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शनिवार, 2 मई 2020

रघुकौत्ससंवाद

 

रघुकौत्ससंवादः

         जेसीईआरटी तथा एनसीईआरटी के कक्षा-12 के संस्कृत पाठ्यपुस्तक-शाश्वती भाग 2 के  द्वितीय: पाठ: कर्मगौरवम्  का शब्दार्थ सहित हिन्दी अनुवाद एवं भावार्थ तथा उस पर आधारित प्रश्नोत्तर सीबीएसई सत्र 202-2023 के लिए यहाँ दिए गए हैं।यहाँ दिए गए हिंदी अनुवाद तथा भावार्थ की मदद से विद्यार्थी पूरे पाठ को आसानी से समझकर अभ्यास के प्रश्नों को स्वयं कर सकते हैं।                                                                                                                                   प्रस्तुत पाठ महाकवि कालिदास द्वारा विरचित रघुवंश महाकाव्य के पञ्चम सर्ग से संकलित है। इसमें महाराज रघु एवं वरतन्तु ऋषि के शिष्य कौत्स नामक ब्रह्मचारी के मध्य साकेत नगरी में हुआ संवाद वर्णित है।कौत्स वेद, पुराण, वेदाङ्ग, दर्शन आदि 14 विद्याओं का अध्ययन समाप्त करके गुरुदक्षिणा देने की इच्छा से अपने गुरु वरतन्तु से बार-बार गुरुदक्षिणा लेने की प्रार्थना करता है।गुरु द्वारा गुरुभक्ति को ही गुरुदक्षिणा रूप में मानने पर भी कौत्स की निरन्तर प्रार्थना से रुष्ट होकर वरतन्तु उसे गुरुदक्षिणा के रूप में 14 करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देने की आज्ञा देते हैं।कौत्स विश्वजित् नामक यज्ञ में सर्वस्व दान कर चुके महाराज रघु के पास गुरुदक्षिणा के लिए धन माँगने आता है। महाराज रघु धनपति कुबेर पर आक्रमण करने की योजना बनाते हैं। भयभीत कुबेर रघु के कोषागार में सुवर्ण-वृष्टि कर देते हैं। रघु कौत्स को धन प्रदान कर सन्तुष्ट होते हैं और कौत्स भी गुरु को देने के लिए गुरुदक्षिणा प्राप्त कर सन्तुष्ट हो जाते हैं।

पाठ के श्लोकों का अर्थ-

तमध्वरे विश्वजिति क्षितीशं
निःशेषविश्राणितकोषजातम्।
उपात्तविद्यो गुरुदक्षिणार्थी
कौत्सः प्रपेदे वरतन्तुशिष्यः॥1॥
विश्वजिति अध्वरे‘विश्वजित्’ नामक यज्ञ में
 कोशजातंअपनी सम्पूर्ण धनराशि  
नि:शेषविश्राणितदान कर चुके
तं क्षितीशं (रघुम्)उस राजा रघु के पास   
उपात्तविद्यःविद्या को प्राप्त किया हुआ,विद्यासम्पन्न 
वरतन्तुशिष्यःवरतन्तु ऋषि का  शिष्य 
कौत्सःकौत्स
गुरुदक्षिणार्थीगुरुदक्षिणा देने की इच्छा से 
प्रपेदे=(धनयाचना करने के लिए)पहुँचा।
भावार्थ:-प्राचीन काल में राजा लोग ‘विश्वजित्’ यज्ञ करते थे। राजा रघु ने भी यह यज्ञ किया और अपना सम्पूर्ण खजाना (राजकोष-धनधान्य) दान कर दिया। तभी वरतन्तु का शिष्य कौत्स भी राजा के पास इस आशा में पहुँचा कि वह अपने गुरु को गुरुदक्षिणा में देने के लिए चौदह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ राजा रघु से माँग लेगा।
स मृण्मये वीतहिरण्मयत्वात्
पात्रे निधायार्थ्यमनर्घशीलः।
श्रुतप्रकाशं यशसा प्रकाशः
प्रत्युजगामातिथिमातिथेयः॥2॥
सः अनर्घशीलःवह प्रशंसनीय स्वभाव वाला
यशसा प्रकाशःयश से प्रकाशवान
आतिथेयःअतिथि सत्कार करने वाला (राजा रघु)
वीतहिरण्मयत्वात्सोने के बने हुए पात्रों के न रहने से 
मृण्मये पात्रेमिट्टी के बने हुए पात्र में
अर्घ्यं निधाय अर्घ्य अर्थात् सत्कार के लिए जल आदि लेकर
श्रुतप्रकाशम्वेदज्ञान से प्रकाशमान 
अतिथिं (कौत्सम्)अतिथि कौत्स के 
 प्रति उज्जगामपास उठकर गया।
भावार्थ:-विश्वजित् यज्ञ में सम्पूर्ण धन-कोष दान कर देने के कारण राजा रघु निर्धन हो चुका था। अब उसके पास सोने के बर्तन नहीं थे। परन्तु अतिथि का सत्कार तो प्रत्येक दशा में करना ही चाहिए। इसी भाव से रघु मिट्टी के पात्र में सत्कार-सामग्री रखकर, अपने आसन से उठकर याचक ब्रह्मचारी कौत्स के पास पहुंचे।
तमर्चयित्वा विधिवद्विधिज्ञः
तपोधनं मानधनाग्रयायी।
विशांपतिर्विष्टरभाजमारात्
कृताञ्जलिः कृत्यविदित्युवाच॥३॥
विधिज्ञः=शास्त्रविधि को जानने वाले 
मानधनाग्रयायीस्वाभिमान को ही धन मानने वालों में अग्रगण्य 
कृत्यवित् अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व को समझने वाले
विशांपतिःप्रजा के स्वामी राजा 
विष्टरभाजं तं आसन/पीठ  पर बैठे हुए उस
तपोधनंतपस्वी (कौत्स का)
विधिवत्विधिपूर्वक 
अर्चयित्वासत्कार करके 
आरात्निकट ही 
कृताञ्जलिःसन्हाथ जोड़े हुए (रघु) ने
इति उवाच इस प्रकार कहा।
भावार्थ:-स्वाभिमानी राजा रघु ने तपस्वी कौत्स का पूजन करके आदरपूर्वक हाथ जोड़कर अगले पद्यों में कहे जाने वाले वचन कहे।
अप्यग्रणीमन्त्रकृतामृषीणां
कुशाग्रबुद्धे कुशली गुरुस्ते।
यतस्त्वया ज्ञानमशेषमाप्तं
लोकेन चैतन्यमिवोष्णरश्मेः॥ 4॥
राजा रघु ने कौत्स से विनयपूर्वक कहा-
(हे) कुशाग्रबुद्धे !हे तीव्रबुद्धि ! 
अपि मन्त्रकृताम्क्या मन्त्रद्रष्टा 
ऋषीणाम् अग्रणीःऋषियों में अग्रगण्य 
ते गुरुः कुशली ?आपके गुरु कुशलपूर्वक हैं ? 
यतः त्वयाक्योंकि आपने 
अशेषं ज्ञानंसमस्त ज्ञान
आप्तम्=(अपने गुरु से उसी प्रकार) प्राप्त किया है,
 लोकेन(जिस प्रकार संसार के) समस्त लोग 
उष्णरश्मेःसूर्य से 
चैतन्यम् इवऊर्जा प्राप्तकर चेतनावान् हो जाते हैं। 
भावार्थ:-वरतन्तु मन्त्रद्रष्टा श्रेष्ठ ऋषि हैं। राजा रघु उनके शिष्य से ऋषिश्रेष्ठ का कुशल समाचार पूछकर सज्जनोचित शिष्टाचार प्रकट कर रहे हैं। जैसे सूर्य से लोग ऊर्जा प्राप्तकर चेतनावान् हो जाते हैं, इसी प्रकार कौत्स वरतन्तु से समस्त 14 विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर विद्यावान् हुआ है।
विशेष:-यहाँ उपमा अलंकार है।
तवार्हतो नाभिगमेन तृप्तं मनो नियोगक्रिययोत्सुकं मे।
अप्याज्ञया शासितुरात्मना वाप्राप्तोऽसि सम्भावयितुं वनान्माम् ॥5॥
राजा रघु ने कौत्स से पुन: कहा-
अर्हतः तवआप पूजनीय के
अभिगमनेनआगमन से 
नियोगक्रिययाआज्ञापालन के लिए 
उत्सुकं उत्सुक  
मे मनःमेरा मन  
तृप्तम् प्रसन्न हो गया है। 
अपि शासितुःक्या आप गुरु की 
आज्ञयाआज्ञा से 
आत्मना वाअथवा अपने-आप से ही 
मां संभावयितुंमुझ पर कृपा करने के लिए 
वनात् वन (आश्रम) से 
प्राप्तः असियहाँ पधारे हैं?
भावार्थ:-राजा रघु स्वभाव से विनम्र एवं शिष्टाचार में निपुण हैं। वे तपस्वियों की याचना को भी अपने ऊपर तपस्वियों की कृपा ही मानते हैं। रघु के पूछने का तात्पर्य है कि वह अपने गुरुदेव के प्रयोजन से मेरे पास आया है अथवा उसका कोई अपना ही व्यक्तिगत प्रयोजन है ?
इत्यर्घ्यपात्रानुमितव्ययस्य
रघोरुदारामपि गां निशम्य।
स्वार्थोपपत्तिं प्रति दुर्बलाशः
तमित्यवोचद्वरतन्तुशिष्यः॥6॥
अर्घ्यपात्रेणअर्घ्यपात्र मिट्टी का बना हुआ होने से 
अनुमितव्ययस्यजिसके खर्च करने की सामर्थ्य का अनुमान किया जा सकता है,
 रघोः इतिऐसे उस राजा रघु की 
उदारांउदारतापूर्ण 
गाम् वाणी को 
निशम्य अपिसुनकर भी 
वरतन्तुशिष्यःवरतन्तु के शिष्य
स्वार्थोपपत्तिंअपने कार्य की सिद्धि के
प्रति दुर्बलाशःप्रति हताश होते हुए
तम् इतिराजा रघु से ये 
अवोचत्ये वचन कहे।
भावार्थ:-राजा रघु विश्वजित् यज्ञ में अपना सम्पूर्ण धन दान कर चुके हैं, अत: कौत्स का सत्कार करने के लिए आज उनके पास सोने का पात्र नहीं है; अपितु मिट्टी का पात्र है। इस मिट्टी के बर्तन से ही अब रघु की दान शक्ति का परिचय मिल जाता है। कौत्स को अपने उद्देश्य की सिद्धि पूर्ण होती हुई प्रतीत नहीं होती, इसीलिए वह हताश होकर अगले पद्यों में कहे गए वचन राजा रघु के सामने निवेदन करता है।
 सर्वत्र नो वार्तमवेहि राजन् !
नाथे कुतस्त्वय्यशुभं प्रजानाम्।
सूर्ये तपत्यावरणाय दृष्टे:
कल्पेत लोकस्य कथं तमिस्त्रा॥7॥
वरतन्तु के शिष्य कौत्स ने राजा रघु को सम्बोधन करते हुए कहा-
(हे) राजन् !-हे राजन् !
 सर्वत्र आप तो सभी जगह 
नः वार्तम्हमारी कुशलता को 
अवेहिजानते ही हैं।
त्वयि नाथेआप के राजा होते हुए 
प्रजानाम्प्रजाओं का 
अशुभं कुतःअशुभ कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं।
 सूर्ये तपतिसूर्य के प्रकाशमान होने पर
तमिस्राअंधकार समूह (कृष्ण पक्ष की रात्रि) 
लोकस्य दृष्टेःसंसार के लोगों की दृष्टि को 
आवरणायढकने में 
कथं कल्पेतकैसे समर्थ हो सकता है ? .
भावार्थ:-कौत्स राजा रघु के राजा होने पर सन्तुष्ट है और राजा के समक्ष वह स्पष्ट कर रहा है कि उनके राजा रहते हुए उनके शासन में किसी भी प्रकार के अनिष्ट की कल्पना नहीं की जा सकती। समस्त प्रजा का केवल कल्याण ही होता है। सूर्य के रहते हुए अंधकार कैसे ठहर सकता है?
विशेषः-प्रस्तुत पद्य में पहले वाक्य की कही गई बात को दूसरे वाक्य की बात से पुष्ट किया गया है। अत: यहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार है।
शरीरमात्रेण नरेन्द्र तिष्ठन्
आभासि तीर्थप्रतिपादितर्द्धिः।
आरण्यकोपात्तफलप्रसूतिः
स्तम्बेन नीवार इवावशिष्टः॥ 8॥
वरतन्तु के शिष्य कौत्स ने राजा रघु से कहा-
(हे) नरेन्द्र !हे राजन् ! 
तीर्थेसत्पात्रों को
प्रतिपादितार्द्धिःअपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति दान. में देने वाले आप
अपि शरीरमात्रेणकेवल शरीर से 
तिष्ठन्उसी प्रकार सुशोभित हो रहे हैं, 
आरण्यकाःजैसे वनों में रहने वाले मुनि लोगों को 
उपात्तफलप्रसूतिःअपने फल प्रदान कर देने वाले 
स्तम्बेनडंठल मात्र से 
अवशिष्टःशेष रहकर 
नीवारःनीवार के पौधे
इव आभासिसुशोभित होते हैं।
भावार्थ:-रघु सर्वस्व दान कर देने के पश्चात् भी सुशोभित हो रहे हैं, क्योंकि उन्होंने यह दान सदाचारी याचकों को दिया है। कवि कालिदास ने धन-सम्पत्ति से रहित होने के कारण शरीर मात्र से विद्यमान रघु को उसी प्रकार सुशोभित बताया है जिस प्रकार मुनियों द्वारा नीवार-अन्न (साँवकी) ग्रहण कर लेने पर नीवार का पौधा डंठल मात्र रहकर सुशोभित होता है।
तदन्यतस्तावदनन्यकार्यों
गुर्वर्थमाहर्तुमहं यतिष्ये।
स्वस्त्यस्तु ते निर्गलिताम्बुगर्भ
शरद्घनं नार्दति चातकोऽपि ॥ 9॥
कौत्स राजा रघु से कह रहा है-
तत् तावत् तब कोई
अनन्यकार्यःअन्य प्रयोजन न होने से 
अहम्मैं 
अन्यतःकिसी दूसरे राजा के पास
गुर्वर्थम्गुरुचरणों में दक्षिणा रूप में देने के लिए 
आहर्तुंधन-याचना करने का 
यतिष्येप्रयास करूंगा।
ते स्वस्तिआपका कल्याण हो।
 चातकः अपिचातक भी 
निर्गलिताम्बुगर्भजल वर्षा कर देने से रिक्त हुए 
शरद्-घनंशरद् ऋतु के बादलों से
 न अर्दतिजल की याचना नहीं करता
भावार्थ:-जिसके पास जो वस्तु हो, उससे वही वस्तु माँगनी चाहिए। कौत्स को धन की आवश्यकता है। राजा रघु पहले ही सम्पूर्ण धन का दान कर चुके हैं। कौत्स का धन याचना के अतिरिक्त कोई अन्य प्रयोजन भी नहीं है। अतः वह राजा रघु से कह रहा है कि मैं गुरुदक्षिणा के लिए धन प्राप्त करने हेतु किसी अन्य राजा से निवेदन करूँगा क्योंकि जल रहित बादलों से तो चातक पक्षी भी याचना नहीं करता। विशेष:-पहले वाक्यार्थ की पुष्टि दूसरे वाक्यार्थ से हो रही है। अतः यहाँ ‘अर्थान्तरन्यास’ अलंकार है।
एतावदुक्त्वा प्रतियातुकामं
शिष्यं महर्षेर्नृपतिर्निषिध्य।
किं वस्तु विद्वन् ! गुरवे प्रदेयं
त्वया कियद्वेति तमन्वयुक्तं ॥ 10॥
एतावद्इसप्रकार वचन 
उक्त्वाकहकर
महर्षेः शिष्यंजब महर्षि वरन्तु का शिष्य 
प्रतियातुकामंलौटने लगा तब  
नृपतिः (रघुः)महाराज रघु ने 
निषिध्य-उसे रोक कर 
इति तम्इस प्रकार उससे 
अन्वयुक्तपूछा-
(हे) विद्वन् !“हे विद्वान् ! 
त्वया गुरवेअपने गुरु को 
प्रदेयं वस्तुगुरुदक्षिणा में देने के लिए 
किम्, क्या वस्तु चाहिए
कियत् वाऔर कितनी चाहिए ?” 
भावार्थ:-कौत्स अपनी धन याचना पूर्ण न होते हुए देखकर वापस लौट जाना चाहता है। रघु उसे रोकते हैं क्योंकि महाराज रघु एक स्वाभिमानी राजा हैं और किसी याचक का खाली हाथ लौट जाना रघु को स्वीकार नहीं है। इसीलिए वे कौत्स से पूछते हैं कि उसे गुरुदक्षिणा में देने के लिए कितने परिमाण में किस वस्तु की आवश्यकता
ततो यथावद्विहिताध्वराय
तस्मै स्मयावेशविवर्जिताय।
वर्णाश्रमाणां गुरवे स वर्णी
विचक्षणः प्रस्तुतमाचचक्षे॥ 11 ॥
ततः यथावत्तब  विधिपूर्वक
विहिताध्वराययज्ञ अनुष्ठान कर लेने वाले
 स्मयावेशविर्जितायअभिमान से शून्य 
वर्णाश्रमाणांवर्ण तथा आश्रमों के 
गुरवेव्यवस्थापक
तस्मै स:उस राजा रघु को 
विचक्षणःविद्वान्
 वर्णी ब्रह्मचारी 
प्रस्तुतम्अपना उद्देश्य
आचचक्षेकहा-
भावार्थ:-राजा रघु धर्मवृत्ति हैं, उनमें नाममात्र को भी अभिमान नहीं है। वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णों; ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास इन चारों आश्रमों पर नियन्त्रण करने वाले हैं। ऐसे प्रजापालक राजा के पूछने पर कौत्स ने अपना मनोरथ राजा के सामने प्रकट किया।
समाप्तविद्येन मया महर्षिर्
विज्ञापितोऽभूद्गुरुदक्षिणायै।
स मे चिरायास्खलितोपचारां
तां भक्तिमेवागणयत्पुरस्तात्॥ 12 ॥
कौत्स ने राजा रघु को सारा वृत्तान्त समझाते हुए कहा कि जब
मया मैंने
समाप्तविद्येनविद्या समाप्त कर ली तो 
 महर्षिःमहर्षि वरतन्तु से 
 गुरुदक्षिणायैमैंने गुरु दक्षिणा स्वीकार कर लेने के लिए
विज्ञापितःप्रार्थना की।
 अभूत्की तो 
स चिरायउन आदरणीय गुरु जी ने पहले तो
 अस्खलितोपचारांमेरी पूर्ण निष्ठापूर्वक की गई
 तां मे भक्तिम्उस भक्ति को ही 
एव पुरस्तात्बहुत दिनों तक 
अगणयत्गुरुदक्षिणा रूप में समझा
भावार्थ:-महर्षि वरतन्तु सच्चे गुरु थे, उन्हें धन की कोई इच्छा नहीं थी। इसीलिए वे कौत्स के सेवाभाव को ही बहुत दिनों तक गुरु दक्षिणा के रूप में मानते रहे।
 निर्बन्धसञ्जातरुषार्थकार्य
मचिन्तयित्वा गुरुणाहमुक्तः
वित्तस्य विद्यापरिसंख्यया मे
कोटीश्चतस्रो दश चाहरेति ॥ 13 ॥
कौत्स महाराज रघु से शेष वृत्तान्त निवेदन करते हुए कहता है-
निर्बन्धसञ्जातरुषामेरे बार-बार प्रार्थना (जिद्द) करने से क्रोधित हुए गुरु जी ने  
अर्थकार्यम्मेरी निर्धनता का 
अचिन्तयित्वाविचार किए बिना 
अहं मुझसे
विद्यापरिसंख्ययाविद्या की संख्या के अनुसार
चतस्रः दश चचौदह 
कोटीः वित्तस्यकरोड़ सुवर्ण मुद्राएँ 
आहर इतिले आओ।”ऐसा   
उक्तःकहा।
भावार्थ:-गुरुदेव वरतन्तु को न धन का लोभ था, न विद्या का अभिमान । परन्तु शिष्य कौत्स की बार-बार जिद्द ने उन्हें क्रोधित कर दिया और उन्होंने कौत्स को पढ़ाई गई चौदह विद्याओं के प्रतिफल में चौदह करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ गुरुदक्षिणा में समर्पित करने का आदेश दे दिया। 
इत्थं द्विजेन द्विजराजकान्ति
रावेदितो वेदविदां वरेण।
एनोनिवृत्तेन्द्रियवृत्तिरेनं
जगाद भूयो जगदेकनाथः ॥ 14 ॥
वेदविदांवेद विद्या को जानने वालों में 
वरेणश्रेष्ठ 
 द्विजेनब्राह्मण से
इत्थम्इसप्रकार
 आवेदितःनिवेदन किए जाने पर
द्विजराजकान्तिःचन्द्रमा के समान कान्ति वाले,
 एनोनिवृत्तेन्द्रियवृत्तिःजितेन्द्रिय 
जगदेकनाथ:संसार के पालन करने वाले उस राजा रघु ने
 एनंयाचक कौत्स को 
भूयःफिर
जगादकहा
भावार्थ:-राजा रघु ने कौत्स द्वारा कहे गए सम्पूर्ण घटनाक्रम को सुनकर अगले पद्य में कहे जाने वाले वचन कौत्स से कहे।
गुर्वर्थमर्थी श्रुतपारदृश्वा
रघोः सकाशादनवाप्य कामम्।
गतो वदान्यान्तरमित्ययं मे
मा भूत्परीवादनवावतारः ॥ 15 ॥
श्रुतपारदृश्वाआप शास्त्रों को जानने वाले हैं 
गुर्वर्थम्गुरुदक्षिणा देने के लिए  
अर्थीधन याचना करने वाले हैं
रघोःरघु के
सकाशात्पास से
 कामम्मनोरथ 
अनवाप्यपूरा किए बिना 
वदान्यान्तरंकिसी दूसरे दानी के पास 
गतः इतिचले जाएं-इस प्रकार की 
अयंयह
 परीवादनवावतारःनिन्दा का नया प्रार्दुभाव 
मे माभूत्मुझमें न हो जाए
भावार्थ:-सम्मानित व्यक्तियों के लिए समाज में फैला हुआ अपयश मृत्यु से भी बढ़कर होता है, इसीलिए राजा रघु बिल्कुल नहीं चाहते कि समाज में यह निन्दा फैल जाए कि कोई वेद का विद्वान्, शास्त्रों का ज्ञाता ब्राह्मण अपने गुरु को गुरुदक्षिणा देना चाहता था और इसी उद्देश्य से धन याचना करने के लिए वह राजा रघु के पास आया और खाली हाथ लौट गया।
स त्वं प्रशस्ते महिते मदीये
वसंश्चतुर्थोऽग्निरिवाग्न्यगारे
द्वित्राण्यहान्यहसि सोढुमर्हन्
यावद्यते साधयितुं त्वदर्थम्॥ 16 ॥
स त्वंआप 
मदीयेमेरी  
 महितेविशाल तथा 
प्रशस्तेप्रशंसनीय
 अग्न्यगारेयज्ञशाला में  
चतुर्थःचतुर्थ 
 अग्निः इवअग्नि के समान
 द्वित्राणिदो-तीन 
 अहानिदिन
यावत्तक
वसन्रहते हुए 
 सोढुम्बिता 
अर्हसिसकते हैं।
(हे) अर्हन् !हे पूजनीय ब्रह्मचारी!
 त्वदर्थंमैं आपके प्रयोजन को 
साधयितुंसिद्ध करने के लिए   
यतेयत्न करूंगा।
भावार्थ:-दक्षिणाग्नि, गार्हपत्याग्नि और आहवनीयाग्नि नाम से यज्ञ की अग्नि तीन प्रकार की होती है, ये तीनों अग्नियाँ याजकों के लिए अति श्रद्धेय होती हैं। रघु कौत्स को चतुर्थ अग्नि की भाँति पूजनीय समझते हैं और उससे निवेदन करते हैं की आप मेरी ही यज्ञशाला में दो-तीन दिन तक प्रतीक्षा करें, जिससे 14 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का प्रबन्ध किया जा सके।
तथेति तस्यावितथं प्रतीत:
प्रत्यग्रहीत्सङ्गरमग्रजन्मा।
गामात्तसारां रघुरप्यवेक्ष्य
निष्क्रष्टुमर्थं चकमे कुबेरात्।। 17 ॥
अग्रजन्माब्राह्मण कौत्स ने
 प्रतीतःप्रसन्न होकर 
तस्यउस राजा रघु के 
अवितथंसत्यवचन
सङ्गरंप्रतिज्ञा को 
तथा इति ‘ठीक है’यह कहकर
प्रत्यग्रहीत्स्वीकार किया। 
रघुः अपिरघु ने भी 
गाम्पृथिवी को
 आत्तसाराम्प्राप्तधन वाली 
अवेक्ष्यदेखकर
कुबेरात्कुबेर से 
अर्थंधन 
निष्क्रष्टुंछीन लेने की 
चकमेइच्छा की।
भावार्थः-याचक कौत्स और दाता रघु दोनों को परस्पर विश्वास है। कौत्स ने रघु के वचनों को सत्य प्रतिज्ञा के रूप में ग्रहण किया। रघु ने कौत्स की याचना के पूर्ण करने हेतु धन के स्वामी कुबेर पर आक्रमण कर उसका धन हरण कर लेने की इच्छा की।
प्रातः प्रयाणाभिमुखाय तस्मै
सविस्मयाः कोषगृहे नियुक्ताः।
हिरण्मयी कोषगृहस्य मध्ये
वृष्टिं शशंसुः पतितां नभस्तः ॥ 18 ॥
प्रातःप्रात:काल (कुबेर की ओर)
 प्रयाणाभिमुखायप्रस्थान करने के लिए तैयार हुए
तस्मैउस रघु के
 कोषगृहेकोषगृह में
 नियुक्ताःनियुक्त अधिकारियों ने
 सविस्मयाःआश्चर्यचकित 
(सन्तः)होते हुए 
 कोषगृहस्य मध्येखजाने में 
 नभस्तःआकाश से 
 पतितांगिरने वाली 
हिरण्मयींसुवर्णमयी 
 वृष्टिं शशंसुःवर्षा के बारे में कहा।
भावार्थ:-राजा रघु जैसे ही प्रातःकाल कुबेर की ओर प्रस्थान करने के लिए तैयार हुआ, तभी रघु के कोशगृह के अधिकारियों ने देखा कि उस खजाने में सुवर्ण मुद्राओं की वर्षा हो चुकी है। अधिकारियों को यह सब देखकर आश्चर्य हुआ और उन्होंने राजा रघु को यह समाचार सुनाया।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
तं भूपतिर्भासुरहेमराशिं
लब्धं कुबेरादभियास्यमानात्।
दिदेश कौत्साय समस्तमेव
पादं सुमेरोरिव वज्रभिन्नम्॥ 19 ॥
भूपतिःराजा रघु ने  
अभियास्यमानात्आक्रमण किए जाने वाले
कुबेरात् कुबेर से 
लब्धंप्राप्त 
वज्रभिन्नंवज्र के द्वारा टुकड़े किए गए
 सुमेरोःसुमेरु 
पादम् इवचतुर्थ भाग के समान 
भासुरंचमकती हुई
 तं समस्तम् उन समस्त
एव हेमराशिंसुवर्ण मुद्राओं को 
कौत्सायकौत्स के लिए 
दिदेशदे दिया।
भावार्थ:-कुबेर ने रघु के आक्रमण के भय से उसके खजाने को सुवर्ण मुद्राओं से भर दिया। वे सुवर्ण मुद्राएँ परिमाण में इतनी अधिक थी कि ऐसा लगता था मानो सुमेरु पर्वत का ही वज्र से काटकर उसका चौथा हिस्सा खजाने में रख दिया। महाराज रघु ने कुबेर से प्राप्त हुई सभी सुवर्ण मुद्राएँ याचक कौत्स को प्रदान कर दी अर्थात् चौदह करोड़ ही न देकर पूरा खजाना ही कौत्स को सौंप दिया।
जनस्य साकेतनिवासिनस्तौ
द्वावप्यभूतामभिनन्धसत्त्वौ।
गुरुप्रदेयाधिकानिःस्पृहोऽर्थी
नृपोऽर्थिकामादधिकप्रदश्च ॥ 20॥
तौ द्वौ अपिवे (महाराजा रघु और कौत्स) दोनों ही
 साकेतनिवासिनःअयोध्यावासी  
जनस्यलोगों के लिए 
अभिनन्द्यसत्त्वौप्रशंसनीय व्यवहार वाले
 अभूताम्गए।
 गुरुप्रदेयाद्क्योंकि गुरु को समर्पण करने योग्य धन से 
अधिकनिःस्पृहः अर्थीअधिक.धन लेने में  इच्छा न रखने वाला याचक कौत्स था
 अर्थिकामात्और याचक की याचना से  
अधिकप्रदःअधिक धन देने वाला  
नृपः चराजा रघु था। 
(आसीत्)था। 
भावार्थ:-कौत्स की निर्लोभता की सीमा नहीं थी और महाराज रघु की उदारता की सीमा नहीं थी। कौत्स गुरुदक्षिणा में देने योग्य चौदह करोड़ मुद्राओं से एक थी अधिक नहीं लेना चाहता और राजा सारा खजाना ही उसे दे देना चाहते थे-दोनों के इस अद्भुत व्यवहार से अयोध्यावासी धन्य हो गए और दोनों की ही अत्यधिक प्रशंसा करने लगे।

हिन्दीभाषया पाठस्य सारः

         प्रस्तुत पाठ ‘रघुकौत्ससंवादः’ महाकवि कालिदास द्वारा रचित ‘रघुवंश-महाकाव्यम्’ के पञ्चम सर्ग से सम्पादित है। इसमें महाराज रघु एवं वरतन्तु ऋषि के शिष्य कौत्स नामक ब्रह्मचारी के मध्य साकेत नगरी में हुआ संवाद वर्णित है।कौत्स अपने गुरु ऋषि वरतन्तु से वेद, पुराण, वेदाङ्ग, दर्शन आदि 14 विद्याओं का अध्ययन समाप्त करके अपने गुरु से बार-बार गुरुदक्षिणा लेने की प्रार्थना करता है। गुरु द्वारा गुरुभक्ति को ही गुरुदक्षिणा रूप में मानने पर भी कौत्स गुरुदक्षिणा स्वीकार करने की निरन्तर प्रार्थना करता है। इससे रुष्ट होकर वरतन्तु उसे गुरुदक्षिणा के रूप में 14 करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देने की आज्ञा देते हैं।
         महाराज रघु विश्वजित् नामक यज्ञ में सर्वस्व दान कर चुके हैं। कौत्स उनके पास गुरुदक्षिणा के लिए धन माँगने आता है। कौत्स महाराज रघु की धनहीनता देखकर वापस लौटने लगता है। महाराज रघु उसे रोकते हैं और पूछते हैं कि वह अपने गुरु को गुरुदक्षिणा में क्या देना चाहता है ? वह बताता है कि गुरुदेव ने चौदह विद्याओं को पढ़ाने के प्रतिफल में 14 करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ गुरुदक्षिणा के रूप में देने का आदेश दिया है। ब्रह्मचारी कौत्स की याचना पूर्ण करने के उद्देश्य से महाराज रघु धनपति कुबेर पर आक्रमण करने की योजना बनाते हैं। भयभीत कुबेर रघु के कोषागार में सुवर्ण-वृष्टि कर देते हैं। रघु कौत्स को सारा धन प्रदान कर सन्तुष्ट होते हैं परन्तु कौत्स उनमें से केवल 14 करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ देने के लिए गुरुदक्षिणा प्राप्त कर सन्तुष्ट भाव से लौट जाते हैं।
       इस पाठ से यह सन्देश मिलता है कि महाराज रघु की भाँति शासक को सर्वसाधारण जन के प्रति उदार एवं कल्याणकारी होना चाहिए तथा याचक को कौत्स की भाँति अपनी आवश्यकता से अधिक धन प्राप्त करने की इच्छा नहीं रखनी चाहिए।
1. संस्कृतभाषया उत्तरं लिखत
(क) कौत्सः कस्य शिष्यः आसीत् ?
(ख) रघुः कम् अध्वरम् अनुतिष्ठति स्म ?
(ग) कौत्सः किमर्थं रघु प्राप ?
(घ) मन्त्रकृताम् अग्रणीः कः आसीत् ?
(ङ) तीर्थप्रतिपादितद्धिः नरेन्द्रः कथमिव आभाति स्म ?
(च) चातकोऽपि कं न याचते ?
(छ) कौत्सस्य गुरुः गुरुदक्षिणात्वेन कियद्धनं देयमिति आदिदेश ?
(ज) रघुः कस्मात् परीवादात् भीतः आसीत् ?
(झ) कस्मात् अर्थं निष्क्रष्टुम् रघुः चकमे ?
(ञ) हिरण्मयीं वृष्टिं के शशंसुः ?
(ट) कौ अभिनन्धसत्वौ अभूताम् ?
उत्तरम्:
(क) कौत्सः महर्षेः वरतन्तोः शिष्यः आसीत्।
(ख) रघुः ‘विश्वजित्’-नामकम् अध्वरम् अनुतिष्ठति स्म।
(ग) कौत्सः गुरुदक्षिणार्थं धनं याचितुं रघु प्राप।
(घ) मन्त्रकृताम् अग्रणी: महर्षिः वरतन्तुः आसीत्।
(ङ) तीर्थप्रतिपादितर्द्धिः नरेन्द्रः स्तम्बेन अवशिष्टः नीवारः इव आभाति स्म।
(च) चातकोऽपि निर्गलिताम्बुग) शरद्घनं न याचते।
(छ) कौत्सस्य गुरु: गुरुदक्षिणात्वेन चतुर्दशकोटी: सुवर्णमुद्राः प्रदेयाः इति आदिदेश।
(ज) ‘कश्चित् याचक: गुरुप्रदेयम् अर्थं रघोः अनवाप्य अन्यं दातारं गतः’ इति परीवादात् रघुः भीतः आसीत्।
(झ) कुबेरात् अर्थं निष्क्रष्टुम् रघुः चकमे।
(ञ) हिरण्मयीं वृष्टिं गृहकोषे नियुक्ताः अधिकारिणः शशंसुः ।
(ट) द्वौ रघुकौत्सौ अभिनन्द्यसत्त्वौ अभूताम्।
2. कोष्ठकात् समुचितं पदमादाय रिक्तस्थानानि पूरयत
(क) यससा ………………… अतिथिं प्रत्युज्जगाम। (प्रकाशः, कृष्णः, आतिथेयः)
(ख) मानधनाग्रयायी ……………….. तपोधनम् उवाच। (विशाम्पतिः, अकृताञ्जलिः, कौत्सः)
(ग) कुशाग्रबुद्धे ! ………………… कुशली। (ते शिष्यः, ते गुरुः, अग्रणी:)
(घ) हे राजन् ! सर्वत्र ………………… अवेहि। (दुःखम्, वार्तम्, असुखम्)
(ङ) स्तम्बेन अवशिष्टः …………… इव आभासि। (धान्यम्, नीवारः, वृक्षः)
(च) हे विद्वन् ! ………………… गुरवे कियत् प्रदेयम्।। (त्वया, मया, लोकेन)
(छ) ………………… अचिन्तयित्वा गुरुणा अहमुक्तः। (शरीरक्लेशम्, अर्थकार्यम्, रोगक्लेशम्)
उत्तरम्:
(क) प्रकाशः
(ख) विशाम्पतिः
(ग) ते गुरुः
(घ) वार्तम्
(ङ) नीवारः
(च) त्वया
(छ) अर्थकार्यम्।
3. अधोलिखितानां सप्रसङ्गं हिन्दीभाषया व्याख्या कार्या
(क) कोटीश्चतस्रो दश चाहर।
(ख) माभूत्परीवादनवावतारः।
(ग) द्वित्राण्यहान्यर्हसि सोढुमर्हन्।
(घ) निष्क्रष्टुमर्थं चकमे कुबेरात्।
(ङ) दिदेश कौत्साय समस्तमेव।
उत्तरम्:
(क) कोटीश्चतस्रो दश चाहर।
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ से ‘रघुकौत्ससंवादः’ नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ कविकुलशिरोमणि महाकवि कालिदास द्वारा रचित ‘रघुवंशमहाकाव्यम्’ के पञ्चम सर्ग में से सम्पादित किया गया है। इसमें महर्षि वरतन्तु के शिष्य कौत्स का गुरुदक्षिणा के लिए आग्रह, बार-बार के आग्रह से क्रोधित ऋषि द्वारा पढ़ाई गई चौदह विद्याओं की संख्या के अनुरूप चौदह करोड़ मुद्राएँ देने का आदेश, सर्वस्वदान कर चुके राजा रघु से कौत्स की धनयाचना ‘रघु के द्वार से’ याचक खाली हाथ लौट गया-इस अपकीर्ति के भय से रघु का कुबेर पर आक्रमण का विचार तथा भयभीत कुबेर द्वारा रघु के खजाने में धन वर्षा करने को संवाद रूप में वर्णित किया गया है।
व्याख्या-महर्षि वरतन्तु मन्त्रद्रष्टा ऋषि थे। न उनमें विद्या का अभिमान था, न गुरुदक्षिणा में धन का लोभ। कौत्स नामक एक शिष्य ने ऋषि से चौदह विद्याएँ अत्यन्त भक्ति भाव से ग्रहण की। विद्याप्राप्ति के पश्चात् कौत्स ने गुरुदक्षिणा स्वीकार करने का आग्रह किया। ऋषि ने कौत्स के भक्तिभाव को ही गुरुदक्षिणा मान लिया। परन्तु कौत्स गुरुदक्षिणा देने के लिए जिद्द करता रहता रहा और इस जिद्द से रुष्ट होकर कवि ने उसे पढ़ाई गई एक विद्या के लिए एक करोड़ सुवर्णमुद्राओं के हिसाब से चौदह करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ भेंट करने का आदेश दे दिया–’कोटीश्चतस्त्रो दश चाहर’।
(ख) मा भूत्परीवादनवावतारः।
(किसी निन्दा का नया प्रादुर्भाव न हो जाए।)
(ग) द्वित्राण्यहान्यर्हसि सोढमर्हन।
(हे पूजनीय ! दो-तीन तक आप मेरे पास ठहर जाएँ।)
(घ) निष्क्रष्टुमर्थं चकमे कुबेरात्।
(रघु ने कुबेर से धन ग्रहण करने की इच्छा की।)
(ङ) दिदेश कौत्साय समस्तमेव ।
(रघु ने कुबेर से प्राप्त सारा धन कौत्स के लिए दे दिया।)
उत्तर:
(ख), (ग), (घ) तथा (ङ) के लिए संयुक्त प्रसंग एवं व्याख्या
प्रसंग-(क) वाला ही उपयोग करें।
व्याख्या-महर्षि वरतन्तु का शिष्य कौत्स राजा रघु के पास गुरुदक्षिणार्थ धन याचना के लिए आता है। रघु विश्वजित् यज्ञ में सर्वस्व दान कर चुके हैं, अतः वे सुवर्णपात्र के स्थान पर मिट्टी के पात्र में जल आदि लेकर कौत्स का स्वागत करते हैं। कौत्स मिट्टी का पात्र देखकर अपने मनोरथ की पूर्ति में हताश हो जाता है और वापस लौटने लगता है। राजा रघु खाली हाथ लौटते हुए कौत्स को रोकते हैं क्योंकि सम्मानित व्यक्ति के लिए अपयश मृत्यु से बढ़कर होता है अत: उन्हें भय यह है कि कहीं प्रजा में यह निन्दा न फैल जाए कि कोई याचक रघु के पास आया था और खाली हाथ लौट गया था। वे कौत्स से उसका मनोरथ पूछते हैं। कौत्स सारा वृत्तान्त सुनाते हुए कहता है कि गुरु के आदेश के अनुसार चौदह करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ गुरुदक्षिणा में भेंट करनी हैं। रघु कौत्स से दो-तीन के लिए
आदरणीय अतिथि के रूप में ठहरने का अग्रह करते हैं, जिससे उचित धन का प्रबन्ध किया जा सके। कौत्स राजा की प्रतिज्ञा को सत्य मानकर ठहर जाता है। रघु भी उसकी याचना पूर्ति के लिए धन के स्वामी कुबेर पर आक्रमण का विचार करते हैं। कुबेर रघु के पराक्रम से भयभीत होकर रघु के खजाने में सुवर्ण वृष्टि कर देते हैं। उदार रघु यह सारा धन कौत्स को दे देते हैं, परन्तु निर्लोभी कौत्स उनमें से केवल 14 करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ लेकर लौट जाता है।
दाता सम्पूर्ण धनराशि देकर अपनी उदारता प्रकट करते हैं और याचक आवश्यकता से अधिक एक कौड़ी भी ग्रहण न करके उत्तम याचक का आदर्श उपस्थित करते हैं। इस प्रकार दोनों ही यशस्वी हो जाते हैं।
4. अधोलिखितेषु रिक्तस्थानेषु विशेष्य विशेषणपदानि पाठ्यांशात् चित्वा लिखत
(क) ………………….. अध्वरे।
(ख) ………………….. कोषजातम्।
(ग) …………………… अनुमितव्ययस्य।
(घ) ………………….. फलप्रसूतिः।
(ङ) ………………….. विवर्जिताय।
उत्तरम्
(क) विश्वजिति अध्वरे।
(ख) निःशेष-विश्राणित-कोषजातम्।
(ग) अर्घ्यपात्र-अनुमितव्ययस्य ।
(घ) आरण्यकोपात्त-फलप्रसूतिः।
(ङ) स्मयावेश-विवर्जिताय।
5. विग्रहपूर्वकं समासनाम निर्दिशत
(क) उपात्तविद्यः
(ख) तपोधनः
(ग) वरतन्तुशिष्यः
(घ) महर्षिः
(ङ) विहिताध्वराय
(च) जगदेकनाथः
(छ) नृपतिः
(ज) अनवाप्य
उत्तरम्:
(क) उपात्तविद्यः = उपात्ता प्राप्ता विद्या येन सः। (बहुव्रीहिः समासः)
(ख) तपोधनः = तपः एव धनं यस्य सः। (बहुव्रीहिः समासः)
(ग) वरतन्तुशिष्यः = वरतन्तोः शिष्यः (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(घ) महर्षिः = महान् ऋषिः (कर्मधारयः)
(ङ) विहिताध्वराय = विहितम् अध्वरं येन सः, तस्मै। (बहुव्रीहिः समासः)
(छ) नृपतिः = नृणां पतिः। (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(ज) अनवाप्य = न अवाप्य।
6. अधोलिखितानां पदानां समुचितं योजनं कुरुत
(अ) – (आ)
(क) ते (1) चतुर्दश
(ख) चतस्र: दश च (2) गुरुदक्षिणार्थी
(ग) अस्खलितोपचाराम् (3) अहानि
(घ) चैतन्यम् (4) स्वस्ति अस्तु
(ङ) कौत्स: (5) प्रबोध: प्रकाशो वा
(च) द्वित्राणि (6) भक्तिम्
उत्तरम-
(क) ते स्वस्ति अस्तु
(ख) चतस्र: दश च चतुर्दश
(ग) अस्खलितोपचारां भक्तिम्
(घ) चैतन्यम् प्रबोधः प्रकाशो वा
(ङ) कौत्सः गुरुदक्षिणार्थी
(च) द्वित्राणि अहानि
7. प्रकृतिप्रत्ययविभागः क्रियताम्
(क) अर्थी (ख) मृण्मयम् (ग) शासितुः (घ) अवशिष्टः (ङ) उक्त्वा
(च) प्रस्तुतम् (छ) उक्तः (ज) अवाप्य (झ) लब्धम् (ब) अवेक्ष्य।
उत्तरम्:
(क) अर्थी = अर्थ + इनि > इन् (पुंल्लिङ्गम् प्रथमा-एकवचनम्)
(ख) मृण्मयम् = मृत् + मयट् (नपुं०, प्रथमा-एकवचनम्)
(ग) शासितुः = √शास् + तृच् (पुंल्लिङ्गम् षष्ठी-एकवचनम्)
(घ) अवशिष्टः = अव + √शास् + क्त (पुंल्लिङ्गम्, प्रथमा-एकवचनम्)
(ङ) उक्त्वा = √वच् + क्त्वा (अव्ययपदम्)
(च) प्रस्तुतम् = प्र + √स्तु + क्त (नपुं०, प्रथमा-एकवचनम्)
(छ) उक्तः = √वच् + क्त (पुंल्लिङ्गम्, प्रथमा-एकवचनम्)
(ज) अवाप्य = अव + √आप् + ल्यप् (अव्ययपदम्)
(झ) लब्धम् = √लभ् + क्त (नपुं, प्रथमा-एकवचनम्)
(ब) अवेक्ष्य = अव + √ईक्ष् + ल्यप् (अव्ययपदम्)
8. विभक्ति-लिङ्ग-वचनादिनिर्देशपूर्वकं पदपरिचयं कुरुत
(क) जनस्य (ख) द्वौ (ग) तौ (घ) सुमेरोः (ङ) प्रातः (च) सकाशात् (छ) मे (ज) भूयः (झ) वित्तस्य
(ब) गुरुणा
उत्तरम्:
9. अधोलिखितानां क्रियापदानाम् अन्येषु पुरुषवचनेषु रूपाणि लिखत
(क) अग्रहीत् (ख) दिदेश (ग) अभूत् (घ) जगाद (ङ) उत्सहते (च) अर्दति (छ) याचते (ज) अवोचत्।
उत्तरम्:
10. अधोलिखितानां पदानां विलोमपदानि लिखत
(क) नि:शेषम् (ख) असकृत् (ग) उदाराम् (घ) अशुभम् (ङ) समस्तम्
उत्तरम्:
(विलोमपदानि)
(क) नि:शेषम् – शेषम्
(ख) असकृत् – सकृत्
(ग) उदाराम् – अनुदाराम्
(घ) अशुभम् – शुभम्
(ङ) समस्तम् – असमस्तम्
11. अधोलिखितानां पदानां वाक्येषु प्रयोगं कुरुत
(क) नृपः (ख) अर्थी (ग) भासुरम् (घ) वृष्टिः (ङ) वित्तम् (च) वदान्यः (छ) द्विजराजः (ज) गर्वः
(झ) घनः (ब) वार्तम्
उत्तरम्:
(वाक्यप्रयोगाः)
(क) नृपः (राजा)-नृपः रघुः कौत्साय समस्तं धनम् अयच्छत्।
(ख) अर्थी (याचक:)-कौत्सः गुरुदक्षिणार्थम् अर्थस्य अर्थी आसीत्।
(ग) भासुरम् (भास्वरम्)-रघुः भासुरं सुवर्णराशिं कौत्साय अयच्छत् ।
(घ) वृष्टिः (वर्षा)-रघोः कोषगृहे सुवर्णमयी वृष्टिः अभवत्।
(ङ) वित्तमद् (धनम्)-मुनीनां तपः एव वित्तं भवति।।
(च) वदान्यः (दानी)-रघुः याचकेषु उदारः वदान्यः आसीत्।
(छ) द्विजराजः (चन्द्रमाः)-रात्रौ आकाशे द्विजराजः दीव्यति।
(ज) गर्वः (अहंकारः)-गर्वः उचितः न भवति।।
(झ) घनः (मेघ:)-वर्षौ घनः गर्जति वर्षति च।
(ञ) वार्तम् (कुशलताम्)-राजा प्रजायाः वार्तम् इच्छति।
12. अधोलिखितानाम् (श्लोकानाम्) अन्वयं कुरुत
(क) सः मृण्मये वीतहिरण्मयत्वात् …….. आतिथेयः।
(ख) समाप्तविद्येन मया महर्षिः ……………….. पुरस्तात्।
(ग) स त्वं प्रशस्ते महिते मदीये ………………….. त्वदर्थम्।
उत्तरम्:
उपुर्यक्त तीनों श्लोकों का अन्वय पाठ में देखें।
13. अधोलिखितेषु प्रयुक्तानाम् अलङ्काराणां निर्देशं कुरुत
(क) ‘यतस्त्वया ज्ञानमशेषमाप्तं लोकेन चैतन्यमिवोष्णरश्मेः’।
(ख) शरीरमात्रेण नरेन्द्र ! तिष्ठना भासि …………… इवावशिष्टः॥
(ग) तं भूपतिर्भासुरहेमराशिं ………………. वज्रभिन्नम्।
उत्तरम्:
(क) उपमा – अलङ्कारः।
(ख) उपमा – अलङ्कारः ।
(ग) अनुप्रासः, उपमा च अलङ्कारौ।
14. अधोलिखितेषु छन्दः निर्दिश्यताम्
(क) तमध्वरे विश्वजिति क्षितीशं ………….. वरतन्तुशिष्यः॥
(ख) गुर्वर्थमर्थी श्रुतपारदृश्वा …… नवावतारः॥
(ग) स त्वं प्रशस्ते महिते …………. त्वदर्थम्॥
उत्तरम्:
(क) उपजातिः छन्दः
(ख) उपजाति: छन्दः
(ग) उपजातिः छन्दः।
I. समुचितम् उत्तरं चित्वा लिखत
(i) रघुवंशस्य रचयिता कः ?
(A) भासः
(B) कालिदासः
(C) माघः
(D) अश्वघोषः
(ii) कौत्सः कस्य शिष्यः आसीत् ?
(A) रघोः
(B) महर्षेः
(C) महर्षिवरतन्तोः
(D) वसिष्ठस्य।
(ii) रघुः कम् अध्वरम् अनुतिष्ठति स्म ?
(A) विश्वजित्-नामकम्
(B) पुत्रीयेष्टि-नामकम्
(C) पौर्णमास-नामकम्
(D) पाक्षिकम्।
(iv) मन्त्रकृताम् अग्रणीः कः आसीत् ?
(A) रघुः
(B) दिलीपः
(C) रामः
(D) वरतन्तुः
(v) कस्मात् अर्थं निष्क्रष्टुम् रघुः चकमे ?
(A) कृष्णात्
(B) इन्द्रात्
(C) कुबेरात्
(D) शिवात्।
(vi) हिरण्मयीं वृष्टिं के शशंसुः ?
(A) अधिकारिणः
(B) मित्राणि
(C) याचकाः
(D) प्रजाः।
(vii) कौ अभिनन्धसत्वौ अभूताम् ?
(A) गुरुशिष्यौ
(B) वरतन्तुकौत्सौ
(C) रघुकौत्सौ
(D) रघुवरतन्तू।
II. रेखाङ्कितपदम् आधृत्य-प्रश्ननिर्माणाय समुचितम् पदं चित्त्वा लिखत
(i) मा भूत् परीवादनवावतारः।
(A) कस्य
(B) कस्मात्
(C) कस्मिन्
(D) कस्याम्।
उत्तरम्:
(A),कस्य
(ii) दिदेश कौत्साय समस्तमेव।
(A) कः
(B) कस्मिन्
(C) कस्मै
(D) कम्।
उत्तराणि:
(C) कस्मै
(ii) कौत्सः वरतन्तोः शिष्यः आसीत्।
(A) कम्
(B) कस्मै
(C) कस्मात्
(D) कस्य।
उत्तराणि:
(D) कस्य
(iv) रघुः विश्वजितम् अध्वरम् अनुतिष्ठति स्म।
(A) कः
(B) कम्
(C) कस्मै
(D) कस्याः ।
उत्तराणि:
(B) कम्
(v) वरतन्तुः मन्त्रकृताम् अग्रणीः आसीत्।
(A) केषाम्
(B) कस्य
(C) कस्मिन्
(D) कस्याः ।
उत्तराणि:
(A) केषाम्।

शुक्रवार, 1 मई 2020

विद्ययाऽमृतमश्नुते

  विद्ययाऽमृतमश्नुते

        जेसीईआरटी तथा एनसीईआरटी के कक्षा-12 के संस्कृत पाठ्यपुस्तक-शाश्वती भाग 2 के प्रथमः पाठः विद्ययाऽमृतमश्नुते  का शब्दार्थ सहित हिन्दी अनुवाद एवं भावार्थ तथा उस पर आधारित प्रश्नोत्तर सीबीएसई सत्र-2022-2023 के लिए यहाँ दिए गए हैं।यहाँ दिए गए हिंदी अनुवाद तथा भावार्थ की मदद से विद्यार्थी पूरे पाठ को आसानी से समझकर अभ्यास के प्रश्नों को स्वयं कर सकते हैं।
          प्रस्तुत पाठ ईशावास्योपनिषत् से संकलित है। 'ईशावास्यम्' पद से आरम्भ होने के कारण इसे ईशावास्योपनिषत् की संज्ञा दी गयी है। यह उपनिषत् यजुर्वेद की माध्यन्दिन एवं काण्व संहिता का 40वाँ अध्याय है,जिसमें 18 मन्त्र हैं। इस संकलन के आद्य दो मन्त्रों में ईश्वर की सर्वत्र विद्यमानता को दर्शाते हुए,कर्तव्य भावना से कर्म करने एवं त्यागपूर्वक संसार के पदार्थों का उपयोग एवं संरक्षण करने का निर्देश है। आत्मस्वरूप ईश्वर की व्यापकता को जो लोग स्वीकार नहीं करते हैं, उनके अज्ञान को तृतीय मन्त्र में दर्शाया है। चतुर्थ मन्त्र में चैतन्य स्वरूप, स्वयं प्रकाश एवं विभु सर्वव्यापक आत्म तत्त्व का निरूपण है। पञ्चम एवं षष्ठ मन्त्रों में अविद्या अर्थात् व्यावहारिक ज्ञान एवं विद्या अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान पर सूक्ष्म चिन्तन निहित है।'जगत्यां जगत्' 'ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी है, सब जगत् अर्थात् गतिमय है'-उपनिषद् के इस सिद्धान्त की पुष्टि आधुनिक विज्ञान एवं आधुनिक खोज द्वारा भी होती है। निरन्तर परिवर्तन तथा निरन्तर गतिमयता ब्रह्माण्ड के समस्त सूर्य + चन्द्र + पृथ्वी आदि ग्रह-उपग्रहों का स्वभाव है।  अन्तिम मन्त्र व्यावहारिक ज्ञान से लौकिक अभ्युदय एवं अध्यात्मज्ञान से अमरता की प्राप्ति को बतलाता है।जो लोग 'अविद्या' शब्द द्वारा कहे जाने वाले यज्ञयाग,भौतिकशास्त्र आदि सांसारिक ज्ञान में दैनिक सुख-साधनों की प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील रहते हैं; उनकी सांसारिक उन्नति तो बहुत होती है, परन्तु उनका अध्यात्म पक्ष निर्बल रह जाता है। जो लोग केवल अध्यात्म ज्ञान में ही लीन रहते हैं और भौतिक ज्ञान की साधन सामग्री की अवहेलना करते हैं, वे सांसारिक जीवन के निर्वाह तथा सांसारिक उन्नति में पिछड़ जाते हैं।इसीलिए अविद्या अर्थात् भौतिकज्ञान द्वारा जीवन की सुख-साधन सामग्री अर्जित कर विद्या अर्थात् अध्यात्मज्ञान द्वारा जन्म-मरण के दुःख से रहित अमृतपद को प्राप्त करने का सारगर्भित उपदेश इस उपनिषद् में दिया गया है-अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्याऽमृतमश्नुतेइस पाठ्यांश से यह सन्देश मिलता है कि लौकिक एवं अध्यात्म विद्या एक दूसरे की पूरक है तथा मानव जीवन की परिपूर्णता एवं सर्वाङ्गीण विकास में समान रूप से महत्त्व रखती है।
  उपनिषदों को ब्रह्मविद्या', 'ज्ञानकाण्ड' अथवा 'वेदान्त' नाम से भी जाना जाता है।वेदों का सार उपनिषदों में निहित है। गुरु के समीप बैठकर अध्यात्मविद्या ग्रहण की जाती है- यह 'उपनिषद्' शब्द का अर्थ है। 'उप' तथा 'नि' उपसर्ग पूर्वक सद (षदल) धात से 'क्विप' प्रत्यय होकर 'उपनिषद' शब्द निष्पन्न होता है-उप + नि + √सद + क्विप > 0 = उपनिषद् जिससे अज्ञान का नाश होता है तथा आत्मा का ज्ञान सिद्ध होता है,संसार चक्र का दुःख छूट जाता है;वह ज्ञानराशि 'उपनिषद्' कही जाती है।उपनिषद्' नाम से 200 से भी अधिक ग्रन्थ मिलते हैं। परन्तु प्रामाणिक दृष्टि से उनमें 11 उपनिषद् ही महत्त्वपूर्ण हैं और इन्हीं पर आचार्य शकर का भाष्य भी मिलता है। इनके नाम इस प्रकार हैं-1. ईशावास्य 2. केन, 3. कठ, 4. प्रश्न, 5. मुण्डक, 6. माण्डूक्य, 7. तैत्तिरीय, 8. ऐतरेय, 9. छान्दोग्य, 10. बृहदारण्यक तथा 11. श्वेताश्वतर। 

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।1।।

जगत्याम् =अखिल ब्रह्माण्डमें

यत् किं च =जो कुछ भी

जगत्= जड चेतनस्वरूप जगत् है,

इदम्= यह

सर्वम्= समस्त

ईशा= ईश्वर से

वास्यम्=व्याप्त है

तेन=उस ईश्वरको साथ रखते हुए

त्यक्तेन=त्यागपूर्वक

भुञ्जीथाः= (इसे) भोगते रहो;

मा गृधः= (इसमें) आसक्त मत होओ

(क्योंकि)

धनम्= भोग्य-पदार्थ

कस्य स्वित्= किसका है अर्थात् किसीका भी नहीं है।

भावार्थ: - इस संसार में जो भी  पदार्थ दृष्टिगोचर हो रहे हैं,उनमें  परमात्मा व्यापक है। वही इन सब पदार्थों का ईश अर्थात् स्वामी है। इसीलिए उस परमेश्वर को सदा सब जगह व्यापक मानते हुए त्यागभाव से ही सृष्टि के पदार्थों का उपभोग करना चाहिए। किसी के भी धन पर गृद्ध दृष्टि नहीं रखनी चाहिए क्योंकि अन्ततः यह धन किसी का भी नहीं। त्यागपूर्वक भोग शरीर के लिए भोजन (शरीर की शक्ति) बन जाता है और आसक्ति से किसा गया भोग विषय-भोग बन जाता है। ऐसा आसक्तिमय भोग ही रोग का कारण होता है-'भोगे रोगभयम्'। 

कुर्वनेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ।।

एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥2॥

इह= इस संसार में

कर्माणि= (शास्त्रनिर्धारित) कर्मों को

कुर्वन्= (ईश्वर पूजार्थ) करते हुए

एव=ही

शतम् समाः= सौ वर्षों तक

जिजीविषेत्= जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिये।

एवम्=इस प्रकार

(त्यागभावसे, परमेश्वरके लिये)

कर्म=किये जानेवाले कर्म

त्वयि= तुझ

नरे=मनुष्य में

न लिप्यते=लिप्त नहीं होंगे

इतः=इससे (भिन्न)

अन्यथा=अन्य किसी प्रकार का मार्ग

न अस्ति=नहीं है।

(जिससे कि मनुष्य कर्म-बन्धन से मुक्त हो सके।)

भावार्थ: - इस मन्त्र में कर्म करते हुए-पुरुषार्थी बनकर ही सौ वर्षों तक जीवन का संकल्प किया गया है। मनुष्य को संसार में अनासक्त भाव से कर्म करते हुए स्वाभिमान पूर्वक जीवन यापन करना चाहिए। लोभ/आसक्ति के कारण ही मनुष्य पाप कर्म करता है।कर्तव्य भाव से किए गए कर्म सदा शुभ होते हैं। अतः ऐसे निष्काम कर्म मनुष्य को कर्म-बन्धन में नहीं बाँधते,अपितु उसे मुक्त जीवन प्रदान करते है।मनुष्य को निठल्ले रहकर नहीं अपितु जीवन भर पुरुषार्थी बनकर कर्तव्य भाव से शुभ कर्म करते हुए ही अपना जीवन यापन करना चाहिए। जीवन्मुक्त होने का यही एक उपाय है,इससे भिन्न कोई उपाय नहीं है। 

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः ।

ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्म॒हनो जनाः ॥3॥

असुर्याः=असुरोंके (जो)

नाम= प्रसिद्ध

लोकाः= नाना प्रकार की योनियाँ एवं नरकरूप लोक हैं,

ते=वे सभी

अन्धेन तमसा=अज्ञान तथा दुःखक्लेशरूप महान् अन्धकारसे आवृताः=आच्छादित हैं,

ये के च=जो कोई भी

आत्महनः=आत्माकी हत्या करनेवाले

जनाः=मनुष्य हों,

ते=वे

प्रेत्य=मरकर

तान्=उन्हीं भयंकर लोकोंको

अभिगच्छन्ति=बार-बार प्राप्त होते हैं ।

भावार्थ-आत्मा के दो रूप हैं-परमात्मा और जीवात्मा। परमात्मा सम्पूर्ण जड़-चेतन में व्यापक होकर उसे अपने शासन में रखता है। जीवात्मा शरीर में व्यापक होकर उसे अपने नियन्त्रण में रखता है।आत्मा के विरुद्ध अधर्म का आचरण करना तथा आत्मा की सत्ता को स्वीकार न करना ही आत्महत्या है। जो लोग आत्मा के स्वरूप का तिरस्कार करते हैं तथा अपने प्राणपोषण के लिए आसक्तिपूर्वक सृष्टि के पदार्थों का भोग करते हैं,वे असुर हैं। ऐसे राक्षसवृत्ति लोगों को मरने के पश्चात् उन 'असुर्या' नामक अन्धकारमयी योनियों में जन्म मिलता है, जहाँ ज्ञान का प्रकाश नहीं होता। 

अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत् ।

तद्धावतोऽन्यानत्येति॒ तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति॥4॥

(तत्)=वे परमेश्वर

अनेजत्= अचल

एकम्= एक(और)

मनसः= मन से (भी)

जवीयः=अधिक तीव्र गतिवाले हैं,

पूर्वम्=सबके आदि

अर्षत्=ज्ञानस्वरूप या सबके जाननेवाले हैं

एनत्=इन परमेश्वर को

देवाः=इन्द्रादि देवता भी

न आप्नुवन्=नहीं पा सके या जान सके हैं

तत्=वे (परमेश्वर)

अन्यान्=दूसरे

धावतः=दौड़नेवालों को

तिष्ठत्=(स्वयं) स्थिर रहते हुए ही

अत्येति=अतिक्रमण कर जाते हैं।

तस्मिन्=उनके होनेपर ही-उन्हीं की सत्ता-शक्ति से

मातरिश्वा=वायु आदि देवता

अपः=जलवर्षा आदि क्रिया

दधाति=सम्पादन करने में समर्थ होते हैं ।

भावार्थ- वह परमात्मा अचल,एक,मन से भी अधिक वेगवान् तथा इन्द्रियों की परे है। परमात्मा की व्यवस्था से ही मित्र और वरुण नामक वायु मिलकर जल का रूप धारण करते हैं अथवा परमात्मा की व्यवस्था में ही सभी जीवात्माएँ अपने-अपने कर्मों को धारण करती हैं। 

अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते ।

ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः ॥5॥

ये=जो मनुष्य

अविद्याम्=अविद्याकी

उपासते=उपासना करते हैं, (वे)

अन्धम्=अज्ञानस्वरूप

तमः=घोर अन्धकारमें

प्रविशन्ति=प्रवेश करते हैं; (और)

ये=जो मनुष्य

विद्यायाम्=विद्यामें

रताः=रत हैं अर्थात् ज्ञान के मिथ्याभिमान में मत्त हैं;

ते=वे

ततः=उससे

उ=भी

भूयः इव=मानो अधिकतर घोर

तमः=अन्धकार में प्रवेश करते हैं।

भावार्थ: - 'अविद्या' से तात्पर्य है शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायता करने वाला ज्ञान। 'विद्या' का अर्थ है, आत्मा के रहस्य को प्रकट करने वाला अध्यात्म ज्ञान।यदि व्यक्ति केवल भौतिक साधनों को जुटाने का ज्ञान ही  'अविद्या' को प्राप्त करता है और 'आत्मा' के स्वरूपज्ञान को भूल जाता है तो बहुत बड़ा अज्ञान है, उसका जीवन अन्धकारमय है। परन्तु जो व्यक्ति केवल अध्यात्म ज्ञान  'विद्या' में ही मस्त रहता है, उसकी दुर्दशा तो भौतिक ज्ञान वाले से भी अधिक दयनीय होती है। क्योंकि भौतिक साधनों के अभाव में शरीर की रक्षा भी कठिन हो जाएगी। अत:भौतिक ज्ञान तथा अध्यात्म ज्ञान से युक्त सन्तुलित जीवन ही सफल और आनन्दित जीवन है। 

अन्यदे॒वाहुर्विद्यया अन्यदाहुरविद्यया ।

इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥6॥

विद्यया=ज्ञान के यथार्थ अनुष्ठान से

अन्यत् एव=दूसरा ही फल

आहुः=बतलाते हैं (और)

अविद्यया=कर्मों के यथार्थ अनुष्ठान से

अन्यत्=दूसरा (ही) फल

आहुः=बतलाते हैं

इति=इस प्रकार

(हमने)

धीराणाम्=(उन) धीर पुरुषों के

शुश्रुम=वचन सुने हैं

ये=जिन्होंने

नः=हमें

तत्=उस विषय को

विचचक्षिरे=व्याख्या करके भलीभाँति समझाया था ।

भावार्थ: - अविद्या अर्थात् व्यावहारिक ज्ञान से सांसारिक सुख-साधनों की प्राप्ति तथा शरीर की भूख-प्यास दूर होती है।विद्या आत्मा को अपने स्वरूप में स्थिर बनाता है। इस प्रकार दोनों प्रकार का ज्ञान अलग-अलग उद्देश्य को सिद्ध करता है। जिन विद्वान् लोगों ने अविद्या और विद्या के इस रहस्य को हमारे कल्याण के लिए समझाया है, उन्हीं से हमने ऐसा सुना है।

विद्यां चाविद्यां च यस्तवेदोभयं सह ।।

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्याऽमृतमश्नुते ॥7॥

ये=जो मनुष्य

तत् उभयम्=उन दोनों को (अर्थात्)

विद्याम्=ज्ञान के तत्त्व को

=और

अविद्याम्=कर्म के तत्त्व को

=भी

सह=साथ-साथ

वेद=यथार्थतः जान लेता है

(वह)

अविद्यया=कर्मों के अनुष्ठान से

मृत्युम्=मृत्यु को

तीर्त्वा=पार करके
विद्यया=ज्ञानके अनुष्ठान से
अमृतम्=अमृत को
अश्नुते=भोगता है अर्थात् परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है।
भावार्थ-इस जड़-चेतन जगत् में सर्वत्र व्याप्त परमात्मा तथा शरीर में व्याप्त जीवात्मा के ज्ञान को अध्यात्म ज्ञान कहा जाता है। यह मोक्षदायी यथार्थ ज्ञान ही 'विद्या' है। इससे भिन्न सभी प्रकार के ज्ञान को 'अविद्या' नाम दिया गया है। 'विद्या' शब्द का प्रयोग यहाँ 'अध्यात्मज्ञान' के अर्थ में हुआ है। अध्यात्म ज्ञान से भिन्न सृष्टिविज्ञान,यज्ञविज्ञान, भौतिकविज्ञान,आयुर्विज्ञान, गणितविज्ञान,अर्थशास्त्र प्रौद्योगिकी,सूचनातन्त्र आदि सभी प्रकार का ज्ञान 'अविद्या' शब्द में समाहित हो जाता है। यह ज्ञान मनुष्य को मृत्यु दुःख से छुड़वाता है और इसी अध्यात्म ज्ञान द्वारा मनुष्य फिर अमरत्व अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है,जन्म मरण के चक्र से छूट जाता है। इस प्रकार यह दोनों प्रकार का ज्ञान ही मनुष्य के लिए आवश्यक है, तभी वह इहलोक तथा परलोक दोनों को सिद्ध कर सकता है। 
अभ्यासः-

प्रश्न 1. 
संस्कृतभाषया उत्तरं लिखत - 
(क) ईशावास्योपनिषद् कस्याः संहितायाः भागः? 
(ख) जगत्सर्वं कीदृशम् अस्ति? 
(ग) पदार्थभोगः कथं करणीयः? 
(घ) शतं समाः कथं जिजीविषेत्? 
(ङ) आत्महनो जनाः कीदृशं लोकं गच्छन्ति? 
(च) मनसोऽपि वेगवान् कः? 
(छ) तिष्ठन्नपि कः धावतः अन्यान् अत्येति?
(ज) अन्धन्तमः के प्रविशन्ति? 
(झ) धीरेभ्यः ऋषयः किं श्रुतवन्तः? 
(ञ) अविद्यया किं तरति? 
(ट) विद्यया किं प्राप्नोति? 
उत्तरम्- 
(क) ईशावास्योपनिषद् यजुर्वेद-संहितायाः भागः। 
(ख) जगत्सर्वम् ईशावास्यम् अस्ति। 
(ग) पदार्थभोगः त्यागपूर्वकं करणीयः। 
(घ) शतं समाः कर्माणि कुर्वन् जिजीविषेत्। 
(ङ) आत्महनो जनाः असुर्या  लोकं गच्छन्ति। 

(च) मनसोऽपि वेगवान् ईश्वरः अस्ति। 
(छ) तिष्ठन्नपि ईश्वरः धावतः अन्यान् अत्येति। 
(ज) ये अविद्याम् उपासते ते अन्धन्तमः प्रविशन्ति। 
(ञ) अविद्यया मृत्युं तरति।
(ट) विद्यया अमृतं प्राप्नोति। 
(झ) धीरेभ्यः ऋषयः इति श्रुतवन्तः यत् विद्यया अन्यत् फलं भवति अविद्यया च अन्यत् फलं भवति।
प्रश्न 2. 'ईशावास्यम्........कस्यस्विद्धनम्' इत्यस्य भावं सरलसंस्कृतभाषया विशदयत -
उत्तरम्-(संस्कृतभाषया भावार्थः)- 
अस्मिन् सृष्टिचक्रे यत् किमपि जड-चेतनादिकं जगत् अस्ति, तत् सर्वम् ईश्वरेण व्याप्तम् अस्ति। ईश्वरः संसारे व्यापकः अस्ति, सः एव च संसारस्य सर्वेषां पदार्थानाम् ईशः = स्वामी। अतः त्यागभावेन एव सांसारिक-पदार्थानाम् उपभोगः करणीयः। कदापि कस्य अपि धने लोभः न करणीयः।
प्रश्न 3. 'अन्धन्तमः प्रविशन्ति.......विद्यायां रताः' इति मन्त्रस्य भावं हिन्दीभाषया आंग्लभाषया वा विशदयत -    उत्तरम्- अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते ।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः ॥
जो मनुष्य अविद्या की उपासना करते हैं,(वे)अज्ञानस्वरूप घोर अन्धकारमें प्रवेश करते हैं; (और)जो मनुष्य विद्यामें रत हैं अर्थात् ज्ञान के मिथ्याभिमान में मत्त हैं;वे उससे भी मानो अधिकतर घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं। प्रश्न 4.विद्यां चाविद्यां च......ऽमृतमश्नुते' इति मन्त्रस्य तात्पर्य स्पष्टयत - 
उत्तरम्-                                                                                                                                             विद्यां चाविद्यां च यस्तवेदोभयं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्याऽमृतमश्नुते ॥ जो मनुष्य उन दोनों को (अर्थात्) ज्ञान के तत्त्व को और कर्म के तत्त्व को भी साथ-साथ यथार्थतः जान लेता है(वह) कर्मों के अनुष्ठान से मृत्यु को पार करके ज्ञानके अनुष्ठान से अमृत को भोगता है अर्थात् परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है।
प्रश्न 5.रिक्तस्थानानि पूरयत-
(क) इदं सर्वं जगत्.................।
(ख) मा गृधः .........। 
(ग) शतं समाः ....................... जिजीविषेत।
(घ) असुर्या नाम लोका ....................... आवृताः। 
(ङ) अविद्योपासकाः ....................... प्रविशन्ति। 
उत्तरम्-
(क)ईशावास्यम्
(ख) कस्यस्वित् धनम्
(ग) कर्माणि कुर्वन्
(घ) अन्धेनतमसा  
(ङ)अन्धन्तमः

प्रश्न 6.अधोलिखितानां सप्रसंग हिन्दीभाषया व्याख्या कार्या - 
(क) तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः। 
(ख) न कर्म लिप्यते नरे।। 
(ग) तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति।
(घ) अविद्यया मृत्युं तीर्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते। 
(ङ) एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति। 
(च) तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः। 
(छ) अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनदेवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत्। 
उत्तरम्- 
(क) तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः।
    प्रसंग-प्रस्तुत पंक्ति 'ईशावास्य-उपनिषद्' से संगृहीत 'विद्ययाऽमृतमश्नुते' पाठ के पहले मन्त्र 'ईशावास्यम्..........'  से लिया गया है। इसमें त्यागपूर्वक भोग करने के लिए उपदेश दिया गया है।
            भोजन से शरीर को ऊर्जा मिलती है और भोग करने में रोग का भय रहता है-'भोगे रोगभयम्'।इसलिए त्यागपूर्वक भोग करना चाहिए।मनुष्य का कर्तव्य है कि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इन पदार्थों को त्यागपूर्वक ग्रहण करे। इनके उपयोग में लोभ कदापि न करे,क्योंकि लोभवश पदार्थों का उपभोग करने से प्रकृति का सन्तुलन बिगड़ जाता है और मनुष्य का अपना शरीर भी रोगी हो जाता है।
(ख) न कर्म लिप्यते नरे।
 प्रसंग-प्रस्तुत पंक्ति 'ईशावास्योपनिषद्' से संगृहित 'विद्ययाऽमृतमश्नुते' पाठ के दूसरे मन्त्र कुर्वनेवेह कर्माणि .... ..... से लिया गया है। इसमें बताया गया है कि निष्काम कर्म बन्धन का कारण नहीं होते।
        पंक्ति में कहा गया है कि मनुष्य अपनी पूर्ण इच्छाशक्ति से जीवन भर कर्म करे,कर्महीन बिल्कुल न रहे, पुरुषार्थी बने। जिन पदार्थों को पाने के लिए हम कर्म करते हैं,उनका वास्तविक स्वामी  ईश्वर है।अतः यदि मनुष्य पदार्थों के ग्रहण में त्याग भाव रखते हुए,ईश्वर को सर्वव्यापक समझते हुए कर्तव्य भाव से अनासक्त होकर कर्म करता है तो ऐसे निष्काम कर्म मनुष्य को सांसारिक बन्धन में नहीं डालते अपितु उसे जीवन्मुक्त बना देते हैं।'मनुष्य में कर्मों का लेप नहीं होता है।
 (ग) तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति।
         प्रस्तुत पंक्ति  'ईशावास्योपनिषद्' से संगृहीत 'विद्ययाऽमृतमश्नुते' पाठ में संकलित मन्त्र से लिया गया है। इसमें वायु को जलों का धारण करने वाला कहा गया है।
          पंक्ति में परमात्मा का स्वरूप वर्णन करते हुए उसे अचल,एक तथा मन से भी गतिशील बताते कहा गया है कि इस संसार में ईश्वर-व्यवस्था निरन्तर कार्य कर रही है। सभी प्राणी ईश्वरीय व्यवस्था के अधीन होकर अपने-अपने कर्म फलों को प्राप्त करते हैं। उसी के नियम से वायु बहती है, सर्य-चन्द्र चमकते हैं, पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है,फल-फूल-वनस्पतियाँ पैदा होती हैं।
  (घ) अविद्यया मृत्यु ती विद्ययाऽमृतमश्नुते।
               प्रस्तुत पंक्ति 'ईशावास्य-उपनिषद्' से संकलित 'विद्ययाऽमृतमश्नुते' नामक पाठ में संगृहीत मन्त्र से उद्धृत है। इस पंक्ति में व्यावहारिक ज्ञान द्वारा मृत्यु को जीतकर अध्यात्म ज्ञान द्वारा अमरत्व प्राप्ति का रहस्य उद्घाटित किया गया है।
              अध्यात्म ज्ञान से भिन्न सृष्टिविज्ञान, यज्ञविज्ञान, भौतिकविज्ञान, आयुर्विज्ञान, गणितविज्ञान, अर्थशास्त्र प्रौद्योगिकी, सूचनातन्त्र आदि सभी प्रकार का ज्ञान 'अविद्या'  है। यह अध्यात्मेतर ज्ञान मनुष्य को मृत्यु दुःख से छुड़वाता है और  अध्यात्म ज्ञान द्वारा मनुष्य फिर अमरत्व अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है,जन्म मरण के चक्र से छूट जाता है। जो मनुष्य विद्या अर्थात् अध्यात्मज्ञान तथा अविद्या अर्थात् अध्यात्म ज्ञान से भिन्न सभी प्रकार का व्यावहारिक ज्ञान, दोनों को एक साथ जानता है। वह व्यावहारिक ज्ञान द्वारा मृत्यु को पारकर अध्यात्म ज्ञान द्वारा जन्म मृत्यु के दुःख से रहित अमरत्व को प्राप्त करता है।इस प्रकार यह दोनों प्रकार का ज्ञान ही मनुष्य के लिए आवश्यक है, तभी वह इहलोक तथा परलोक दोनों को सिद्ध कर सकता है।
(ङ) एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति।
          प्रस्तुत पंक्ति 'ईशोपनिषद्' से सम्पादित 'विद्ययाऽमृतमश्नुते' नामक पाठ में संकलित मन्त्र से उद्धृत है। इस पंक्ति में उस मार्ग की ओर संकेत किया गया है,जिस मार्ग पर चलकर मनुष्य कर्मबन्धन में नहीं पड़ता।                     अनासक्त भाव से किया गया कर्म सदा शुभ ही होता है, अतः ऐसे कर्म मनुष्य के बन्धन का कारण नहीं होते अपितु उसे जीवन्मुक्त बना देते हैं। इस मार्ग को छोड़कर जीवन्मुक्त होने का कोई दूसरा मार्ग नहीं है। यह पंक्ति ईशोपनिषद् के पहले दो मन्त्रों के उपदेश की ओर पाठक का ध्यान केन्द्रित करता है। साधारण रूप से कर्म के सम्बन्ध में यह धारणा है कि कर्म चाहे अच्छा हो या बुरा-मनुष्य कर्मबन्धन में अवश्य बँधता है। वह मार्ग है ईश्वर को सदा सर्वत्र व्यापक मानते हुए आसक्ति छोड़कर कर्तव्य भाव से कर्म करने का मार्ग।                                      आत्मा अमर है, यह कभी नहीं मरता। आत्मा के विरुद्ध अधर्म का आचरण करना तथा आत्मा की सत्ता को स्वीकार न करना ही आत्महत्या है। आत्मा के दो रूप हैं-परमात्मा और जीवात्मा।                                          प्रश्न-8.प्रकृतिं प्रत्ययं च योजयित्वा पदरचनां कुरुत ।
त्यज्+क्त; कृ + शतृ; तत् + तसिल्
उत्तरम्-
त्यज्+क्त=त्यक्तः
कृ + शतृ=कुर्वन् 
तत् + तसिल्=ततः
प्रश्न 9.प्रकृतिप्रत्ययविभागः क्रियताम् - 
प्रेत्य, तीर्वा, धावतः, तिष्ठत्, जवीयः 
उत्तरम्-
(क) प्रेत्य = प्र + √इ + ल्यप् 
(ख) तीर्त्वा = √तृ + क्त्वा 
(ग) धावतः = √धाव + शतृ (नपुंसकलिङ्गम्, षष्ठी-एकवचनम्)
 (घ) तिष्ठत् = √स्था + शतृ (नपुंसकलिङ्गम्, प्रथमा-एकवचनम्)
  (ङ) जवीयः =√जव + ईयसुन् > ईयस् (नपुंसकलिङ्गम्, प्रथमा-एकवचनम्)
10.अधोलिखितानि पदानि आश्रित्य वाक्यरचनां कुरुत -
जगत्याम्, धनम्, भुञ्जीथाः, शतम्, कर्माणि, तमसा, त्वयि, अभिगच्छन्ति, प्रविशन्ति, धीराणाम्, विद्यायाम्, भूयः, समाः।
उत्तरम्-
जगत्याम्-जगत्याम् मम रुचि नास्ति। 
धनम्-कस्य धनम् अस्ति ? 
भुञ्जीथाः-भोगान् त्यागभावेन भुञ्जीथाः। 
शतम्- कर्माणि कुर्वन् एव शतं वर्षाणि यावत् जिजीविषेत्। 
कर्माणि- कर्माणि कुर्वन् एव जिजीविषेत्।
तमसा-एतत् गृहं तमसा आवृतम् अस्ति। 
त्वयि-त्वयि कः पालयति ? 
अभिगच्छन्ति-विद्यार्थिनः पुस्तकाय गुरुम् अभिगच्छन्ति। 
प्रविशन्ति-अविद्यायाः मूर्खाः अन्धन्तमः प्रविशन्ति। 
धीराणाम्-धीराणाम् कार्यं अनुकरणीयः।
विद्यायाम्-विद्यार्थिनः विद्यायाम्  रताः भवन्ति। 
भूयः(पुनः)- पाण्डवाः भूयः वनम् अगच्छन्। 
समाः (वर्षाणि)- अधुना जनाः शतं समाः न जीवन्ति। 
11.सन्धि/सन्धिच्छेदं वा कुरुत
 उत्तरम्- : 
(क) ईशावास्यम् - ईश + आवास्यम् 
(ख) कुर्वन्नेवेह - कुर्वन् + एव + इह 
(ग) जिजीविषेत् + शतं - जिजीविषेच्छतम् 
(घ) तत् + धावतः - तद्धावतः 
(ङ) अनेजत् + एकं - अनेजदेकम् 
(च) आहुः + अविद्यया - आहुरविद्यया 
(छ) अन्यथेतः - अन्यथा + इतः 
(ज) ताँस्ते - तान् + ते।
12.अधोलिखितानां समुचितं योजनं कुरुत -
 धनम्-                            वायुः 
समाः-                           आत्मानं ये घ्नन्ति 
असुर्याः-                       श्रुतवन्तः स्म
मातरिश्वा-                      वर्षाणि
शुश्रुम-                         अमरताम् 
अमृतम्-                       वित्तम्
 उत्तरम्- 
धनम्-वित्तम्
समाः-वर्षाणि
असुर्याः-आत्मानं ये घ्नन्ति 
मातरिश्वा-वायुः
शुश्रुम-श्रुतवन्तः स्म 
अमृतम्-अमरताम् 
13.अधोलिखितानां पदानां पर्यायपदानि लिखत - 
 नरे, ईशः, जगत्, कर्म, धीराः, विद्या, अविद्या 
उत्तरम्- 
नरे = मनुष्ये 
ईशः = ईश्वरः 
जगत् = संसारः 
कर्म = कार्यम् 
धीराः = पण्डिताः
विद्या = ज्ञानम् 
अविद्या =कर्मम् 
14.अधोलिखितानां पदानां विलोमपदानि लिखत - 
एकम्, तिष्ठत्, तमसा, उभयम्, जवीयः, मृत्युम् 
उत्तरम्- एकम् - अनेकम् 
तमसा - प्रकाशेन 
उभयम् - एकम् 
जवीयः - शनैश्चरम्, 
तिष्ठत्-उपविशत् 
मृत्युम् - अमृतम् 

योग्यताविस्तारः

समग्रेऽस्मिन् विश्वे ज्ञानस्याचं स्रोतो वेदराशिरिति सुधियः आमनन्ति। तादृशस्य वेदस्य सारः उपनिषत्सु समाहितो वर्तते। उपनिषदां 'ब्रह्मविद्या' 'ज्ञानकाण्डम्' 'वेदान्तः' इत्यपि नामान्तराणि विद्यन्ते। उप-नि इत्युपसर्गसहितात् सद् (षद्लु) धातोः क्विप् प्रत्यये कृते उपनिषत्-शब्दो निष्पद्यते, येन अज्ञानस्य नाशो भवति, आत्मनो ज्ञानं साध्यते, संसारचक्रस्य दुःखं शिथिलीभवति तादृशो ज्ञानराशि: उपनिषत्पदेन अभिधीयते। गुरोः समीपे उपविश्य अध्यात्मविद्याग्रहणं भवतीत्यपि कारणात् उपनिषदिति पदं सार्थकं भवति।

       प्रसिद्धासु 108 उपनिषत्स्वपि 11 उपनिषदः अत्यन्तं महत्त्वपूर्णाः महनीयाश्च। ताः ईश-केन-कठ-प्रश्न-मुण्डक माण्डूक्य-ऐतरेय-तैत्तिरीय-छान्दोग्य-बृहदारण्यक-श्वेताश्वतराख्याः वेदान्ताचार्याणां टीकाभिः परिमण्डिताः सन्ति। आद्यायाम् ईशावास्योपनिषदि 'ईशाधीनं जगत्सर्वम्' इति प्रतिपाद्य भगवदर्पणबुद्ध्या भोगो निर्दिश्यते। ईशोपनिषदि 'जगत्यां जगत्' इति कथनेन समस्तब्रह्माण्डस्य या गत्यात्मकता निरूपिता सा आधुनिकगवेषणाभिरपि सत्यापिता। सततं परिवर्तमाना ब्रह्माण्डगता चलनस्वभावा या सृष्टि:-पशूनां प्राणिनां, तेजः पुञ्जानां, नदीनां, तरङ्गाणां वायोः वा; या च स्थिरत्वेन अवलोक्यमाना सृष्टि:-पर्वतानां, वृक्षाणां, भवनादीनां वा सा सर्वा अपि सृष्टिः ईश्वराधीना सती चलत्स्वभावा एव। ईश्वरस्य विभूत्या सर्वा अपि सृष्टि: परिपूर्णा चलत्स्वभावा च चकास्ते। तदुक्तं भगवद्गीतायाम् -                                             यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं   श्रीमदूर्जितमेव वा।                                                                           तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽशसम्भवम् ॥ इति ॥ भगवद्गीता-10.41

उपनिषत्प्रस्थानरहस्यं विद्याया अविद्यायाश्च समन्वयमुखेन अत्र उद्घाटितमस्ति। ये जना अविद्यापदवाच्येषु यज्ञयागादिकर्मसु, भौतिक-शास्त्रेषु, लौकिकेषु ज्ञानेषु दैनन्दिनसुखसाधन-सञ्चयनार्थं संलग्नमानसा भवन्ति ते लौकिकीम् उन्नतिं प्राप्नुवन्त्येव; किन्तु तेषां तेषां जनानाम् आध्यात्मिकं बलम्, अन्तरसत्त्वं वा निस्सारं भवति। ये तु विद्यापदवाच्ये आत्मज्ञाने एव केवलं संलग्नमनसः भवन्ति, भौतिकज्ञानस्य साधनसामग्रीणां च तिरस्कारं कुर्वन्ति ते जीवननिर्वाहे, लौकिकेऽभ्युदये च क्लेशमनुभवन्ति।

अत एव अविद्यया भौतिकज्ञानराशिभिः मानवकल्याणकारीणि जीवनयात्रासम्पादकानि वस्तूनि सम्प्राप्य विद्यया आत्मज्ञानेन-ईश्वरज्ञानेन जन्ममृत्युदुःखरहितम् अमृतत्वं प्राप्नोति। विद्याया अविद्यायाश्च ज्ञानेन एव इहलोके सुखं परत्र च अमृतत्वमिति कल्याणी वाचम् उपदिशति उपनिषत् 'अविद्यया मृत्युं तीर्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते' इति।

पाठ्यांशेन सह भावसाम्यं पर्यालोचयत -

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायोऽह्यकर्मणः। 
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः॥ भगवद्गीता-3.8 
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्। 
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते॥ कठोपनिषत्-3.15

कठोपनिषदि प्रतिपादितं श्रेयं प्रेयश्च अधिकृत्य सङ्ग्रणीत-दिङ्मात्रं यथा -

श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ 
संपरीत्य विविनक्ति धीरः। 
श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते 
प्रेयो मन्दो योगक्षेमात् वृणीते॥ कठोपनिषत्-2.2

विविधासु उपनिषत्सु प्रतिपादिताम् आत्मप्राप्तिविषयकजिज्ञासां विशदयत -

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो 
न मेधया न बहुना श्रुतेन। 
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष 
आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥ कठोपनिषत्-2.23

वैदिकस्वराः

वैदिकमन्त्रेषु उच्चारणदृष्ट्या त्रिविधानां 'स्वराणां' प्रयोगो भवति। मन्त्राणाम् अर्थमधिकृत्य चिन्तनं, प्रकृतिप्रत्यययोः योगं, समासं वाश्रित्य भवति। तत्र अर्थनिर्धारणे स्वरा महत्त्वपूर्णा भवन्ति। 'उच्चैरुदात्तः' 'नीचैरनुदात्तः' 'समाहारः स्वरित:' इति पाणिनीयानुशासनानुरूपम् उदात्तस्वरः ताल्वादिस्थानेषु उपरिभागे उच्चारणीयः, अनुदात्तस्वरः ताल्वादीनां नीचैः स्थानेषु, उभयोः स्वरयोः समाहाररूपेण (समप्रधानत्वेन)स्वरित उच्चारणीय इति उच्चारणक्रमः। वैदिकशब्दानां निर्वचनार्थं प्रवृत्ते निरुक्ताख्ये ग्रन्थे पाणिनीयशिक्षायां च स्वरस्य महत्त्वम् इत्थमुक्तम् -

मन्त्रो हीनस्स्वरतो वर्णतो वा 
मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह। 
स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति 
यथेन्द्रशत्रुस्स्वरतोऽपराधात्॥

मन्त्राः स्वरसहिताः उच्चारणीया इति परम्परा। अत: स्वरितस्वरः अक्षराणाम् उपरि चिह्नन, अनुदात्तस्वरः अक्षराणां नीचैः चिह्नन उदात्तस्वरः किमपि चिह्न विना च मन्त्राणां पठन-सौकर्यार्थ प्रदर्श्यते।

         इसप्रकार यहाँ एनसीईआरटी के कक्षा-12 के संस्कृत पाठ्यपुस्तक-शाश्वती द्वितीय भाग  के प्रथमः पाठः-विद्ययाऽमृतमश्नुते  का शब्दार्थ सहित हिन्दी अनुवाद एवं भावार्थ तथा उस पर आधारित प्रश्नोत्तर सीबीएसई सत्र-2022-2023 के लिए प्रस्तुत किया गया।यहाँ दिए गए हिंदी अनुवाद तथा भावार्थ की मदद से विद्यार्थी पूरे पाठ को आसानी से समझकर अभ्यास के प्रश्नों को स्वयं कर सकते हैं।