुरु द्वारा गुरुभक्ति को ही गुरुदक्षिणा रूप में मानने पर भी कौत्स की निरन्तर प्रार्थना से रुष्ट होकर वरतन्तु उसे गुरुदक्षिणा के रूप में 14 करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देने की आज्ञा देते हैं।कौत्स विश्वजित् नामक यज्ञ में सर्वस्व दान कर चुके महाराज रघु के पास गुरुदक्षिणा के लिए धन माँगने आता है। महाराज रघु धनपति कुबेर पर आक्रमण करने की योजना बनाते हैं। भयभीत कुबेर रघु के कोषागार में सुवर्ण-वृष्टि कर देते हैं। रघु कौत्स को धन प्रदान कर सन्तुष्ट होते हैं और कौत्स भी गुरु को देने के लिए गुरुदक्षिणा प्राप्त कर सन्तुष्ट हो जाते हैं।
पाठ के श्लोकों का अर्थ-
तमध्वरे विश्वजिति क्षितीशं
निःशेषविश्राणितकोषजातम्।
उपात्तविद्यो गुरुदक्षिणार्थी
कौत्सः प्रपेदे वरतन्तुशिष्यः॥1॥
विश्वजिति अध्वरे=‘विश्वजित्’ नामक यज्ञ में
कोशजातं=अपनी सम्पूर्ण धनराशि
नि:शेषविश्राणित=दान कर चुके
तं क्षितीशं (रघुम्)=उस राजा रघु के पास
उपात्तविद्यः=विद्या को प्राप्त किया हुआ,विद्यासम्पन्न
वरतन्तुशिष्यः=वरतन्तु ऋषि का शिष्य
कौत्सः=कौत्स
गुरुदक्षिणार्थी=गुरुदक्षिणा देने की इच्छा से
प्रपेदे=(धनयाचना करने के लिए)पहुँचा।
भावार्थ:-प्राचीन काल में राजा लोग ‘विश्वजित्’ यज्ञ करते थे। राजा रघु ने भी यह यज्ञ किया और अपना सम्पूर्ण खजाना (राजकोष-धनधान्य) दान कर दिया। तभी वरतन्तु का शिष्य कौत्स भी राजा के पास इस आशा में पहुँचा कि वह अपने गुरु को गुरुदक्षिणा में देने के लिए चौदह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ राजा रघु से माँग लेगा।
स मृण्मये वीतहिरण्मयत्वात्
पात्रे निधायार्थ्यमनर्घशीलः।
श्रुतप्रकाशं यशसा प्रकाशः
प्रत्युजगामातिथिमातिथेयः॥2॥
सः अनर्घशीलः=वह प्रशंसनीय स्वभाव वाला
यशसा प्रकाशः=यश से प्रकाशवान
आतिथेयः=अतिथि सत्कार करने वाला (राजा रघु)
वीतहिरण्मयत्वात्=सोने के बने हुए पात्रों के न रहने से
मृण्मये पात्रे=मिट्टी के बने हुए पात्र में
अर्घ्यं निधाय= अर्घ्य अर्थात् सत्कार के लिए जल आदि लेकर
श्रुतप्रकाशम्=वेदज्ञान से प्रकाशमान
अतिथिं (कौत्सम्)=अतिथि कौत्स के
प्रति उज्जगाम=पास उठकर गया।
भावार्थ:-विश्वजित् यज्ञ में सम्पूर्ण धन-कोष दान कर देने के कारण राजा रघु निर्धन हो चुका था। अब उसके पास सोने के बर्तन नहीं थे। परन्तु अतिथि का सत्कार तो प्रत्येक दशा में करना ही चाहिए। इसी भाव से रघु मिट्टी के पात्र में सत्कार-सामग्री रखकर, अपने आसन से उठकर याचक ब्रह्मचारी कौत्स के पास पहुंचे।
तमर्चयित्वा विधिवद्विधिज्ञः
तपोधनं मानधनाग्रयायी।
विशांपतिर्विष्टरभाजमारात्
कृताञ्जलिः कृत्यविदित्युवाच॥३॥
विधिज्ञः=शास्त्रविधि को जानने वाले
मानधनाग्रयायी=स्वाभिमान को ही धन मानने वालों में अग्रगण्य
कृत्यवित् =अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व को समझने वाले
विशांपतिः=प्रजा के स्वामी राजा
विष्टरभाजं तं =आसन/पीठ पर बैठे हुए उस
तपोधनं=तपस्वी (कौत्स का)
विधिवत्=विधिपूर्वक
अर्चयित्वा=सत्कार करके
आरात्=निकट ही
कृताञ्जलिःसन्=हाथ जोड़े हुए (रघु) ने
इति उवाच= इस प्रकार कहा।
भावार्थ:-स्वाभिमानी राजा रघु ने तपस्वी कौत्स का पूजन करके आदरपूर्वक हाथ जोड़कर अगले पद्यों में कहे जाने वाले वचन कहे।
अप्यग्रणीमन्त्रकृतामृषीणां
कुशाग्रबुद्धे कुशली गुरुस्ते।
यतस्त्वया ज्ञानमशेषमाप्तं
लोकेन चैतन्यमिवोष्णरश्मेः॥ 4॥
राजा रघु ने कौत्स से विनयपूर्वक कहा-
(हे) कुशाग्रबुद्धे !=हे तीव्रबुद्धि !
अपि मन्त्रकृताम्=क्या मन्त्रद्रष्टा
ऋषीणाम् अग्रणीः=ऋषियों में अग्रगण्य
ते गुरुः कुशली ?=आपके गुरु कुशलपूर्वक हैं ?
यतः त्वया=क्योंकि आपने
अशेषं ज्ञानं=समस्त ज्ञान
आप्तम्=(अपने गुरु से उसी प्रकार) प्राप्त किया है,
लोकेन=(जिस प्रकार संसार के) समस्त लोग
उष्णरश्मेः=सूर्य से
चैतन्यम् इव=ऊर्जा प्राप्तकर चेतनावान् हो जाते हैं।
भावार्थ:-वरतन्तु मन्त्रद्रष्टा श्रेष्ठ ऋषि हैं। राजा रघु उनके शिष्य से ऋषिश्रेष्ठ का कुशल समाचार पूछकर सज्जनोचित शिष्टाचार प्रकट कर रहे हैं। जैसे सूर्य से लोग ऊर्जा प्राप्तकर चेतनावान् हो जाते हैं, इसी प्रकार कौत्स वरतन्तु से समस्त 14 विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर विद्यावान् हुआ है।
विशेष:-यहाँ उपमा अलंकार है।
तवार्हतो नाभिगमेन तृप्तं मनो नियोगक्रिययोत्सुकं मे।
अप्याज्ञया शासितुरात्मना वाप्राप्तोऽसि सम्भावयितुं वनान्माम् ॥5॥
राजा रघु ने कौत्स से पुन: कहा-
अर्हतः तव=आप पूजनीय के
अभिगमनेन=आगमन से
नियोगक्रियया=आज्ञापालन के लिए
उत्सुकं =उत्सुक
मे मनःन=मेरा मन
तृप्तम् =प्रसन्न हो गया है।
अपि शासितुः=क्या आप गुरु की
आज्ञया=आज्ञा से
आत्मना वा=अथवा अपने-आप से ही
मां संभावयितुं=मुझ पर कृपा करने के लिए
वनात्= वन (आश्रम) से
प्राप्तः असि=यहाँ पधारे हैं?
भावार्थ:-राजा रघु स्वभाव से विनम्र एवं शिष्टाचार में निपुण हैं। वे तपस्वियों की याचना को भी अपने ऊपर तपस्वियों की कृपा ही मानते हैं। रघु के पूछने का तात्पर्य है कि वह अपने गुरुदेव के प्रयोजन से मेरे पास आया है अथवा उसका कोई अपना ही व्यक्तिगत प्रयोजन है ?
इत्यर्घ्यपात्रानुमितव्ययस्य
रघोरुदारामपि गां निशम्य।
स्वार्थोपपत्तिं प्रति दुर्बलाशः
तमित्यवोचद्वरतन्तुशिष्यः॥6॥
अर्घ्यपात्रेण=अर्घ्यपात्र मिट्टी का बना हुआ होने से
अनुमितव्ययस्य=जिसके खर्च करने की सामर्थ्य का अनुमान किया जा सकता है,
रघोः इति=ऐसे उस राजा रघु की
उदारां=उदारतापूर्ण
गाम् =वाणी को
निशम्य अपि=सुनकर भी
वरतन्तुशिष्यः=वरतन्तु के शिष्य
स्वार्थोपपत्तिं=अपने कार्य की सिद्धि के
प्रति दुर्बलाशः=प्रति हताश होते हुए
तम् इति=राजा रघु से ये
अवोचत्=ये वचन कहे।
भावार्थ:-राजा रघु विश्वजित् यज्ञ में अपना सम्पूर्ण धन दान कर चुके हैं, अत: कौत्स का सत्कार करने के लिए आज उनके पास सोने का पात्र नहीं है; अपितु मिट्टी का पात्र है। इस मिट्टी के बर्तन से ही अब रघु की दान शक्ति का परिचय मिल जाता है। कौत्स को अपने उद्देश्य की सिद्धि पूर्ण होती हुई प्रतीत नहीं होती, इसीलिए वह हताश होकर अगले पद्यों में कहे गए वचन राजा रघु के सामने निवेदन करता है।
सर्वत्र नो वार्तमवेहि राजन् !
नाथे कुतस्त्वय्यशुभं प्रजानाम्।
सूर्ये तपत्यावरणाय दृष्टे:
कल्पेत लोकस्य कथं तमिस्त्रा॥7॥
वरतन्तु के शिष्य कौत्स ने राजा रघु को सम्बोधन करते हुए कहा-
(हे) राजन् !=-हे राजन् !
सर्वत्र =आप तो सभी जगह
नः वार्तम्=हमारी कुशलता को
अवेहि=जानते ही हैं।
त्वयि नाथे=आप के राजा होते हुए
प्रजानाम्=प्रजाओं का
अशुभं कुतः=अशुभ कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं।
सूर्ये तपति=सूर्य के प्रकाशमान होने पर
तमिस्रा=अंधकार समूह (कृष्ण पक्ष की रात्रि)
लोकस्य दृष्टेः=संसार के लोगों की दृष्टि को
आवरणाय=ढकने में
कथं कल्पेत=कैसे समर्थ हो सकता है ? .
भावार्थ:-कौत्स राजा रघु के राजा होने पर सन्तुष्ट है और राजा के समक्ष वह स्पष्ट कर रहा है कि उनके राजा रहते हुए उनके शासन में किसी भी प्रकार के अनिष्ट की कल्पना नहीं की जा सकती। समस्त प्रजा का केवल कल्याण ही होता है। सूर्य के रहते हुए अंधकार कैसे ठहर सकता है?
विशेषः-प्रस्तुत पद्य में पहले वाक्य की कही गई बात को दूसरे वाक्य की बात से पुष्ट किया गया है। अत: यहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार है।
शरीरमात्रेण नरेन्द्र तिष्ठन्
आभासि तीर्थप्रतिपादितर्द्धिः।
आरण्यकोपात्तफलप्रसूतिः
स्तम्बेन नीवार इवावशिष्टः॥ 8॥
वरतन्तु के शिष्य कौत्स ने राजा रघु से कहा-
(हे) नरेन्द्र !=हे राजन् !
तीर्थे=सत्पात्रों को
प्रतिपादितार्द्धिः=अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति दान. में देने वाले आप
अपि शरीरमात्रेण=केवल शरीर से
तिष्ठन्=उसी प्रकार सुशोभित हो रहे हैं,
आरण्यकाः=जैसे वनों में रहने वाले मुनि लोगों को
उपात्तफलप्रसूतिः=अपने फल प्रदान कर देने वाले
स्तम्बेन=डंठल मात्र से
अवशिष्टः=शेष रहकर
नीवारः=नीवार के पौधे
इव आभासि=सुशोभित होते हैं।
भावार्थ:-रघु सर्वस्व दान कर देने के पश्चात् भी सुशोभित हो रहे हैं, क्योंकि उन्होंने यह दान सदाचारी याचकों को दिया है। कवि कालिदास ने धन-सम्पत्ति से रहित होने के कारण शरीर मात्र से विद्यमान रघु को उसी प्रकार सुशोभित बताया है जिस प्रकार मुनियों द्वारा नीवार-अन्न (साँवकी) ग्रहण कर लेने पर नीवार का पौधा डंठल मात्र रहकर सुशोभित होता है।
तदन्यतस्तावदनन्यकार्यों
गुर्वर्थमाहर्तुमहं यतिष्ये।
स्वस्त्यस्तु ते निर्गलिताम्बुगर्भ
शरद्घनं नार्दति चातकोऽपि ॥ 9॥
कौत्स राजा रघु से कह रहा है-
तत् तावत् =तब कोई
अनन्यकार्यः=अन्य प्रयोजन न होने से
अहम्=मैं
अन्यतः=किसी दूसरे राजा के पास
गुर्वर्थम्=गुरुचरणों में दक्षिणा रूप में देने के लिए
आहर्तुं=धन-याचना करने का
यतिष्ये=प्रयास करूंगा।
ते स्वस्ति=आपका कल्याण हो।
चातकः अपि=चातक भी
निर्गलिताम्बुगर्भ=जल वर्षा कर देने से रिक्त हुए
शरद्-घनं=शरद् ऋतु के बादलों से
न अर्दति=जल की याचना नहीं करता।
भावार्थ:-जिसके पास जो वस्तु हो, उससे वही वस्तु माँगनी चाहिए। कौत्स को धन की आवश्यकता है। राजा रघु पहले ही सम्पूर्ण धन का दान कर चुके हैं। कौत्स का धन याचना के अतिरिक्त कोई अन्य प्रयोजन भी नहीं है। अतः वह राजा रघु से कह रहा है कि मैं गुरुदक्षिणा के लिए धन प्राप्त करने हेतु किसी अन्य राजा से निवेदन करूँगा क्योंकि जल रहित बादलों से तो चातक पक्षी भी याचना नहीं करता। विशेष:-पहले वाक्यार्थ की पुष्टि दूसरे वाक्यार्थ से हो रही है। अतः यहाँ ‘अर्थान्तरन्यास’ अलंकार है।
एतावदुक्त्वा प्रतियातुकामं
शिष्यं महर्षेर्नृपतिर्निषिध्य।
किं वस्तु विद्वन् ! गुरवे प्रदेयं
त्वया कियद्वेति तमन्वयुक्तं ॥ 10॥
एतावद्=इसप्रकार वचन
उक्त्वा=कहकर
महर्षेः शिष्यं=जब महर्षि वरन्तु का शिष्य
प्रतियातुकामं=लौटने लगा तब
नृपतिः (रघुः)=महाराज रघु ने
निषिध्य-=उसे रोक कर
इति तम्=इस प्रकार उससे
अन्वयुक्त=पूछा-
“(हे) विद्वन् !=“हे विद्वान् !
त्वया गुरवे=अपने गुरु को
प्रदेयं वस्तु=गुरुदक्षिणा में देने के लिए
किम्, =क्या वस्तु चाहिए
कियत् वा=और कितनी चाहिए ?”
भावार्थ:-कौत्स अपनी धन याचना पूर्ण न होते हुए देखकर वापस लौट जाना चाहता है। रघु उसे रोकते हैं क्योंकि महाराज रघु एक स्वाभिमानी राजा हैं और किसी याचक का खाली हाथ लौट जाना रघु को स्वीकार नहीं है। इसीलिए वे कौत्स से पूछते हैं कि उसे गुरुदक्षिणा में देने के लिए कितने परिमाण में किस वस्तु की आवश्यकता
ततो यथावद्विहिताध्वराय
तस्मै स्मयावेशविवर्जिताय।
वर्णाश्रमाणां गुरवे स वर्णी
विचक्षणः प्रस्तुतमाचचक्षे॥ 11 ॥
ततः यथावत्=तब विधिपूर्वक
विहिताध्वराय=यज्ञ अनुष्ठान कर लेने वाले
स्मयावेशविर्जिताय=अभिमान से शून्य
वर्णाश्रमाणां=वर्ण तथा आश्रमों के
गुरवे=व्यवस्थापक
तस्मै स:=उस राजा रघु को
विचक्षणः=विद्वान्
वर्णी= ब्रह्मचारी
प्रस्तुतम्=अपना उद्देश्य
आचचक्षे=कहा-
भावार्थ:-राजा रघु धर्मवृत्ति हैं, उनमें नाममात्र को भी अभिमान नहीं है। वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णों; ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास इन चारों आश्रमों पर नियन्त्रण करने वाले हैं। ऐसे प्रजापालक राजा के पूछने पर कौत्स ने अपना मनोरथ राजा के सामने प्रकट किया।
समाप्तविद्येन मया महर्षिर्
विज्ञापितोऽभूद्गुरुदक्षिणायै।
स मे चिरायास्खलितोपचारां
तां भक्तिमेवागणयत्पुरस्तात्॥ 12 ॥
कौत्स ने राजा रघु को सारा वृत्तान्त समझाते हुए कहा कि जब
मया= मैंने
समाप्तविद्येन=विद्या समाप्त कर ली तो
महर्षिः=महर्षि वरतन्तु से
गुरुदक्षिणायै=मैंने गुरु दक्षिणा स्वीकार कर लेने के लिए
विज्ञापितः=प्रार्थना की।
अभूत्=की तो
स चिराय=उन आदरणीय गुरु जी ने पहले तो
अस्खलितोपचारां=मेरी पूर्ण निष्ठापूर्वक की गई
तां मे भक्तिम्=उस भक्ति को ही
एव पुरस्तात्=बहुत दिनों तक
अगणयत्=गुरुदक्षिणा रूप में समझा।
भावार्थ:-महर्षि वरतन्तु सच्चे गुरु थे, उन्हें धन की कोई इच्छा नहीं थी। इसीलिए वे कौत्स के सेवाभाव को ही बहुत दिनों तक गुरु दक्षिणा के रूप में मानते रहे।
निर्बन्धसञ्जातरुषार्थकार्य
मचिन्तयित्वा गुरुणाहमुक्तः
वित्तस्य विद्यापरिसंख्यया मे
कोटीश्चतस्रो दश चाहरेति ॥ 13 ॥
कौत्स महाराज रघु से शेष वृत्तान्त निवेदन करते हुए कहता है-
निर्बन्धसञ्जातरुषा=मेरे बार-बार प्रार्थना (जिद्द) करने से क्रोधित हुए गुरु जी ने
अर्थकार्यम्=मेरी निर्धनता का
अचिन्तयित्वा=विचार किए बिना
अहं =मुझसे
विद्यापरिसंख्यया=विद्या की संख्या के अनुसार
चतस्रः दश च=चौदह
कोटीः वित्तस्य=करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ
आहर इति=ले आओ।”ऐसा
उक्तः=कहा।
भावार्थ:-गुरुदेव वरतन्तु को न धन का लोभ था, न विद्या का अभिमान । परन्तु शिष्य कौत्स की बार-बार जिद्द ने उन्हें क्रोधित कर दिया और उन्होंने कौत्स को पढ़ाई गई चौदह विद्याओं के प्रतिफल में चौदह करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ गुरुदक्षिणा में समर्पित करने का आदेश दे दिया।
इत्थं द्विजेन द्विजराजकान्ति
रावेदितो वेदविदां वरेण।
एनोनिवृत्तेन्द्रियवृत्तिरेनं
जगाद भूयो जगदेकनाथः ॥ 14 ॥
वेदविदां=वेद विद्या को जानने वालों में
वरेण=श्रेष्ठ
द्विजेन=ब्राह्मण से
इत्थम्=इसप्रकार
आवेदितः=निवेदन किए जाने पर
द्विजराजकान्तिः=चन्द्रमा के समान कान्ति वाले,
एनोनिवृत्तेन्द्रियवृत्तिः=जितेन्द्रिय
जगदेकनाथ:=संसार के पालन करने वाले उस राजा रघु ने
एनं=याचक कौत्स को
भूयः=फिर
जगाद=कहा
भावार्थ:-राजा रघु ने कौत्स द्वारा कहे गए सम्पूर्ण घटनाक्रम को सुनकर अगले पद्य में कहे जाने वाले वचन कौत्स से कहे।
गुर्वर्थमर्थी श्रुतपारदृश्वा
रघोः सकाशादनवाप्य कामम्।
गतो वदान्यान्तरमित्ययं मे
मा भूत्परीवादनवावतारः ॥ 15 ॥
श्रुतपारदृश्वा=आप शास्त्रों को जानने वाले हैं
गुर्वर्थम्=गुरुदक्षिणा देने के लिए
अर्थी=धन याचना करने वाले हैं
रघोः=रघु के
सकाशात्=पास से
कामम्=मनोरथ
अनवाप्य=पूरा किए बिना
वदान्यान्तरं=किसी दूसरे दानी के पास
गतः इति=चले जाएं-इस प्रकार की
अयं=यह
परीवादनवावतारः=निन्दा का नया प्रार्दुभाव
मे माभूत्=मुझमें न हो जाए।
भावार्थ:-सम्मानित व्यक्तियों के लिए समाज में फैला हुआ अपयश मृत्यु से भी बढ़कर होता है, इसीलिए राजा रघु बिल्कुल नहीं चाहते कि समाज में यह निन्दा फैल जाए कि कोई वेद का विद्वान्, शास्त्रों का ज्ञाता ब्राह्मण अपने गुरु को गुरुदक्षिणा देना चाहता था और इसी उद्देश्य से धन याचना करने के लिए वह राजा रघु के पास आया और खाली हाथ लौट गया।
स त्वं प्रशस्ते महिते मदीये
वसंश्चतुर्थोऽग्निरिवाग्न्यगारे
द्वित्राण्यहान्यहसि सोढुमर्हन्
यावद्यते साधयितुं त्वदर्थम्॥ 16 ॥
स त्वं=आप
मदीये=मेरी
महिते=विशाल तथा
प्रशस्ते=प्रशंसनीय
अग्न्यगारे=यज्ञशाला में
चतुर्थः=चतुर्थ
अग्निः इव=अग्नि के समान
द्वित्राणि=दो-तीन
अहानि=दिन
यावत्=तक
वसन्=रहते हुए
सोढुम्=बिता
अर्हसि=सकते हैं।
(हे) अर्हन् !=हे पूजनीय ब्रह्मचारी!
त्वदर्थं=मैं आपके प्रयोजन को
साधयितुं=सिद्ध करने के लिए
यते=यत्न करूंगा।
भावार्थ:-दक्षिणाग्नि, गार्हपत्याग्नि और आहवनीयाग्नि नाम से यज्ञ की अग्नि तीन प्रकार की होती है, ये तीनों अग्नियाँ याजकों के लिए अति श्रद्धेय होती हैं। रघु कौत्स को चतुर्थ अग्नि की भाँति पूजनीय समझते हैं और उससे निवेदन करते हैं की आप मेरी ही यज्ञशाला में दो-तीन दिन तक प्रतीक्षा करें, जिससे 14 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का प्रबन्ध किया जा सके।
तथेति तस्यावितथं प्रतीत:
प्रत्यग्रहीत्सङ्गरमग्रजन्मा।
गामात्तसारां रघुरप्यवेक्ष्य
निष्क्रष्टुमर्थं चकमे कुबेरात्।। 17 ॥
अग्रजन्मा=ब्राह्मण कौत्स ने
प्रतीतः=प्रसन्न होकर
तस्य=उस राजा रघु के
अवितथं=सत्यवचन
सङ्गरं=प्रतिज्ञा को
तथा इति =‘ठीक है’यह कहकर
प्रत्यग्रहीत्=स्वीकार किया।
रघुः अपि=रघु ने भी
गाम्=पृथिवी को
आत्तसाराम्=प्राप्तधन वाली
अवेक्ष्य=देखकर
कुबेरात्=कुबेर से
अर्थं=धन
निष्क्रष्टुं=छीन लेने की
चकमे=इच्छा की।
भावार्थः-याचक कौत्स और दाता रघु दोनों को परस्पर विश्वास है। कौत्स ने रघु के वचनों को सत्य प्रतिज्ञा के रूप में ग्रहण किया। रघु ने कौत्स की याचना के पूर्ण करने हेतु धन के स्वामी कुबेर पर आक्रमण कर उसका धन हरण कर लेने की इच्छा की।
प्रातः प्रयाणाभिमुखाय तस्मै
सविस्मयाः कोषगृहे नियुक्ताः।
हिरण्मयी कोषगृहस्य मध्ये
वृष्टिं शशंसुः पतितां नभस्तः ॥ 18 ॥
प्रातः=प्रात:काल (कुबेर की ओर)
प्रयाणाभिमुखाय=प्रस्थान करने के लिए तैयार हुए
तस्मै=उस रघु के
कोषगृहे=कोषगृह में
नियुक्ताः=नियुक्त अधिकारियों ने
सविस्मयाः=आश्चर्यचकित
(सन्तः)=होते हुए
कोषगृहस्य मध्ये=खजाने में
नभस्तः=आकाश से
पतितां=गिरने वाली
हिरण्मयीं=सुवर्णमयी
वृष्टिं शशंसुः=वर्षा के बारे में कहा।
भावार्थ:-राजा रघु जैसे ही प्रातःकाल कुबेर की ओर प्रस्थान करने के लिए तैयार हुआ, तभी रघु के कोशगृह के अधिकारियों ने देखा कि उस खजाने में सुवर्ण मुद्राओं की वर्षा हो चुकी है। अधिकारियों को यह सब देखकर आश्चर्य हुआ और उन्होंने राजा रघु को यह समाचार सुनाया।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
तं भूपतिर्भासुरहेमराशिं
लब्धं कुबेरादभियास्यमानात्।
दिदेश कौत्साय समस्तमेव
पादं सुमेरोरिव वज्रभिन्नम्॥ 19 ॥
भूपतिः=राजा रघु ने
अभियास्यमानात्=आक्रमण किए जाने वाले
कुबेरात् =कुबेर से
लब्धं=प्राप्त
वज्रभिन्नं=वज्र के द्वारा टुकड़े किए गए
सुमेरोः=सुमेरु
पादम् इव=चतुर्थ भाग के समान
भासुरं=चमकती हुई
तं समस्तम् =उन समस्त
एव हेमराशिं=सुवर्ण मुद्राओं को
कौत्साय=कौत्स के लिए
दिदेश=दे दिया।
भावार्थ:-कुबेर ने रघु के आक्रमण के भय से उसके खजाने को सुवर्ण मुद्राओं से भर दिया। वे सुवर्ण मुद्राएँ परिमाण में इतनी अधिक थी कि ऐसा लगता था मानो सुमेरु पर्वत का ही वज्र से काटकर उसका चौथा हिस्सा खजाने में रख दिया। महाराज रघु ने कुबेर से प्राप्त हुई सभी सुवर्ण मुद्राएँ याचक कौत्स को प्रदान कर दी अर्थात् चौदह करोड़ ही न देकर पूरा खजाना ही कौत्स को सौंप दिया।
जनस्य साकेतनिवासिनस्तौ
द्वावप्यभूतामभिनन्धसत्त्वौ।
गुरुप्रदेयाधिकानिःस्पृहोऽर्थी
नृपोऽर्थिकामादधिकप्रदश्च ॥ 20॥
तौ द्वौ अपि=वे (महाराजा रघु और कौत्स) दोनों ही
साकेतनिवासिनः=अयोध्यावासी
जनस्य=लोगों के लिए
अभिनन्द्यसत्त्वौ=प्रशंसनीय व्यवहार वाले
अभूताम्=गए।
गुरुप्रदेयाद्=क्योंकि गुरु को समर्पण करने योग्य धन से
अधिकनिःस्पृहः अर्थी=अधिक.धन लेने में इच्छा न रखने वाला याचक कौत्स था
अर्थिकामात्=और याचक की याचना से
अधिकप्रदः=अधिक धन देने वाला
नृपः च=राजा रघु था।
(आसीत्)=था।
भावार्थ:-कौत्स की निर्लोभता की सीमा नहीं थी और महाराज रघु की उदारता की सीमा नहीं थी। कौत्स गुरुदक्षिणा में देने योग्य चौदह करोड़ मुद्राओं से एक थी अधिक नहीं लेना चाहता और राजा सारा खजाना ही उसे दे देना चाहते थे-दोनों के इस अद्भुत व्यवहार से अयोध्यावासी धन्य हो गए और दोनों की ही अत्यधिक प्रशंसा करने लगे।
हिन्दीभाषया पाठस्य सारः
प्रस्तुत पाठ ‘रघुकौत्ससंवादः’ महाकवि कालिदास द्वारा रचित ‘रघुवंश-महाकाव्यम्’ के पञ्चम सर्ग से सम्पादित है। इसमें महाराज रघु एवं वरतन्तु ऋषि के शिष्य कौत्स नामक ब्रह्मचारी के मध्य साकेत नगरी में हुआ संवाद वर्णित है।कौत्स अपने गुरु ऋषि वरतन्तु से वेद, पुराण, वेदाङ्ग, दर्शन आदि 14 विद्याओं का अध्ययन समाप्त करके अपने गुरु से बार-बार गुरुदक्षिणा लेने की प्रार्थना करता है। गुरु द्वारा गुरुभक्ति को ही गुरुदक्षिणा रूप में मानने पर भी कौत्स गुरुदक्षिणा स्वीकार करने की निरन्तर प्रार्थना करता है। इससे रुष्ट होकर वरतन्तु उसे गुरुदक्षिणा के रूप में 14 करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देने की आज्ञा देते हैं।
महाराज रघु विश्वजित् नामक यज्ञ में सर्वस्व दान कर चुके हैं। कौत्स उनके पास गुरुदक्षिणा के लिए धन माँगने आता है। कौत्स महाराज रघु की धनहीनता देखकर वापस लौटने लगता है। महाराज रघु उसे रोकते हैं और पूछते हैं कि वह अपने गुरु को गुरुदक्षिणा में क्या देना चाहता है ? वह बताता है कि गुरुदेव ने चौदह विद्याओं को पढ़ाने के प्रतिफल में 14 करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ गुरुदक्षिणा के रूप में देने का आदेश दिया है। ब्रह्मचारी कौत्स की याचना पूर्ण करने के उद्देश्य से महाराज रघु धनपति कुबेर पर आक्रमण करने की योजना बनाते हैं। भयभीत कुबेर रघु के कोषागार में सुवर्ण-वृष्टि कर देते हैं। रघु कौत्स को सारा धन प्रदान कर सन्तुष्ट होते हैं परन्तु कौत्स उनमें से केवल 14 करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ देने के लिए गुरुदक्षिणा प्राप्त कर सन्तुष्ट भाव से लौट जाते हैं।
इस पाठ से यह सन्देश मिलता है कि महाराज रघु की भाँति शासक को सर्वसाधारण जन के प्रति उदार एवं कल्याणकारी होना चाहिए तथा याचक को कौत्स की भाँति अपनी आवश्यकता से अधिक धन प्राप्त करने की इच्छा नहीं रखनी चाहिए।
1. संस्कृतभाषया उत्तरं लिखत
(क) कौत्सः कस्य शिष्यः आसीत् ?
(ख) रघुः कम् अध्वरम् अनुतिष्ठति स्म ?
(ग) कौत्सः किमर्थं रघु प्राप ?
(घ) मन्त्रकृताम् अग्रणीः कः आसीत् ?
(ङ) तीर्थप्रतिपादितद्धिः नरेन्द्रः कथमिव आभाति स्म ?
(च) चातकोऽपि कं न याचते ?
(छ) कौत्सस्य गुरुः गुरुदक्षिणात्वेन कियद्धनं देयमिति आदिदेश ?
(ज) रघुः कस्मात् परीवादात् भीतः आसीत् ?
(झ) कस्मात् अर्थं निष्क्रष्टुम् रघुः चकमे ?
(ञ) हिरण्मयीं वृष्टिं के शशंसुः ?
(ट) कौ अभिनन्धसत्वौ अभूताम् ?
उत्तरम्:
(क) कौत्सः महर्षेः वरतन्तोः शिष्यः आसीत्।
(ख) रघुः ‘विश्वजित्’-नामकम् अध्वरम् अनुतिष्ठति स्म।
(ग) कौत्सः गुरुदक्षिणार्थं धनं याचितुं रघु प्राप।
(घ) मन्त्रकृताम् अग्रणी: महर्षिः वरतन्तुः आसीत्।
(ङ) तीर्थप्रतिपादितर्द्धिः नरेन्द्रः स्तम्बेन अवशिष्टः नीवारः इव आभाति स्म।
(च) चातकोऽपि निर्गलिताम्बुग) शरद्घनं न याचते।
(छ) कौत्सस्य गुरु: गुरुदक्षिणात्वेन चतुर्दशकोटी: सुवर्णमुद्राः प्रदेयाः इति आदिदेश।
(ज) ‘कश्चित् याचक: गुरुप्रदेयम् अर्थं रघोः अनवाप्य अन्यं दातारं गतः’ इति परीवादात् रघुः भीतः आसीत्।
(झ) कुबेरात् अर्थं निष्क्रष्टुम् रघुः चकमे।
(ञ) हिरण्मयीं वृष्टिं गृहकोषे नियुक्ताः अधिकारिणः शशंसुः ।
(ट) द्वौ रघुकौत्सौ अभिनन्द्यसत्त्वौ अभूताम्।
2. कोष्ठकात् समुचितं पदमादाय रिक्तस्थानानि पूरयत
(क) यससा ………………… अतिथिं प्रत्युज्जगाम। (प्रकाशः, कृष्णः, आतिथेयः)
(ख) मानधनाग्रयायी ……………….. तपोधनम् उवाच। (विशाम्पतिः, अकृताञ्जलिः, कौत्सः)
(ग) कुशाग्रबुद्धे ! ………………… कुशली। (ते शिष्यः, ते गुरुः, अग्रणी:)
(घ) हे राजन् ! सर्वत्र ………………… अवेहि। (दुःखम्, वार्तम्, असुखम्)
(ङ) स्तम्बेन अवशिष्टः …………… इव आभासि। (धान्यम्, नीवारः, वृक्षः)
(च) हे विद्वन् ! ………………… गुरवे कियत् प्रदेयम्।। (त्वया, मया, लोकेन)
(छ) ………………… अचिन्तयित्वा गुरुणा अहमुक्तः। (शरीरक्लेशम्, अर्थकार्यम्, रोगक्लेशम्)
उत्तरम्:
(क) प्रकाशः
(ख) विशाम्पतिः
(ग) ते गुरुः
(घ) वार्तम्
(ङ) नीवारः
(च) त्वया
(छ) अर्थकार्यम्।
3. अधोलिखितानां सप्रसङ्गं हिन्दीभाषया व्याख्या कार्या
(क) कोटीश्चतस्रो दश चाहर।
(ख) माभूत्परीवादनवावतारः।
(ग) द्वित्राण्यहान्यर्हसि सोढुमर्हन्।
(घ) निष्क्रष्टुमर्थं चकमे कुबेरात्।
(ङ) दिदेश कौत्साय समस्तमेव।
उत्तरम्:
(क) कोटीश्चतस्रो दश चाहर।
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ से ‘रघुकौत्ससंवादः’ नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ कविकुलशिरोमणि महाकवि कालिदास द्वारा रचित ‘रघुवंशमहाकाव्यम्’ के पञ्चम सर्ग में से सम्पादित किया गया है। इसमें महर्षि वरतन्तु के शिष्य कौत्स का गुरुदक्षिणा के लिए आग्रह, बार-बार के आग्रह से क्रोधित ऋषि द्वारा पढ़ाई गई चौदह विद्याओं की संख्या के अनुरूप चौदह करोड़ मुद्राएँ देने का आदेश, सर्वस्वदान कर चुके राजा रघु से कौत्स की धनयाचना ‘रघु के द्वार से’ याचक खाली हाथ लौट गया-इस अपकीर्ति के भय से रघु का कुबेर पर आक्रमण का विचार तथा भयभीत कुबेर द्वारा रघु के खजाने में धन वर्षा करने को संवाद रूप में वर्णित किया गया है।
व्याख्या-महर्षि वरतन्तु मन्त्रद्रष्टा ऋषि थे। न उनमें विद्या का अभिमान था, न गुरुदक्षिणा में धन का लोभ। कौत्स नामक एक शिष्य ने ऋषि से चौदह विद्याएँ अत्यन्त भक्ति भाव से ग्रहण की। विद्याप्राप्ति के पश्चात् कौत्स ने गुरुदक्षिणा स्वीकार करने का आग्रह किया। ऋषि ने कौत्स के भक्तिभाव को ही गुरुदक्षिणा मान लिया। परन्तु कौत्स गुरुदक्षिणा देने के लिए जिद्द करता रहता रहा और इस जिद्द से रुष्ट होकर कवि ने उसे पढ़ाई गई एक विद्या के लिए एक करोड़ सुवर्णमुद्राओं के हिसाब से चौदह करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ भेंट करने का आदेश दे दिया–’कोटीश्चतस्त्रो दश चाहर’।
(ख) मा भूत्परीवादनवावतारः।
(किसी निन्दा का नया प्रादुर्भाव न हो जाए।)
(ग) द्वित्राण्यहान्यर्हसि सोढमर्हन।
(हे पूजनीय ! दो-तीन तक आप मेरे पास ठहर जाएँ।)
(घ) निष्क्रष्टुमर्थं चकमे कुबेरात्।
(रघु ने कुबेर से धन ग्रहण करने की इच्छा की।)
(ङ) दिदेश कौत्साय समस्तमेव ।
(रघु ने कुबेर से प्राप्त सारा धन कौत्स के लिए दे दिया।)
उत्तर:
(ख), (ग), (घ) तथा (ङ) के लिए संयुक्त प्रसंग एवं व्याख्या
प्रसंग-(क) वाला ही उपयोग करें।
व्याख्या-महर्षि वरतन्तु का शिष्य कौत्स राजा रघु के पास गुरुदक्षिणार्थ धन याचना के लिए आता है। रघु विश्वजित् यज्ञ में सर्वस्व दान कर चुके हैं, अतः वे सुवर्णपात्र के स्थान पर मिट्टी के पात्र में जल आदि लेकर कौत्स का स्वागत करते हैं। कौत्स मिट्टी का पात्र देखकर अपने मनोरथ की पूर्ति में हताश हो जाता है और वापस लौटने लगता है। राजा रघु खाली हाथ लौटते हुए कौत्स को रोकते हैं क्योंकि सम्मानित व्यक्ति के लिए अपयश मृत्यु से बढ़कर होता है अत: उन्हें भय यह है कि कहीं प्रजा में यह निन्दा न फैल जाए कि कोई याचक रघु के पास आया था और खाली हाथ लौट गया था। वे कौत्स से उसका मनोरथ पूछते हैं। कौत्स सारा वृत्तान्त सुनाते हुए कहता है कि गुरु के आदेश के अनुसार चौदह करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ गुरुदक्षिणा में भेंट करनी हैं। रघु कौत्स से दो-तीन के लिए
आदरणीय अतिथि के रूप में ठहरने का अग्रह करते हैं, जिससे उचित धन का प्रबन्ध किया जा सके। कौत्स राजा की प्रतिज्ञा को सत्य मानकर ठहर जाता है। रघु भी उसकी याचना पूर्ति के लिए धन के स्वामी कुबेर पर आक्रमण का विचार करते हैं। कुबेर रघु के पराक्रम से भयभीत होकर रघु के खजाने में सुवर्ण वृष्टि कर देते हैं। उदार रघु यह सारा धन कौत्स को दे देते हैं, परन्तु निर्लोभी कौत्स उनमें से केवल 14 करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ लेकर लौट जाता है।
दाता सम्पूर्ण धनराशि देकर अपनी उदारता प्रकट करते हैं और याचक आवश्यकता से अधिक एक कौड़ी भी ग्रहण न करके उत्तम याचक का आदर्श उपस्थित करते हैं। इस प्रकार दोनों ही यशस्वी हो जाते हैं।
4. अधोलिखितेषु रिक्तस्थानेषु विशेष्य विशेषणपदानि पाठ्यांशात् चित्वा लिखत
(क) ………………….. अध्वरे।
(ख) ………………….. कोषजातम्।
(ग) …………………… अनुमितव्ययस्य।
(घ) ………………….. फलप्रसूतिः।
(ङ) ………………….. विवर्जिताय।
उत्तरम्
(क) विश्वजिति अध्वरे।
(ख) निःशेष-विश्राणित-कोषजातम्।
(ग) अर्घ्यपात्र-अनुमितव्ययस्य ।
(घ) आरण्यकोपात्त-फलप्रसूतिः।
(ङ) स्मयावेश-विवर्जिताय।
5. विग्रहपूर्वकं समासनाम निर्दिशत
(क) उपात्तविद्यः
(ख) तपोधनः
(ग) वरतन्तुशिष्यः
(घ) महर्षिः
(ङ) विहिताध्वराय
(च) जगदेकनाथः
(छ) नृपतिः
(ज) अनवाप्य
उत्तरम्:
(क) उपात्तविद्यः = उपात्ता प्राप्ता विद्या येन सः। (बहुव्रीहिः समासः)
(ख) तपोधनः = तपः एव धनं यस्य सः। (बहुव्रीहिः समासः)
(ग) वरतन्तुशिष्यः = वरतन्तोः शिष्यः (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(घ) महर्षिः = महान् ऋषिः (कर्मधारयः)
(ङ) विहिताध्वराय = विहितम् अध्वरं येन सः, तस्मै। (बहुव्रीहिः समासः)
(छ) नृपतिः = नृणां पतिः। (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(ज) अनवाप्य = न अवाप्य।
6. अधोलिखितानां पदानां समुचितं योजनं कुरुत
(अ) – (आ)
(क) ते (1) चतुर्दश
(ख) चतस्र: दश च (2) गुरुदक्षिणार्थी
(ग) अस्खलितोपचाराम् (3) अहानि
(घ) चैतन्यम् (4) स्वस्ति अस्तु
(ङ) कौत्स: (5) प्रबोध: प्रकाशो वा
(च) द्वित्राणि (6) भक्तिम्
उत्तरम-
(क) ते स्वस्ति अस्तु
(ख) चतस्र: दश च चतुर्दश
(ग) अस्खलितोपचारां भक्तिम्
(घ) चैतन्यम् प्रबोधः प्रकाशो वा
(ङ) कौत्सः गुरुदक्षिणार्थी
(च) द्वित्राणि अहानि
7. प्रकृतिप्रत्ययविभागः क्रियताम्
(क) अर्थी (ख) मृण्मयम् (ग) शासितुः (घ) अवशिष्टः (ङ) उक्त्वा
(च) प्रस्तुतम् (छ) उक्तः (ज) अवाप्य (झ) लब्धम् (ब) अवेक्ष्य।
उत्तरम्:
(क) अर्थी = अर्थ + इनि > इन् (पुंल्लिङ्गम् प्रथमा-एकवचनम्)
(ख) मृण्मयम् = मृत् + मयट् (नपुं०, प्रथमा-एकवचनम्)
(ग) शासितुः = √शास् + तृच् (पुंल्लिङ्गम् षष्ठी-एकवचनम्)
(घ) अवशिष्टः = अव + √शास् + क्त (पुंल्लिङ्गम्, प्रथमा-एकवचनम्)
(ङ) उक्त्वा = √वच् + क्त्वा (अव्ययपदम्)
(च) प्रस्तुतम् = प्र + √स्तु + क्त (नपुं०, प्रथमा-एकवचनम्)
(छ) उक्तः = √वच् + क्त (पुंल्लिङ्गम्, प्रथमा-एकवचनम्)
(ज) अवाप्य = अव + √आप् + ल्यप् (अव्ययपदम्)
(झ) लब्धम् = √लभ् + क्त (नपुं, प्रथमा-एकवचनम्)
(ब) अवेक्ष्य = अव + √ईक्ष् + ल्यप् (अव्ययपदम्)
8. विभक्ति-लिङ्ग-वचनादिनिर्देशपूर्वकं पदपरिचयं कुरुत
(क) जनस्य (ख) द्वौ (ग) तौ (घ) सुमेरोः (ङ) प्रातः (च) सकाशात् (छ) मे (ज) भूयः (झ) वित्तस्य
(ब) गुरुणा
उत्तरम्:
9. अधोलिखितानां क्रियापदानाम् अन्येषु पुरुषवचनेषु रूपाणि लिखत
(क) अग्रहीत् (ख) दिदेश (ग) अभूत् (घ) जगाद (ङ) उत्सहते (च) अर्दति (छ) याचते (ज) अवोचत्।
उत्तरम्:
10. अधोलिखितानां पदानां विलोमपदानि लिखत
(क) नि:शेषम् (ख) असकृत् (ग) उदाराम् (घ) अशुभम् (ङ) समस्तम्
उत्तरम्:
(विलोमपदानि)
(क) नि:शेषम् – शेषम्
(ख) असकृत् – सकृत्
(ग) उदाराम् – अनुदाराम्
(घ) अशुभम् – शुभम्
(ङ) समस्तम् – असमस्तम्
11. अधोलिखितानां पदानां वाक्येषु प्रयोगं कुरुत
(क) नृपः (ख) अर्थी (ग) भासुरम् (घ) वृष्टिः (ङ) वित्तम् (च) वदान्यः (छ) द्विजराजः (ज) गर्वः
(झ) घनः (ब) वार्तम्
उत्तरम्:
(वाक्यप्रयोगाः)
(क) नृपः (राजा)-नृपः रघुः कौत्साय समस्तं धनम् अयच्छत्।
(ख) अर्थी (याचक:)-कौत्सः गुरुदक्षिणार्थम् अर्थस्य अर्थी आसीत्।
(ग) भासुरम् (भास्वरम्)-रघुः भासुरं सुवर्णराशिं कौत्साय अयच्छत् ।
(घ) वृष्टिः (वर्षा)-रघोः कोषगृहे सुवर्णमयी वृष्टिः अभवत्।
(ङ) वित्तमद् (धनम्)-मुनीनां तपः एव वित्तं भवति।।
(च) वदान्यः (दानी)-रघुः याचकेषु उदारः वदान्यः आसीत्।
(छ) द्विजराजः (चन्द्रमाः)-रात्रौ आकाशे द्विजराजः दीव्यति।
(ज) गर्वः (अहंकारः)-गर्वः उचितः न भवति।।
(झ) घनः (मेघ:)-वर्षौ घनः गर्जति वर्षति च।
(ञ) वार्तम् (कुशलताम्)-राजा प्रजायाः वार्तम् इच्छति।
12. अधोलिखितानाम् (श्लोकानाम्) अन्वयं कुरुत
(क) सः मृण्मये वीतहिरण्मयत्वात् …….. आतिथेयः।
(ख) समाप्तविद्येन मया महर्षिः ……………….. पुरस्तात्।
(ग) स त्वं प्रशस्ते महिते मदीये ………………….. त्वदर्थम्।
उत्तरम्:
उपुर्यक्त तीनों श्लोकों का अन्वय पाठ में देखें।
13. अधोलिखितेषु प्रयुक्तानाम् अलङ्काराणां निर्देशं कुरुत
(क) ‘यतस्त्वया ज्ञानमशेषमाप्तं लोकेन चैतन्यमिवोष्णरश्मेः’।
(ख) शरीरमात्रेण नरेन्द्र ! तिष्ठना भासि …………… इवावशिष्टः॥
(ग) तं भूपतिर्भासुरहेमराशिं ………………. वज्रभिन्नम्।
उत्तरम्:
(क) उपमा – अलङ्कारः।
(ख) उपमा – अलङ्कारः ।
(ग) अनुप्रासः, उपमा च अलङ्कारौ।
14. अधोलिखितेषु छन्दः निर्दिश्यताम्
(क) तमध्वरे विश्वजिति क्षितीशं ………….. वरतन्तुशिष्यः॥
(ख) गुर्वर्थमर्थी श्रुतपारदृश्वा …… नवावतारः॥
(ग) स त्वं प्रशस्ते महिते …………. त्वदर्थम्॥
उत्तरम्:
(क) उपजातिः छन्दः
(ख) उपजाति: छन्दः
(ग) उपजातिः छन्दः।
I. समुचितम् उत्तरं चित्वा लिखत
(i) रघुवंशस्य रचयिता कः ?
(A) भासः
(B) कालिदासः
(C) माघः
(D) अश्वघोषः
(ii) कौत्सः कस्य शिष्यः आसीत् ?
(A) रघोः
(B) महर्षेः
(C) महर्षिवरतन्तोः
(D) वसिष्ठस्य।
(ii) रघुः कम् अध्वरम् अनुतिष्ठति स्म ?
(A) विश्वजित्-नामकम्
(B) पुत्रीयेष्टि-नामकम्
(C) पौर्णमास-नामकम्
(D) पाक्षिकम्।
(iv) मन्त्रकृताम् अग्रणीः कः आसीत् ?
(A) रघुः
(B) दिलीपः
(C) रामः
(D) वरतन्तुः
(v) कस्मात् अर्थं निष्क्रष्टुम् रघुः चकमे ?
(A) कृष्णात्
(B) इन्द्रात्
(C) कुबेरात्
(D) शिवात्।
(vi) हिरण्मयीं वृष्टिं के शशंसुः ?
(A) अधिकारिणः
(B) मित्राणि
(C) याचकाः
(D) प्रजाः।
(vii) कौ अभिनन्धसत्वौ अभूताम् ?
(A) गुरुशिष्यौ
(B) वरतन्तुकौत्सौ
(C) रघुकौत्सौ
(D) रघुवरतन्तू।
II. रेखाङ्कितपदम् आधृत्य-प्रश्ननिर्माणाय समुचितम् पदं चित्त्वा लिखत
(i) मा भूत् परीवादनवावतारः।
(A) कस्य
(B) कस्मात्
(C) कस्मिन्
(D) कस्याम्।
उत्तरम्:
(A),कस्य
(ii) दिदेश कौत्साय समस्तमेव।
(A) कः
(B) कस्मिन्
(C) कस्मै
(D) कम्।
उत्तराणि:
(C) कस्मै
(ii) कौत्सः वरतन्तोः शिष्यः आसीत्।
(A) कम्
(B) कस्मै
(C) कस्मात्
(D) कस्य।
उत्तराणि:
(D) कस्य
(iv) रघुः विश्वजितम् अध्वरम् अनुतिष्ठति स्म।
(A) कः
(B) कम्
(C) कस्मै
(D) कस्याः ।
उत्तराणि:
(B) कम्
(v) वरतन्तुः मन्त्रकृताम् अग्रणीः आसीत्।
(A) केषाम्
(B) कस्य
(C) कस्मिन्
(D) कस्याः ।
उत्तराणि:
(A) केषाम्।